देश को G-20 की अध्यक्षता मिलने के पश्चात अगले एक वर्ष तक G-20 सम्बंधित गतिविधियों और देश के विभिन्न शहरों में आयोजित होने वाले सम्मेलनों को लेकर विमर्श और सुझाव के लिए सरकार ने एक सर्वदलीय बैठक बुलाई है। इस बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सहित कई राज्यों के मुख्यमंत्री और विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं को शामिल होना है।
बैठक में विदेश मंत्रालय उन कार्यक्रमों की रूपरेखा प्रस्तुत करेगा जो भारत सरकार अपनी G20 अध्यक्षता में आयोजित करने जा रही है। अपने संबोधन में प्रधानमंत्री वर्ष भर की गतिविधियों के बारे में जानकारी देंगे। संसदीय कार्य मंत्री प्रह्लाद जोशी ने करीब 40 दलों के अध्यक्षों को आमंत्रित किया है।
रिपोर्ट्स के अनुसार, जहाँ ओडिशा, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्रियों ने राष्ट्रपति भवन में होने वाली इस बैठक में भाग लेने की पुष्टि कर दी है, वहीं वाईएसआर कांग्रेस के अध्यक्ष और आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री जगनमोहन रेड्डी और तेलंगाना के मुख़्यमंत्री के चंद्रशेखर राव इस बैठक में शामिल नहीं होंगे। राष्ट्रीय जनता दल के भी बैठक से दूर रहने की खबरें आ रही हैं।
सर्वदलीय बैठक में कुछ दलों के शामिल न होने के कारण विपक्ष या कम से कम इन दलों की नीयत पर प्रश्न उठना स्वाभाविक है। प्रश्न यह उठता है कि आर्थिक दृष्टि से दुनिया के सबसे बड़े और महत्वपूर्ण संगठन G-20 की अध्यक्षता मिलने के बाद वैश्विक स्तर पर भारत की पहचान को और मजबूत करने के इस मौके को कुछ विपक्षी दल गंभीरता से क्यों नहीं ले रहे हैं? दल गत राजनीति विदेश मामलों को क्यों प्रभावित करती है?
प्रश्न यह भी उठता है कि सरकार यदि सर्वदलीय बैठक बुलाती है तो क्या यह राजनीतिक और लोकतांत्रिक प्रक्रिया में पारदर्शिता का उदाहरण नहीं है? क्या विपक्ष को इस पारदर्शिता में अपना योगदान नहीं देना चाहिए?
कहते हैं मतभेद ही लोकतांत्रिक राजनीति का आधार है पर कुछ विषय ऐसे होते हैं जिन्हें राजनीति से अलग रख कर भी लोकतांत्रिक राजनीति का धर्म निभाया जा सकता है। आंतरिक सुरक्षा और विदेश नीति ऐसे ही विषय हैं। एक मज़बूत लोकतंत्र के लिए यदि एक मजबूत विपक्ष आवश्यक है तो एक मजबूत विपक्ष के लिए यह आवश्यक है कि उसके विरोध का एक स्तर रहे। राजनीतिक विमर्शों में उसके तर्क और संवाद का भी एक स्तर रहे।
विपक्ष सरकार का विरोध करना चाहता है तो करे पर विरोध के मूल में कुतर्क के लिए स्थान नहीं है। भारत को G-20 को लेकर विपक्ष का पहला संवाद ही विवादपूर्ण रहा। विपक्षी दलों ने लोगों पर ही प्रश्न खड़ा कर दिया। G-20 के आयोजनों को कांग्रेस के जयराम रमेश ने हाई वोल्टेज ड्रामा करार दिया। उनका कहना है कि भारत को सिर्फ एक साल के G-20 की अध्यक्षता मिलने पर जिस तरह का ड्रामा किया जा रहा है, वैसा अभी तक किसी और देश ने नहीं किया।
लोकतंत्र और लोकतांत्रिक परंपराओं को लेकर हर दल का दृष्टिकोण अलग हो सकता है पर उसके मूल में जो तत्व हैं, उन्हें लेकर सरकार और विपक्ष के बीच इतने भारी मतभेद को कैसे उचित ठहराया जा सकता है? बात सुरक्षा की हो या विदेश नीति की, विपक्ष ने सरकार का जिस तरह से पिछले आठ वर्षों में विरोध किया है, वह किसी हालत में एक परिपक्व लोकतंत्र में नहीं होता।
पूर्व में, देश पर हुए उरी और पुलवामा हमले और उसके बाद की सेना कार्रवाई हो, रफ़ाल सौदा हो या अब G-20 की अध्यक्षता, विपक्ष का विरोध स्तरहीन रहा। ये तो बस कुछ मामले हैं, देखा जाए तो अभी तक विपक्ष विरोध के जैसे तरीक़े अपनाता रहा है, उन पर बहस की आवश्यकता है।
प्रधानमंत्री मोदी के अनुसार भारत की G-20 की अध्यक्षता हमारी विदेश और आर्थिक नीति को विश्व पटल पर रखने के साथ-साथ देश के पर्यटन के लिए भी एक सुनहरा अवसर है। यह अवसर वैश्विक पटल पर भारत की संस्कृति, व्यापार और वाणिज्य तथा वैश्विक अर्थव्यवस्था में हमारे महत्व को प्रस्तुत करने का अच्छा अवसर है जिसका हमें भरपूर फायदा उठाना चाहिए।
विपक्षी दलों द्वारा ऐसे कार्यक्रमों का बहिष्कार राजनीति में ‘मोदी विरोध में देश विरोध’ जैसी बातों को ही स्थापित करेगा। राजनीतिक दलों को समझना होगा कि प्रतिस्पर्धा के लिए देश में चुनाव आयोजित होते रहते हैं और राजनीतिक जोर आजमाइश वहीं की जानी चाहिए।
खैर, चुनावी जोर आजमाइश में नेतागण प्रधानमंत्री पर ‘रावण’ जैसी टिप्पणी कर देते हैं शायद इसके बाद बैठकों में आँख मिलाने से बचने के लिए भी बहिष्कार का रास्ता अपनाया जाता होगा।