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Home » ईरान और इराक युद्धः इस्लामी क्रांति से लेकर हिजाब विवाद, कैसे जुड़े हैं तार
विमर्श

ईरान और इराक युद्धः इस्लामी क्रांति से लेकर हिजाब विवाद, कैसे जुड़े हैं तार

प्रतिभा शर्माBy प्रतिभा शर्माSeptember 23, 2022No Comments8 Mins Read
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ईरान और इराक युद्धः इस्लामिक क्रांति से लेकर हिजाब विवाद,कैसे जुड़े हैं तार
ईरान और इराक युद्धः इस्लामिक क्रांति से लेकर हिजाब विवाद,कैसे जुड़े हैं तार
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आज से 42 साल पहले 22 सितंबर 1980 को ईरान और इराक के बीच ऐसे युद्ध की नींव पड़ी थी, जिसने भविष्य के लिए ना सिर्फ दोनों देशों के बीच खाई पाटने का काम किया था बल्कि ईरान के अंदर भी कई राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक समीकरणों को हमेशा के लिए बदल के रख दिया।

सीमा और धर्म संबंधी विवादों के साथ शुरू हुए युद्ध में रसायनिक हथियारों का उपयोग हुआ था। इसे 20वीं शताब्दी का सबसे भीषण युद्ध कहा जा सकता है, जिसमें 10 लाख लोगों ने अपनी जान गँवा दी थी। जंग के समय इराक के राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन थे, जिनके सिर पर अमेरिका का हाथ था। युद्ध में दोनों देशों को भारी नुकसान उठाना पड़ा था।

युद्ध का अंत 20 अगस्त 1988 को हुआ था लेकिन, ईरान और इराक के बीच द्विपक्षीय संबंध और सैनिकों की वापसी के साथ औपचारिक शांति समझौता 1990 में ही बहाल हो पाया था।

ईरान और इराक के बीच हुए युद्ध के कारण जानने से पहले दोनों देशों की राजनीतिक और भौगोलिक स्थिति समझने की जरूरत है। इस भीषण जंग से पहले ईरान ने बड़े बदलावों का सामना किया था। इसी का फायदा उठाकर इराक के सद्दाम हुसैन ने ईरान पर आक्रमण किया था। हम बात कर रहे हैं 1979 में ईरान में हुई उस ऐतिहासिक इस्लामी क्रांति की, जिसके बाद देश में सामाजिक धार्मिक दृष्टिकोण हमेशा के लिए बदल गया।

ईरान में इस्लामिक क्रांति

ईरान में 1941-1979 तक मोहम्मद रजा पहलवी का शासन था, इन्होंने ही देश में श्वेत क्रांति की शुरूआत की थी।

श्वेत क्रांति– देश का आधुनिकीकरण करने के लिए शुरू की गई थी। इसमें महिलाओं को मतदान का अधिकार, भूमि जोत का पुनर्वितरण, किसानों के लिए कार्य शामिल थे।

1973 के बाद से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हालात बदलने लगे, कच्चे तेल की कीमतों में गिरावट आई। इसके बाद ईरान की अर्थव्यवस्थआ को नुकसान का सामना करना पड़ा।
ईरानी शाह की श्वेत क्रांति को मौलवियों ने इस्लाम को नुकसान वाला बताकर जनता को उकसाने का काम किया।

1978 तक देश की जनता शाह के खिलाफ सड़कों पर उतर आई और इसका नेतृत्व किया 14 साल से राजनीतिक निर्वासन में फ्रांस में रह रहे अयातुल्लाह रुहोल्ला खोमैनी ने। 10 दिनों में चली क्रांति के दौरान ईरानी शाह ने देश में मार्शल लॉ लगाया था, गृहयुद्ध की स्थिति थी।

जनता अयातुल्लाह रुहोल्ला खोमैनी को देश बुलाने के लिए प्रदर्शन कर रही थी। उनके नेतृत्व में क्रांति सफल रही। 10 दिनों में ही मोहम्मद रजा पहलवी को गद्दी छोड़कर अमेरिका जाना पड़ा था। क्रांति के जनक माने जा रहे खोमैनी को ईरान का सर्वोच्च नेता चुना गया। हालाँकि, पहलवी ने भी जाने से पहले विपक्षी नेता शापोर बख्तियार को अंतरिम प्रधानमंत्री नियुक्त किया था।

शापोर बख्तियार ने खोमैनी को ईरान में रहने की इजाजत दी थी लेकिन, कहा था इसके बाद भी प्रधानमंत्री वो खुद ही होंगे। हालाँकि, तेहरान में खोमैनी ने ‘सरकार गठन’ का ऐलान कर के मेहदी बाजारगान को अंतरिम प्रधानमंत्री नियुक्त कर दिया था।

इस्लामी क्रांतिः प्रभाव

इस्लामिक क्रांति आने से पहले ईरान की तस्वीर खुले और स्वतंत्र समाज की थी, जिसमें इस्लामी कट्टरपंथ का का असर नहीं था। ईरान की संस्कृति पर पश्चिमी सभ्यता का व्यापक प्रभाव था। यह वो समय था जब इस देश में किसी तरह की धार्मिक पांबदियां नहीं थी। महिलाओं को स्वतंत्रता थी पहनावे की, रहन-सहन की, पुरुषों के साथ सार्वजनिक स्थानों पर घूमने की।

इस्लामिक देशों के बीच एकमात्र ईरान ऐसा देश था जिसका माहौल उस समय पेरिस या लंदन जैसी सभ्यताओं के साथ मेल खाता था। हालाँकि, इस्लामिक क्रांति ने यह खुलापन हमेशा के लिए खत्म कर दिया, जिसका असर आज भी देखा जा सकता है।

मार्च 1979 के बाद से इसे ‘इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ ईरान’ के नाम से जाना जाने लगा। खोमैनी ने सत्ता हाथ में लेने के बाद नए संविधान पर काम किया और ‘100% इस्लाम’ पर काम करते हुए इसे इस्लाम और शरियत पर आधारित बनाया।

नए संविधान ने देश में शरिया कानून लागू किया, महिलाओं के अधिकार सूली पर चढ़ा दिए गए। हिजाब और बुर्का पहनना अनिवार्य किया गया, ना पहनने पर 74 कोड़े मारने और 16 साल तक जेल की सजा का प्रावधान किया गया, जो कि आज भी लागू है। 1995 में एक ऐसा कानून भी बना, जिसके तहत 60 वर्ष तक की औरत अगर बिना हिजाब घर से बाहर निकलती है तो अधिकारियों को उसे जेल भेजने का अधिकार दिया गया।

ईरान में तख्तापलट करके शरियत कानून को लागू करने वाले अयातुल्लाह खोमैनी को अमेरिकी समाचार पत्रिका ‘टाइम’ ने उन्हें अंतरराष्ट्रीय प्रभाव के लिए ‘मैन ऑफ दी इयर’ से नामित किया था।

ईरान-इराक युद्ध

खोमैनी द्वारा तख्तापलट के बाद ईरान के इराक के साथ राजनीतिक और सामाजिक समीकरण बदले। ईरान ने संयुक्त अरब अमीरात से कुछ द्वीपों को छीन लिया था। इन द्वीपों पर इराक अपना अधिकार बताता था। इराक खुजेस्तान, जो कि तेल उत्पादक क्षेत्र थाय पर अपना स्वामीत्व चाहता था। इराक के राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन का सपना ‘शत-अल-अरब’ (टाइग्रीस(दजला), यूफ्रेटस (फरात) नदियों के संगम से बनी नदी है, जो दोनों देशों की सेना के बीच स्थित है) के दोनों किनारों पर फिर से स्वयं की सत्ता स्थापित करना था।

22 सिंतबर 1980 को, खुजेस्तान क्षेत्र में इराक ने जमीनी आक्रमण प्रारंभ किया और इसके हवाई हमले कर के ईरान पर हावी साबित हुआ। इराक ने सबसे पहले खुर्रमशहर पर कब्जा किया और नवंबर तक ईरान का ज्यादातर हिस्सा उसके कब्जे में था। ईरान ज्यादा दिन तक कमजोर नहीं रहा, यहाँ पर रेवोल्यूशनरी मिलिशिया ने 1981 में जवाबी हमला किया और 1982 तक सभी खोए हुए क्षेत्रों पर वापस से नियंत्रण हासिल किया।

1988 तक लगातार होते जमीनी हमलों ने ईरान को कमजोर कर दिया था। ईरान के धार्मिक नेताओं को भी लगने लगा था कि अब उन्हें इस युद्ध में जीत नहीं मिलने वाली है। इसी साल जुलाई में सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव 598 से 20 अगस्त 1988 को युद्धविराम हुआ।

प्रस्ताव 598:

संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद संकल्प 598 एस / आरईएस / 0598 (1987), को  20 जुलाई 1987 को सर्वसम्मति से अपनाया गया था। प्रस्ताव के अनुसार महासचिव से संघर्ष विराम की निगरानी के लिए पर्यवेक्षकों की एक टीम को भेजने का अनुरोध किया गया, जबकि संघर्ष को समाप्त करने के लिए एक स्थायी समझौता किया गया जो  8 अगस्त 1988 को प्रभावी हुआ।

इसके बाद खोमैनी ने कहा, “…यह निर्णय लेना जहर के प्याले के पीने से ज्यादा घातक है। मैंने खुद को अल्लाह की इच्छा के अधीन किया और उसकी संतुष्टि के लिए पेय लिया”

युद्ध के बाद ईरान की स्थिति और वर्तमान परिदृश्य

युद्ध समाप्ति के कुछ समय बाद ही अयातुल्लाह खोमैनी का निधन हो गया लेकिन, जाने से पहले वो ईरान में इस्लामिक क्रांति के जरिए कट्टरपंथ की नींव खड़ी कर के गए थे। इसका असर आज ईरान और अन्य मुस्लिम देश जहाँ शरियत लागू हैं, वहाँ देखा जा सकता है।

तुर्की का ही उदाहरण लें तो यहाँ के राष्ट्रपति एर्दोआँ ने एक बीन्जाटिन चर्च को मस्जिद में बदल दिया था और इसी के कुछ समय बाद इंस्ताबुल के प्रतीक के रूप में प्रसिद्ध हागिया सोफिया जो कि एक संग्रहालय था को मस्जिद में तब्दील करवा दिया गया।

बात सिर्फ संग्रहालय तक सीमित नहीं है यह सामाजिक, राजनीतिक और महिला अधिकारों के प्रति भी है, जिनका धर्म विशेष के कानूनों का हवाला देकर दमन कर दिया जाता है। इसका उदाहरण अफगानिस्तान, पाकिस्तान और ईरान जैसे देशों में देखा जा सकता है।

अफगानिस्तान में तालिबान सरकार भले ही महिला अधिकारों से सरोकार दिखा रही हो, लेकिन, सामने आया है कि वहाँ महिलाओं के पदों पर पुरुषों को नौकरी दी जा रही है। महिला शिक्षा, रोजगार और आवाजाही पर प्रतिबंध लगा दिए गए हैं तो इनपर हिंसा और बाल विवाह के मामलों में भी बढ़ोतरी सामने आई है।

ईरान का ही हाल ही में हुआ मामला लें तो यहाँ एक कुर्द महिला महसा अमिनि को हिजाब ना पहनने पर यहाँ की पुलिस ने बर्बरता हमला कर दिया, जिसके बाद उसकी मौत हो गई। महसा अमिनि की मौत ने दुनिया में एक बार फिर धार्मिक पहनावे पर विवाद शुरू कर दिया है।

अमिनि की मौत के बाद से ईरान की सड़कों पर महिलाएं विरोध प्रदर्शन कर रही हैं और अपने अधिकारों की मांग कर रही हैं. विरोध प्रदर्शन की उग्रता को देखते हुए ईरानी सरकार ने इंटरनेट सेवाएँ रद्द कर दी हैं। प्रदर्शनकारियों पर पुलिस द्वारा किए जा रहे बल प्रयोग का UN सहित कई देशों ने विरोध किया है।

ईरान की आज की स्थित की जड़े इस्लामिक क्रांति और ईरान-इराक युद्ध से जुड़ी हुई हैं। युद्ध की विभीषिका झेल चुका ये देश एक समय में इस्लामिक राष्ट्र के तौर पर महिला अधिकारों के साथ खड़ा नजर आता था। इसी देश में आज महिलाएं सड़क पर उतरकर अपने अधिकार माँगने को मजबूर हैं।

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