तब भारत को स्वतंत्रता प्राप्त किए हुए अधिक समय नहीं बीता था। भारत को इस स्वतंत्रता की भारी कीमत भी चुकानी पड़ी थी और मजहब के नाम पर भारत से, भारत के स्वतंत्रता संग्राम में शामिल हुए अपने मजहब वालों की कुर्बानियों की कीमत के तौर पर एक मुल्क ही अलग करके ले लिया गया था। वो लोग इतने पर भी माने नहीं और सिर्फ जमीन ही स्वतंत्रता संग्राम में शामिल होने की कीमत के तौर पर मिले, इसके लिए तैयार नहीं थे।
नए-नए स्वतंत्र हुए भारत की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी। फिर भी गाँधी ने भारत पर भूखे रहकर दबाव बनाने और काफी धन किसी और को दिलवा देने की कोशिशें भी की। इसके परिणाम लम्बे समय तक भारत को झेलने पड़े। आजादी की लड़ाई में शामिल होने की कीमत के तौर पर एक अलग मुल्क ले चुके लोगों को इतने पर संतुष्टि नहीं हुई और लम्बे समय बाद और अधिक कीमत वसूलने के लिए सिन्धु नदी जल समझौता हुआ। यानि जमीन के बाद अब पानी देने की बारी थी।
इंडस वाटर ट्रीटी (आईडब्ल्यूटी) नाम से जाने जाने वाले इस समझौते में भारत और इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ़ पाकिस्तान के बीच विश्व बैंक ने मध्यस्तता की थी। कराची (पाकिस्तान) में भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु और पाकिस्तान के तब के राष्ट्रपति अयूब खान ने इस समझौते पर 19 सितम्बर, 1960 को दस्तखत किए।
इस समझौते को देखते ही आज के किसी भी भारतीय का सर धुन लेने का मन करेगा। इस समझौते के प्रावधानों के मुताबिक तीन ‘पूर्वी नदियों’ ब्यास, रावी और सतलज का औसत सालाना पानी जोकि करीब 41 बिलियन क्यूबिक मीटर था, वो भारत को मिलना था। जो तीन ‘पश्चिमी नदियाँ’ थीं, सिन्धु, चेनाब और झेलम, उनका जो औसत 99 बिलियन क्यूबिक मीटर पानी था वो पाकिस्तान को जाता।
भारत की इन नदियों के पानी में से 20% के लगभग भारत के पास रहे और बाकी पूरा 80% पाकिस्तान को क्यों दिया जाना था, पता नहीं। इस संधि के मुताबिक भारत पश्चिमी नदियों के पानी का ‘सीमित इस्तेमाल’ सिंचाई, बिजली बनाने, नौकाएँ इत्यादि चलाने और मछली पालन इत्यादि के लिए कर सकता था। इस संधि में ये विस्तार से लिखा है कि भारत के लिए पश्चिमी नदियों पर या उनके आस पास (अपने ही देश में) किसी निर्माण के लिए क्या नियम लागू होंगे।
सिन्धु जल समझौते को सबसे सफल जल समझौतों में से माना जाता है क्योंकि 80% पानी और सारा खर्च भारत के सिर आता है और पाकिस्तान को सिर्फ उसे खर्च करना, उसका उपभोग करना है। इस संधि के अनुच्छेद 4 (IV (14)) में कहा गया है कि जिस जल का दोनों में से एक देश ने अगर कोई पानी इस्तेमाल नहीं किया है तो दूसरा देश उस पानी का कोई इस्तेमाल करने का अधिकार नहीं पा लेता।
मूलत: ये समझौता पानी के स्रोतों को साझा इस्तेमाल नहीं करता बल्कि स्पष्ट बंटवारा करता है। ऊपर से इस बंटवारे में भारत से निकलने वाली नदियों पर भारत को कम और पाकिस्तान को अधिक अधिकार मिल जाता है। समझौते के शुरूआती वर्षों में भारत पर ये समझौता और भी कई बोझ जबरन थोपता हुआ दिखेगा। जैसे कि जब तक पश्चिमी नदियों से पाकिस्तान नहरें बनवाता, तब तक के लिए उसे पूर्वी नदियों के पानी पर भी अधिकार मिला हुआ था। इसी संधि के अनुच्छेद 5.1 के मुताबिक भारत को ब्रिटिश पौंड में 62060000 की रकम (अगर गोल्ड स्टैण्डर्ड माने तो 125 मेट्रिक टन स्वर्ण) पाकिस्तान को देना था। ये रकम पाकिस्तान के पंजाब प्रान्त में नहरों को बनवाने पर खर्च होनी थी। दस किश्तों में भारत ने, 1965 का भारत-पाक युद्ध होने के बाद भी, ये रकम पाकिस्तान को दी थी।
संधि के नियमों के हिसाब से “परमानेंट इंडस कमीशन” बना था और दोनों देशों की ओर से एक एक कमिश्नर नियुक्त हुआ। भविष्य में किसी भी विवाद पर यही कमीशन फैसला करता था। तीन युद्ध होने के बाद भी ये कमीशन काम करता है। वर्ष में एक बार मिलकर ये विवादों या संभावित विवादों पर चर्चा करता है। साथ ही जिन जगहों पर आपसी सहयोग की संभावना है, उस पर भी ये कमीशन बात करता है। संधि के अनुच्छेद VIII (8) के मुताबिक इन दोनों कमिश्नर को अपने अपने देश में एक वार्षिक रिपोर्ट भी जमा करनी होती है। पाकिस्तान ने कभी भी अपने पक्ष की रिपोर्ट को सार्वजनिक नहीं किया है। हाँ, वो भारत पर संधि को भंग करने के अनर्गल झूठे आरोप जरूर लगता रहा है।
इसके अलावा संधि के मुताबिक इन नदियों पर कोई भी निर्माण हो रहा हो, जिससे दूसरे देश पर असर होने की संभावना हो तो उस प्रोजेक्ट के नक्शे, सारे आँकड़े दूसरे देश से साझा करने होते हैं। जैसे कि सलाल डैम के लिए हुआ था। मध्यस्थता के लिए एक “परमानेंट कोर्ट ऑफ आर्बिट्रेशन” भी है जिसमें विशेषज्ञ बैठते हैं। उदाहरण के तौर पर बगलिहार पॉवर प्लांट या किशनगंगा हाइड्रोइलेक्ट्रिक प्लांट के लिए ऐसा हुआ था।
पाकिस्तान ने संधि की कई शर्तों का बार-बार उल्लंघन किया है। जैसा कि आईडब्ल्यूटी के अनुच्छेद 2 में कहा गया है। उसका उल्लंघन करते हुए रावी और सतलुज के क्षेत्र में भूजल का पाकिस्तान ने अलग-अलग काम में इस्तेमाल शुरू किया हुआ है। ऐसे ही नदी प्रशिक्षण (जिसका अर्थ है नदी पर दिए गए / नियोजित अनुप्रस्थ काट आयामों के लिए एक निश्चित संरेखण के साथ नदी चैनल को स्थिर करने के लिए विभिन्न विधियों को अपनाना) के जरिए कच्छ की रण में भारतीय क्षेत्र में बाढ़ आए और उनका इलाका बचा रहे, ऐसी व्यवस्था पाकिस्त ने अनुच्छेद 3 (ए) का उल्लंघन करते हुए की हैं। बार बार की ऐसी हरकतों से परेशानी तो हो रही थी लेकिन नेहरु काल के इस मूर्खतापूर्ण समझौते को चुनौती देने की हिम्मत भारत की पुरानी सरकारों ने कभी नहीं दिखाई थी। हाल ही में ये स्थिति बदल गई।
सिन्धु नदी जल समझौते में बदलावों का नोटिस, भारत सरकार ने 25 जनवरी, 2023 को पाकिस्तान को भेजा है। विश्व बैंक, जिसके माध्यम से ये समझौता हुआ था, 2016 में ही स्वीकार चुका है कि पाकिस्तान की ओर से गलतियाँ हुई हैं। नोटिस जाने पर उसका जवाब देने के लिए पाकिस्तानी पक्ष को नब्बे दिन का समय मिलता है। अन्तरराष्ट्रीय ख़बरों पर भारत की हिंदी पट्टी कहलाने वाले या फिर स्थानीय भाषा के समाचारों का ध्यान थोड़ा कम रहता है, वरना 62 वर्ष पुराने समझौते में आख़िरकार जब सुधार की बात भारतीय पक्ष ने की, तो वो एक बड़ी बहस का मुद्दा होता है।
आगे देखना ये है कि अब जब भारत में एक ऐसी सरकार नजर आ रही है, जिसका विदेश मंत्रालय किसी और देश के हितों से पहले भारत के हितों को रखकर सोचता है, तो क्या इस पक्षपातपूर्ण समझौते से भारत को मुक्ति मिलेगी? बाकी खुद ही हमलावर हो और खुद को ही पीड़ित पक्ष घोषित करे ऐसी नीति तो हम वर्षों से इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ पाकिस्तान की देख ही रहे हैं।
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