न्याय की खोज में आम भारतीय आज भी न्यायालयों की शरण में ही पहुँचता है। सरकार, राजनीतिक दल, विशेषज्ञ और आम आदमी चाहे जो सोचे या कहें, हमारा सुप्रीम कोर्ट आजकल एग्जीक्यूटिव के लगभग हर फैसले की स्क्रूटनी करता है।
सुप्रीम कोर्ट का इतिहास क्या है?
भारत के सुप्रीम कोर्ट की वेबसाइट पर यह जानकारी है कि सुप्रीम कोर्ट ऑफ़ इंडिया की स्थापना 26 जनवरी, 1950 को हुई और 28 जनवरी, 1950 को इसने चैम्बर्स ऑफ़ प्रिंसेस में कार्य करना प्रारम्भ किया। चैम्बर ऑफ़ प्रिंसेस वही जगह थी, जहाँ 1935 से फ़ेडरल कोर्ट ऑफ़ इंडिया कार्यरत था। इसके दो अर्थ हुए। पहला यह कि संवैधानिक भारत के चश्मे से सुप्रीम कोर्ट भले ही एकदम नई बात थी, परन्तु वह फ़ेडरल कोर्ट ऑफ़ इंडिया के पुनर्गठन का ही परिणाम था।
हम इतिहास को और खंगालें तो पाएंगे कि फ़ेडरल कोर्ट ऑफ़ इंडिया के न्यायाधीश, हरिलाल कनिआ, सैय्यद फ़ज़ल अली, एम पतंजलि शास्त्री, मेहर चंद महाजन, बिजोन मुखर्जी और एसआर दास ही संवैधानिक भारत के सुप्रीम कोर्ट के पहले न्यायाधीश बने।
कुछ विद्वानों का मानना है कि भारत का सुप्रीम कोर्ट 1935 में स्थापित फ़ेडरल कोर्ट ऑफ़ इंडिया का ही औपनिवेशिक उत्पाद था।
भारत में फ़ेडरल कोर्ट ऑफ़ इंडिया कैसे बना यह जानना भी कम रोचक नहीं है।
देखा जाए तो जब तक फ़ेडरल कोर्ट ऑफ़ इंडिया की स्थापना नहीं हुई थी तब तक ब्रिटेन की ओर से भारत में ऐसा कुछ नहीं बनाया गया था जिसके कारण भारत का एक संघीय चरित्र दिखाई देता।
फ़ेडरल कोर्ट ऑफ़ इंडिया ने पहली बार कानूनी रूप से भारत को एक इकाई के रूप में स्थापित किया। ईस्ट इंडिया कंपनी मूल रूप से एक व्यावसायिक संस्था थी इसलिए उसका न्यायिक कार्यों से कोई लेना-देना नहीं था। परन्तु जब कंपनी का व्यापारिक विस्तार शुरू हुआ तब उसके व्यापार संबंधित मामलों के निपटारे के लिए एक न्यायिक तंत्र की आवश्यकता पड़ी।
ऐसे में न्यायिक प्रबंधन को लेकर ईस्ट इंडिया कंपनी का हस्तक्षेप पहली बार 1726 में हुआ जब मद्रास, कलकत्ता और बॉम्बे प्रेसीडेंसी में मेयर कोर्ट की स्थापना हुई। हर मेयर कोर्ट में मेयर के अतिरिक्त 9 अर्दली होते थे जो दीवानी मामलों की सुनवाई कर सकते थे। इन कोर्ट के मामलों में की गई अपील की सुनवाई कंपनी के गवर्नर और काउंसिल करती थी। हाँ, कुछ मामलों में राज्य की काउंसिल में भी सुनवाई की जा सकती थी।
यहाँ, यह बता देना जरूरी है कि इन सभी अदालतों में सुनवाई की सुविधा केवल ब्रिटिश नागरिकों तक ही सीमित थी।
जब 1757 में प्लासी और 1763 में बक्सर के युद्ध के बाद जब कंपनी एक बिज़नेस यूनिट से पॉलिटिकल यूनिट में बदली तब 1773 में तत्कालीन कलकत्ता और आज के कोलकाता के फोर्ट विलियम में बने कंपनी के केंद्रीय कार्यालय में एक कोर्ट की स्थापना की गई, जिसमें एक मुख्य न्यायाधीश के साथ तीन और न्यायाधीशों की व्यवस्था थी।
यह कोर्ट कलकत्ता, बंगाल, बिहार और उड़ीसा में कंपनी की प्रजा से सम्बन्धित दीवानी और फौजदारी के आलावा अन्य मामले सुनने के लिए बनाई गई।
बॉम्बे और मद्रास में कोर्ट की पहले वाली व्यवस्था 1787 ईसवी तक लागू रही। उसके बाद मेयर कोर्ट को रिकॉर्डर कोर्ट से बदल दिया गया, जिसमें मेयर और अर्दली के अलावा राजा द्वारा नियुक्त एक रिकॉर्डर का प्रावधान था। बाद में 1801 में मद्रास और 1823 में बॉम्बे में रिकॉर्डर कोर्ट को कलकत्ते के फोर्ट विलियम में लागू न्यायिक व्यवस्था से बदल दिया गया।
ये तीनों केंद्रीय न्यायालय 1861 तक कार्यरत रहे।
1857 की क्रांति के पूर्व तक मुग़ल सत्ता बनी रही थी जिसे अंग्रेजी शासन भी मानता था। ऐसे में कहा जा सकता है कि 1861 तक भारत में दो न्यायिक व्यवस्थाएँ साथ-साथ चलती रहीं। प्रेसीडेन्सी वाले इलाकों में ब्रिटिश तौर तरीकों पर चलने वाले कोर्ट थे और राज्यों में मुग़लकालीन व्यवस्था के अनुरूप काम करने वाला सदर न्यायालय। प्रेसीडेंसी के न्यायालय के पास जो भी पावर थी वह इंग्लैंड के राजा से मिला थी। वहीं सदर न्यायालय अपनी शक्ति मुग़ल बादशाह और अन्य देशी राजाओं से ग्रहण करते थे।
1857 की क्रांति से यह हुआ कि सत्ता ईस्ट इंडिया कंपनी से ब्रिटेन के राजा के पास चली गई। इसके साथ ही भारतीय व्यवस्था ब्रिटिश संसद के अधीन आ गई। इस बदलाव का परिणाम ये हुआ कि 1861 ईसवी में ब्रिटिश संसद ने भारतीय हाई कोर्ट एक्ट पारित किया जिसके द्वारा प्रेसीडेंसी और सदर दोनों न्यायालयों को मिला दिया गया और एक नई न्याय प्रणाली की स्थापना हुई। कलकत्ता, बॉम्बे और मद्रास में उच्च न्यायालय स्थापित हुए। 1866 ईसवी में इलाहाबाद में एक और उच्च न्यायालय स्थापित किया गया। उसके बाद 1916 में पटना हाईकोर्ट और 1919 में लाहौर में भी हाईकोर्ट की स्थापना हुई। बाद में 1936 में नागपुर के न्यायिक कमिश्नर के कोर्ट को भी हाईकोर्ट में बदल दिया गया।
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इन सात न्यायालयों के अलावा अवध के चीफ कोर्ट तथा नॉर्थ वेस्ट फ्रंटियर प्रोविंस और सिंध में कमिश्नर कोर्ट को वे सारे अधिकार दे दिए गए जो उच्च न्यायालयों के पास थे। ये सभी न्यायालय भारत में स्वतंत्र थे और सीधे ब्रिटेन के राजा के अधीन थे।
प्रत्येक उच्च न्यायालय एक रिकॉर्ड कोर्ट था, जिसमें मुख्य न्यायाधीश के अलावा अन्य न्यायाधीश होते थे। इन न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति रॉयल साइन मैन्युअल के अंतर्गत जारी वारंट से होती थी और ऐसा कोई भी व्यक्ति न्यायाधीश नहीं बन सकता था, जिसने कम से कम 10 वर्षों तक ब्रिटिश या स्कॉटलैंड के न्यायालय में बैरिस्टर या भारत के किसी हाई कोर्ट में प्लीडर के रूप में कार्य न किया हो। न्यायाधीश ब्रिटिश शासन की इच्छा तक अपने पद पर बने रह सकते थे। इन उच्च न्यायालयों की स्थापना ने भारत के लिए एक कानूनी व्यवस्था की माँग को जन्म दिया।
संविधानविदों के बीच संघीय न्यायालय की जरूरत को लेकर मतभेद तो नहीं था लेकिन ऐसे किसी न्यायालय की शक्तियों और उनके कार्य को लेकर मतभेद जरूर था। ऐसे में दुनिया भर के देशों की संघीय न्याय व्यवस्था ने इन संविधानविदों के विचारों को प्रभावित किया। इनमें अमेरिका की संघीय न्यायालय व्यवस्था को भारत के लिए सबसे उपयुक्त माना गया। विचार तो स्विट्ज़रलैंड और जर्मनी की व्यवस्थाओं पर भी किया गया परन्तु इन्हें भारत के लिए उपयुक्त नहीं माना गया।
अंत में फ़ेडरल कोर्ट की स्थापना के बारे में पहली बार चर्चा पहले राउंड टेबल कांफ्रेंस में हुई। तीसरे राउंड टेबल कॉन्फ्रेंस तक आते-आते ब्रिटिश भारत के प्रतिनिधियों द्वारा एक सुप्रीम कोर्ट बनाने का प्रस्ताव भी रखा गया जो संघीय कोर्ट के अतिरिक्त होता।
इस प्रस्ताव का हैदराबाद के प्रतिनिधि ने जोरदार विरोध किया जबकि ब्रिटिश भारत के 11 में से कम से कम 6 राज्यों ने इस माँग का समर्थन किया था। अंत में अनेक और बाधाओं के कारण ब्रिटिश भारत के लिए एक सुप्रीम कोर्ट का विचार नहीं पारित हो सका लेकिन इस विचार के कारण फ़ेडरल कोर्ट के दायरे में वृद्धि जरूर हुई।
अंतत: 2 अगस्त, 1935 को फ़ेडरल कोर्ट की स्थापना से सम्बन्धित प्रस्ताव ब्रिटिश संसद में पारित हुआ और 1 अक्टूबर, 1937 को यह प्रभाव में आ गया। ऐसे में इस दिन को औपनिवेशिक भारत की न्यायिक स्वायत्तता का पहला दिन कहना गलत नहीं होगा।
भारत का संविधान बनने और लागू होने के बाद इसी फ़ेडरल कोर्ट का भारत के उच्चतम न्यायलय के रूप में उदय हुआ।
फिर कहानी की शुरुआत पर आते हैं। जैसा कि अब तक यह स्पष्ट है कि भारत के सर्वोच्च न्यायालय का विचार एक ऐतिहासिक प्रक्रिया का परिणाम था। ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा कि सर्वोच्च न्यायालय की बहुत सी प्रवृत्तियाँ औपनिवेशिकता यानी कॉलोनीलिज्म से प्रभावित रही हैं। इन प्रवृत्तियों में न्यायिक नियुक्तियाँ भी आती हैं।
संविधान सभा में न्यायिक नियुक्तियों की औपनिवेशिक व्यवस्था को लेकर बाबासाहेब आंबेडकर का विरोध सर्वविदित है। यह मानना गलत नहीं होगा कि भारत में न्यायपालिका निरंकुश होने की सीमा तक स्वतंत्र है। यह कहना भी अनुचित नहीं होगा कि आज जब विश्व के अधिक़तर लोकतान्त्रिक देश न्यायिक प्राधिकरण के विचार को स्वीकृत कर रहे हैं, भारतीय न्यायपालिका अपने औपनिवेशिक तौर तरीकों को लेकर दृढ़ बनी हुई है।
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