शास्त्रों, ग्रंथों और धार्मिक रीति-रिवाजों में हो या न हो पर हज़ारों वर्ष पुरानी सभ्याताओं के मूल में सामान्यजन का आचरण ही महत्वपूर्ण है। जन्म से लेकर मृत्यु तक किए जाने वाले व्यवहार सम्बंधित अलिखित नियम किसी भी सभ्य समाज की पहचान हैं। आवश्यक नहीं कि हम सब की शास्त्रों में आस्था हो। आवश्यक यह भी नहीं कि संवेदना का भाव या स्तर सबका एक जैसा हो। जब तक हम एक सामान्य आचरण पर अपनी सहमति बना लें और उसका पालन करे, इससे न केवल व्यक्तियों के बीच बल्कि समाज की समरसता भी बनी रहती है। समस्या तब होती है जब इस सामान्य आचरण में किसी भी कारण गिरावट दिखाई देती है।
आज संवेदनाओं पर बात कैसे और क्यों कर आई? दरअसल वर्ष के अंत के साथ ही कुछ दुखद घटनाएं हुई। दुर्भाग्यवश क्रिकेटर ऋषभ पंत दुर्घटनाग्रस्त हुए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मां का स्वर्गवास हुआ और अंतरराष्ट्रीय महान फुटबॉलर पेले ने भी दुनिया को विदा कह दिया। इस घटनाओं पर एक वर्ग द्वारा जिस व्यवहार का प्रदर्शन किया गया या जैसी प्रतिक्रिया सामने आई, सामाजिक मान्यताओं और व्यक्तिगत आचरण की कसौटी पर उन्हें संवेदनहीनता की श्रेणी में रखा जा सकता है।
ऐसे सार्वजनिक आचरण व्यक्तिगत व्यवहार में गरीबी का सूचक होते हैं। यही कारण है कि जब कुछ ऐसा दिखाई देता है, आम जनमानस में यह प्रश्न उठता है कि क्या किसी नियम का पालन किसी समाज के लिए आवश्यक कर दिया जाना चाहिए? हालाँकि, इस तरह के आचरण को किसी विचारधारा से जोड़ कर नहीं देखा जा सकता क्योंकि संवेदनहीनता किसी एक विचारधारा का हिस्सा नहीं है, पर यह प्रश्न भी स्वाभाविक तौर पर उठता है कि एक ख़ास समाज या विचारधारा के लोग ही हर बार ऐसा आचरण क्यों करते हैं?
शायद इसलिए क्योंकि किसी विचार दर्शन को मानते-मानते कुछ लोग इतने कट्टर हो चुके हैं कि अब विरोधी का कोई भी नुकसान उन्हें खुशी देता है। वैसे तो यह समझ में आता है इन ‘कुछ लोगों’ की संख्या अधिक नहीं है पर जितनी भी है, उनकी कोशिश अवश्य रहनी चाहिए कि सामाजिक रूप से ये लोग अपना आचरण सभ्य रखें। सभ्य न रख सकें तो रखने का दिखावा ही कर लें। ऐसा करना कठिन भले हो पर असंभव नहीं है। सार्वजनिक तौर पर वैचारिक या राजनीतिक आचरण पर नियंत्रण रखना एक सभ्य समाज का परिचायक है।
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संवेदनहीनता का चलन नया नहीं है लेकिन जितनी अक्खड़ता इसमें अब नजर आती है वो शायद पहले नज़र नहीं आती थी। संजय गाँधी के देहांत पर अटल बिहारी वाजपेयी पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी को हिम्मत बंधाने गए थे और तब उन्होंने लिखा कि जवान बेटा मौत के आगोश में हो और मां देश के बारे में सोच रही हो, ऐसा कभी देखने को नहीं मिला। जाहिर है राजनीति या समाज में हमें सामान्यतः देखने को मिल जाता है कि मृत्यु के वक्त विपक्षी भी हिम्मत बंधा देते हैं। ये एक ऐसा अलिखित नियम है जिसका पालन व्यक्ति या समूह स्वतः ही करता है।
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, यह एक दार्शनिक के विचार हैं। समाज में धार्मिक-सामाजिक नियम हमें बहुत कुछ सिखाते हैं। हम इनके साथ ही बड़े होते हैं तो बड़े होने के बाद इन्हें भूल जाते हैं। मानने को तो पृथ्वी पर उपस्थित सभी जीवों में मनुष्य को ही सबसे बुद्धिमान माना गया है पर जिस तरह के संकीर्ण व्यवहार का प्रदर्शन एक प्रबुद्ध वर्ग द्वारा किया जा रहा है अगर उसे ही बुद्धिजीवी माना जाने लगा है तो देश वाकई बदल गया है और यह बदलाव अच्छे के लिए नहीं है।
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हमारी संस्कृति, परंपरा और आचरण में लचीलापन, संवेदनाएं और नैतिकता है। एक आम भारतीय सहजता से यह नहीं मान सकता कि संवेदनशीलता अब इतिहास का हिस्सा बन गई है। संवेदना के प्रदर्शन को इतिहास या भूगोल से कुछ लेना-देना नहीं। वह व्यक्तिगत या सामूहिक होती है और मानव के मूल व्यवहार का हिस्सा है। ये फूहड़ता और अनैतिकता का सोशल मीडिया पर प्रदर्शन रोकने के लिए हमें अपनी जड़ों की ओर मुड़ने की आवश्यकता है। ये जड़ें ही हमें अलिखित सामाजिक नियमों का स्मरण करवाएंगी।