“उस दिन जो जिधर थे, उधर ही रह गए। सीज़फायर के तारीख तक जहाँ भारत की सेना पहुँची, वो भारत के हिस्से आ गया। किसी के पति, किसी के भाई जो दूसरे शहर गए थे, वे वापस नहीं लौट सके। बहुत गाँव वापस भी किया, लेकिन इस गाँव का बहुत वैल्यू था, इसलिए यह पाकिस्तान को नहीं लौटाया। ये सब तो वार में होता ही है।” लद्दाख के एक व्यक्ति ने कहा।
अक्सर 1971 युद्ध को बांग्लादेश फ्रंट से आँका जाता है, लेकिन युद्ध तो दूसरी सीमा पर भी हो रहे थे। बल्कि वहाँ की लड़ाई ने एक तरह से पाकिस्तान की हार तय कर दी। कर्नल चिवांग रिंचेन के नेतृत्व में भारतीय सेना लद्दाख के रास्ते बाल्टिस्तान में घुस गयी थी, और पाकिस्तानी गाँवों पर कब्जा कर लिया था। अगर युद्ध लंबा खिंचता, तो शायद बाल्टिस्तान पूरी तरह भारत में आ जाता।
ऐसे ही एक जीते गए गाँव की तलाश में भारत के सबसे उत्तरी कोने में पहुँचा। लद्दाख के उत्तरी हिस्से में एक गाँव है- टुरटुक (Turtuk)। यह 1971 से पहले पाकिस्तान में था, और अब भारत में है। यहाँ कई लोग अपना बचपन या जवानी पाकिस्तान में बिता चुके हैं। कुछ तो पाकिस्तानी सेना में भी थे। बाल्टिस्तान राजपरिवार के एक राजा जो ‘याग्गो’ कहलाते हैं, वे भी भारत में अपने परिवार के साथ रहते हैं। मेरी जिज्ञासा यह थी कि क्या ये लोग भारत में खुश हैं? अगर नहीं, तो क्या वे भारत के लिए कोई खतरा हैं? पैदाइशी पाकिस्तानी क्या भारत के खिलाफ़ षडयंत्र नहीं रच सकते? उनकी प्रतिबद्धता तो बँटी हुई होगी।
टुरटुक से कुछ पहले ही वेश-भूषा और रहन-सहन में बदलाव दिखने लगा। वे लद्दाख के अन्य लोगों से अलग दिख रहे थे, और गेहूँ की खेती कर रहे थे। नीचे नदी किनारे कई महिलाएँ गेहूँ छाँटने में लगी थी, या अपने सर पर फसल बाँध कर ले जा रही थी। मुझे बताया गया कि यहाँ के पुरुष निठल्ले हैं, और महिलाओं से बहुत परिश्रम कराते हैं। यह बात थोड़ी-बहुत दिख भी रही थी।
गाँव के अंदर महिला समाज-सेवियों का संगठन दिखा। वहाँ जब पहुँचा तो उन महिलाओं ने बताया कि वे भारत में बहुत खुश हैं, क्योंकि लड़कियों के पढ़ने की अच्छी व्यवस्था है। एक लड़की गाँव से पढ़ कर डॉक्टर भी बनी। मुझे मस्जिद के किनारे खेत की मेड़ पर चल कर आती स्कूली लड़कियाँ भी दिख गयी तो हाथ कंगन को आरसी क्या।
गाँव के अंदर ही आर्मी गुडविल स्कूल था, जो भारतीय सेना से जुड़ा था। वह बच्चों के पढ़ने की अच्छी व्यवस्था कर रही थी। ऐसा लग रहा था कि पाकिस्तान से यह गाँव लेकर भारत ने उन्हें बेहतर सुविधाएँ दी। हर ग्रामवासी को भारतीय नागरिकता तो मिली ही, कॉलेज और नौकरियों के अवसर भी मिले। यह गाँव एक पर्यटन-केंद्र भी बन गया है, और मेरी मुलाक़ात यूरोपीय सैलानियों से भी हुई जो इस गाँव का टूर करने आए थे।
एक ग्रामवासी ने हँस कर कहा- “पहले हमारा गाँव सिर्फ़ एक गाँव था। अब यह ऐसा अजूबा गाँव बन गया है कि दूर-दूर से लोग आते हैं। हमें भी अच्छा लगता है।”
मैंने खुल कर पूछ लिया, “यहाँ आप लोग डर कर तो नहीं रहते?”
उन्होंने कहा, “नहीं। डर किस बात का? बाकी जगह लोग लड़ते हैं, शुक्र है यहाँ फिर कभी कोई लड़ाई नहीं हुई” वाकई यह गाँव उन लोगों के लिए एक मॉडल है जो भारत पर सौतेला व्यवहार का दोष मढ़ते हैं। उन्हें टुरटुक आकर एक बार देखना चाहिए कि भारत ने किसी गाँव पर कब्जा नहीं किया, बल्कि उसे गोद लिया। बात तो खैर यह भी निकल आयी कि अगर जनमत लिया जाए तो बाल्टिस्तान भारत में सम्मिलित होना चाहेगा। कल किसने देखा है?