वर्तमान परिप्रेक्ष्य में राजनीति और राष्ट्रनीति के बीच फर्क समझने वाले नेता विरले ही मिलते हैं। राजनीति दो अलग-अलग विचारों का विरोध प्रदर्शित करती है। यह स्वस्थ है, पर कभी इसकी मात्रा अधिक हो जाए तो यह व्यक्तिगत कुंठा के उस स्तर तक पहुँच जाती है, ऐसा स्तर जहां राष्ट्रनीति को भी भुला दिया जाता है। यह तो तय है कि राजनीति में कभी ऐसा स्तर आए जब राष्ट्रहित में आपको विरोधियों का भी साथ देना पड़े तो देना चाहिए क्योंकि वो राष्ट्रनीति के लिए है। इसे समझते हुए ही विपक्ष के नेता रहे अटल बिहारी वाजपेयी पूर्व प्रधानमंत्री नेहरू के कहने पर संयुक्त राष्ट्र महासभा सत्र के प्रतिनिधिमंडल के रूप में गए थे। इसी राष्ट्रनीति के लिए 1962 के युद्ध के समय अटल बिहारी वाजपेयी ने सरकार का समर्थन करने की बात की थी।
यह राष्ट्रनीति आज विपक्ष के किसी कोने से दिखाई नहीं देती है। राहुल गांधी विदेश जाते हैं तो देश का अपमान करने के लिए अपनी कलम से लिखा हुआ इतिहास बता देते हैं। देश के निर्वाचित प्रधानमंत्री पर लोकतंत्र खत्म करने का आरोप लगा देते हैं। इस दौरान उन्हें ओडिशा ट्रेन हादसे पर राजनीति करने का समय भी मिल जाता है पर विडंबना यह है कि कनाडा में खालिस्तानी संगठनों के कुकृत्य पर वे चुप्पी साध लेते हैं।
हाल ही में कनाडा में ऑपरेशन ब्लू स्टार की 39वें वर्षगांठ पर खालिस्तान समर्थकों द्वारा पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या करने के टेबलू का प्रदर्शन किया गया। इसके विरोध की प्रक्रिया भारत से आनी स्वभाविक थी, जो आई भी। विदेश मंत्री एस जयशंकर ने कनाडा सरकार को आड़े हाथों लेते हुए कहा कि वो वोट बैंक के लिए खालिस्तानी ताकतों को बढ़ावा दे रही है जो भारत और कनाडा के रिश्तों के लिए अच्छा नहीं है। यहां तक कि चरमपंथी संगठनों का समर्थन कनाडा के लिए भी अच्छा नहीं है। भाजपा नेता और विदेश राज्य मंत्री मीनाक्षी लेखी द्वारा भी इसी प्रकार की प्रतिक्रिया सामने आई।
हालांकि इस मामले में दिखी कांग्रेस की चुप्पी कई प्रश्नों को जन्म दे रही है। देश के प्रधानमंत्री की हत्या लोकतंत्र पर सबसे बड़े खतरे की ओर इंगित करता है। क्या कांग्रेस यह भूल चुकी है?
इस वाकये से कुछ दिन पूर्व ही राहुल गांधी के अमेरिका में हुए एक कार्यक्रम में खालिस्तानी झंडे लहराए गए थे पर राहुल गांधी अपनी मोहब्बत की दुकान में इतना व्यस्त थे कि इस प्रकार की उग्रवादी ताकतों द्वारा देश और कॉन्ग्रेस को दिए घाव वो भूल गए। अपनी दादी के आदर्शों पर चलने की बात करने वाले राहुल गांधी द्वारा कनाडा में उनके बलिदान के मखौल पर एक शब्द भी न कहना क्या उनके द्वारा खालिस्तानी ताकतों को मौन समर्थन देना नहीं है?
हालांकि यह इतिहास की बातें हैं और इतिहास के साथ राहुल गांधी का संबंध सामान्य नहीं है। पर कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं को क्या हुआ? क्या उनका कार्य राहुल गांधी के बयानों की व्याख्या करने जितना ही रह गया है। कांग्रेस को कनाडा में हुए चरमपंथी प्रदर्शन पर बयान देने का समय भले ही न मिला हो पर इस बात पर प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री को घेरने का समय मिल गया।
रणदीप सुरजेवाला का कहना है कि पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के अपमान पर प्रधानमंत्री मोदी और विदेश मंत्री चुप हैं और उन्हें तुरंत विरोध दर्ज करवाना चाहिए।
कांग्रेस को परेशानी इस बात से नहीं है कि कनाडा में पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या का मखौल बनाया गया बल्कि इस बात से है कि भाजपा सरकार ने इसपर विरोध दर्ज नहीं किया। इसे ही कहते हैं राजनीति और राष्ट्रनीति में अंतर।
केंद्र सरकार को आज सुरजेवाला राष्ट्रनीति याद दिला रहे हैं । यह नीति उन्हें कुछ वर्ष पहले अपनी ही पार्टी को याद दिलानी चाहिए थी जब नरेंद्र मोदी को अमेरिका का वीजा नहीं देने के लिए कॉन्ग्रेस सांसदों ने अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा को पत्र लिखा था। तत्कालीन समय में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह ने कहा था कि इसमें भारत सरकार का कोई लेना देना नहीं यह तो अमेरिका तय करेगा। क्या कांग्रेस ने तब राष्ट्रनीति के ऊपर राजनीति को तरजीह नहीं दी थी?
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राष्ट्रनीति की बात करें तो कनाडा में हुए चरमपंथी प्रदर्शन पर विदेश मंत्री पहले ही कड़े शब्दों में रोष व्यक्त किया है। भारत सरकार ने साफ किया है कि वो खालिस्तानी समर्थकों के साथ नहीं है। ऐसे में जवाब तो कांग्रेस को देना चाहिए कि जब राहुल गांधी विदेश में जाकर मुस्लिमों के अधिकारों की बात कर सकते हैं तो कनाडा में खालिस्तानी प्रदर्शन पर क्यों नहीं बोल सकते? क्या प्रियंका गांधी को इंदिरा के स्थान पर प्रोजेक्ट करते-करते कांग्रेस यह भूल चुकी है कि कभी कोई इंदिरा गांधी थी भी?
अपने आदर्श व्यक्तियों का प्रदर्शन कांग्रेस मात्र उनकी प्रतिकृति तैयार करने के लिए करने करती है न की सीख के लिए। पूर्व प्रधानमंत्रियों के बलिदान पर संवेदना प्राप्त करती आई कांग्रेस की यह राजनीतिक निष्ठुरता ही उनके गर्त में जाने का कारण बन रही है।
अपनी नाक, साड़ी, बातें इंदिरा के समान बनाने की कोशिश में प्रियंका ने इंदिरा को पीछे छोड़ दिया है। वर्षों से प्रियंका को इंदिरा गांधी बनाने में जुटी कॉन्ग्रेस आखिरकार कामयाब हो गई है। यही कारण है कि देश की प्रधानमंत्री और अपनी दादी की हत्या को भुलाकर राहुल गांधी खालिस्तानी संगठनों का विरोध नहीं कर पा रहे हैं।
महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि क्या सत्ता के लिए कांग्रेस पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के बलिदान को भुलाकर खालिस्तान का समर्थन करने को तैयार है?
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