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Home » आधे-अधूरे अध्यक्ष: परिवारवाद की भारतीय राजनीति में गहरी जड़ें और ‘यस मैन’ वाली राजनीति
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आधे-अधूरे अध्यक्ष: परिवारवाद की भारतीय राजनीति में गहरी जड़ें और ‘यस मैन’ वाली राजनीति

अर्पित त्रिपाठीBy अर्पित त्रिपाठीOctober 14, 2022No Comments8 Mins Read
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कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए चुनाव के दिन चल रहे हैं। परिणामस्वरूप पार्टी के परिवार के चंगुल से निकल लोकतान्त्रिक हो जाने के अनुमान लगाए जा रहे हैं। यह बात अलग है कि चुनाव की प्रक्रिया के दौरान ही इनमें से कुछ अनुमान धराशायी हो चुके हैं।

किसी के अनुसार गहलोत गांधी परिवार की ओर से उम्मीदवार थे तो किसी के अनुसार अब मल्लिकार्जुन खरगे परिवार के उम्मीदवार हैं। ऐसे में प्रश्न यह उठता है कि अध्यक्ष चुने जाने की तथाकथित लोकतांत्रिक प्रक्रिया को यदि परिवार ही नियंत्रित करेगा तो फिर परिवारवाद जा रहा है या आ रहा है?

From a student leader to the LoP in Rajya Sabha. Congress has believed in me more than I can ask for.

Today, I seek your support as I'm contest for the post of party President.

With your trust, I will continue to serve the party to the best of my ability.
Jai Hind, Jai Congress pic.twitter.com/sfJFurVKhs

— Mallikarjun Kharge (@kharge) October 12, 2022
मल्लिकार्जुन खरगे अघोषित तौर से गांधी परिवार के समर्थित उम्मेदवार हैं।

ऐसा नहीं कि भारतीय राजनीति में परिवारवाद केवल कांग्रेस तक सीमित है। लगातार चलते रहने वाले राजनीतिक क्रम में हाल में देश की दो प्रमुख क्षेत्रीय पार्टियों, समाजवादी पार्टी और द्रमुक के राष्ट्रीय अध्यक्षों का चुनाव/नियुक्ति हुई। ये दोनों दल भारत में परिवारवादी राजनीति की पहचान का हिस्सा रहे हैं।

समाजवादी पार्टी में मुलायम सिंह यादव और उनके पुत्र अखिलेश और द्रमुक में एम करुणानिधि और उनके बाद पुत्र एम के स्टालिन पार्टी के अध्यक्ष बने हुए हैं। इसके अलावा ओड़िशा में बीजू जनता दल, पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी, तेलंगाना में के चंद्रशेखर राव, आंध्र प्रदेश में जगनमोहन रेड्डी और महाराष्ट्र में ठाकरे परिवार, परिवारवाद की इसी राजनीतिक संस्कृति के वाहक रहे हैं।

क्या है परिवारवाद?

राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में परिवारवाद को परिभाषित करना आसान नहीं। मोटे तौर कहा जाए तो भारतीय राजनीति के परिप्रेक्ष्य में परिवारवाद स्थापित नेता द्वारा अपने परिवार के किसी सदस्य या निकट सम्बन्धी को अपनी विरासत का वारिस या सह वारिस घोषित कर देना है।

राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में ऐसा करते हुए योग्यता अधिक मायने नहीं रखती। वैसे तो भारतीय समाज के लगभग हर आयाम में परिवारवाद की उपस्थिति दर्ज की जा सकती है, पर राजनीतिक परिवारवाद बहस का सबसे बड़ा मुद्दा है।

कितनी पुरानी हैं भारतीय राजनीति में परिवारवाद की जड़ें?

स्वतंत्र भारत के संदर्भ में देखा जाए तो पहली संसद के सदस्य विभिन्न क्षेत्रों से चुनकर आए थे। इनमें से अधिकतर सदस्य स्वतंत्रता आन्दोलन से जुड़े लोग थे। यही कारण था कि सभी अपने कर्मों और उपलब्धियों के आधार पर सांसद बने थे। कालांतर में प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरु के निधन के पश्चात कॉन्ग्रेस और तत्पश्चात देश की सत्ता पर कब्जा करने वाली इंदिरा गांधी देश में परिवारवादी राजनीति का सबसे बड़ा उदहारण थीं।

मई 1964 में अपने पिता की मृत्यु के दो महीने के भीतर ही संसद में राज्य सभा के रास्ते कदम रखने वाली इंदिरा गाँधी ने अगले दो बरस में ही देश की सत्ता की सबसे ऊंची कुर्सी पर काबिज होने में सफलता पाई। उनके प्रधानमंत्री बनने के पीछे कुछ और कारण रहे होंगे पर उनके पिता का बड़ा राजनीतिक कद उन्हें कॉन्ग्रेस के संगठन में अहम् पदों पर बिठाने के लिए प्रमुख रहा।

कॉन्ग्रेस में यह पद्धति आगे चल कर आपातकाल के समय संजय गांधी के हाथों में अप्रत्यक्ष रूप से सत्ता सौंपने, इंदिरा की हत्या के बाद राजीव के प्रधानमंत्री बनने और राजीव की हत्या के बाद से सोनिया और राहुल के द्वारा कॉन्ग्रेस का पूरी तरह अपने हाथों में रखना भारत में राजनीतिक परिवारवाद के सबसे प्रमुख उदाहरण हैं।

इसके अलावा देश की राजनीति में परिवारवाद को लेकर क्षेत्रीय दल भी पीछे नहीं हैं। सपा, द्रमुक, वाइएसआर कॉन्ग्रेस, पीडीपी, नेशनल कॉन्फ्रेंस और टीडीपी जैसे दल इसका ज्वलंत उदाहरण हैं। इन सभी दलों में नियन्त्रण पीढ़ी दर पीढ़ी किसी खानदानी व्यापार की तरह हस्तांतरित होता रहा है।

सपा में यादव परिवार, पीडीपी में पहले मुफ़्ती मोहम्मद सईद और उनके बाद उनकी पुत्री महबूबा मुफ्ती का राज और नेशनल कॉन्फ्रेंस में अब्दुल्ला परिवार की तीन पीढ़ियों का राज रहा है। टीडीपी में पहले एनटी रामाराव और उसके बाद आपसी लड़ाई से चंद्रबाबू नायडू ने पार्टी पर कब्जा जमाया। तमिलनाडु में कॉन्ग्रेस के सहयोग से वर्तमान में सत्ता पर काबिज डीएमके में 1971 के बाद से करुणानिधि परिवार की बादशाहत कायम है।

कैसा है परिवारवादी पार्टियों का आंतरिक लोकतंत्र ?

भारत में ऐसे राजनीतिक दल जिन पर परिवार का राज लम्बे समय से कायम है, उनके भी संविधान के सिद्धांत भी ऊंचे होते हैं पर व्यवहारिकता में इन सिद्धांतों का कोई ख़ास अर्थ नहीं होता। इनका परीक्षण हम इन पार्टियों के संविधान और इनके व्यवहार में स्थिति को तुलनात्मक रूप से देख सकते हैं।

कॉन्ग्रेस पार्टी

भारत की ग्रैंड ओल्ड पार्टी यानी कॉन्ग्रेस के संविधान का उद्धरण लिया जाए तो इसमें लिखा हुआ है कि कोई भी कॉन्ग्रेस डेलीगेट जिसे अन्य दस डेलीगेट का समर्थन हासिल है अध्यक्ष पद के लिए चुनाव लड़ सकता है। इसके लिए उसे कॉन्ग्रेस के मुख्य चुनाव अधिकारी को निश्चित तिथि से पहले अपना नामांकन भरना होगा।

यह बात और है कि कॉन्ग्रेस में आखिरी बार अध्यक्ष पद के चुनाव वर्ष 2017 में हुए थे, लेकिन गांधी परिवार के प्रभाव के चलते राहुल गांधी के सामने कोई खड़ा नहीं हुआ और कॉन्ग्रेस पार्टी की सत्ता सोनिया गांधी के हाथों से निकल कर उनके पुत्र राहुल के हाथों में आ गई।

कॉन्ग्रेस पार्टी के अध्यक्ष पद के लिए चुनाव में आखिरी बार एक से अधिक उम्मीदवार वर्ष 2000 में दिखाई दिए थे जब वर्तमान में उत्तर प्रदेश की भाजपा की सरकार में मंत्री और कॉन्ग्रेस से पूर्व सांसद जितिन प्रसाद के पिता जितेन्द्र प्रसाद ने सोनिया गांधी के खिलाफ चुनाव लड़ा था।

उन्हें इन चुनावों में गांधी प्रभाव के प्रभाव के कारण हार का मुंह देखना पड़ा और सोनिया गांधी अध्यक्ष चुनी गईं। गांधी परिवार 1998 से निरंतर कॉन्ग्रेस पार्टी के अध्यक्ष पद पर काबिज हैं। 2019 के आम चुनावों में राहुल गांधी के नेतृत्व में हुई हार के बाद सोनिया गांधी कार्यकारी अध्यक्ष के पद पर काबिज हैं।

समाजवादी पार्टी

बात यदि समाजवादी पार्टी की करें तो इसके संविधान के अनुसार पार्टी के राष्ट्रीय सम्मेलन के दौरान सम्मेलन के कोई दस सदस्य अध्यक्ष पद के लिए एक नाम प्रस्तावित कर सकते हैं। अधिवेशन में यदि एक से अधिक उम्मीदवार हुए तो उनके बीच चुनाव इसी राष्ट्रीय अधिवेशन में करा लिया जाएगा।

"मैं समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष के पद पर श्री अखिलेश यादव जी को विधिवत निर्वाचित करता हूँ।"

– प्रोफ़ेसर रामगोपाल यादव जी pic.twitter.com/8pjUvqeTpf

— Samajwadi Party (@samajwadiparty) September 29, 2022

यह बातें पार्टी के संविधान तक ही सीमित रह गई हैं क्योंकि नवम्बर 1992 के पहले राष्ट्रीय सम्मेलन से लेकर वर्ष 2017 के राष्ट्रीय सम्मेलन तक लगातार 25 वर्षों तक पार्टी के अध्यक्ष पद पर मुलायम सिंह यादव का राज रहा और उन्होंने भाई शिवपाल सिंह यादव और रामगोपाल यादव, भतीजे तेज प्रताप और धर्मेन्द्र तथा पुत्र अखिलेश को राजनीति में स्थापित किया।

कालांतर में 2017 में हुए एक अधिवेशन के बाद अखिलेश यादव ने पिता को हटा कर अध्यक्ष पद की कुर्सी हथिया ली और मुलायम सिंह यादव को राजनीतिक वनवास में भेज दिया। तबसे यह 2022 का दूसरा अधिवेशन है जब अखिलेश यादव को निर्विरोध अध्यक्ष स्वीकार कर लिया गया है।

इसके अतिरिक्त जहाँ शिवपाल सिंह यादव को प्रदेश की सहकारी समितियों का अध्यक्ष बनाया वहीं अपने पुत्र को उन्होंने मुख्यमंत्री के पद से नवाजा। जब अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री बनाया गया तब उनके पास उत्तर प्रदेश की विधान परिषद का मात्र पांच दिन का अनुभव था। सपा में यह नीति है कि यदि कोई वर्तमान विधायक या सांसद की मृत्यु होती है तो उसके पुत्र या पुत्री को ही उपचुनाव का टिकट दिया जाएगा, इस तरह की नीतियों ने राजनीति में परिवारवाद की जड़ें मजबूत करने का काम किया है।

डी एम के

पिछले लगभग चालीस वर्षों में तमिलनाडु की सत्ता में कई बार काबिज द्रविड़ मुनेत्र कषगम में वर्ष 1971 के बाद से ही मुथुवेलू करुणानिधि 2019 तक अध्यक्ष पद पर रहे। लगभग 50 वर्षों तक करुणानिधि के प्रभुत्व में रही इस पार्टी की कमान वर्ष 2019 में उनकी मृत्यु के बाद उनके पुत्र एमके स्टालिन को कमान मिल गई।

இந்தியாவில் உள்ள எல்லா அரசியல் கட்சிகளுக்கும் முன் மாதிரியாக திமுகழகத்தைத் தலைமையேற்று நடத்திவரும் முதலமைச்சர் ஆருயிர் சகோதரர் தளபதி @mkstalin அவர்கள் மீண்டும் தலைவராக தேர்ந்தெடுக்கப்பட்டதில் மிகுந்த மகிழ்ச்சி அடைகிறேன்.

– திரு. வைகோ MP மதிமுக பொதுச்செயலாளர்.#ThalaivarMKStalin pic.twitter.com/cQ59ZKLZor

— DMK IT WING (@DMKITwing) October 10, 2022

करुणानिधि की बेटी कनिमोई भी पार्टी से सांसद हैं। उनके एक और पुत्र अज़गिरी प्रदेश सरकार और केंद्र सरकार में भी मंत्री रहे। इस दल में परिवारवादी राजनीति का भविष्य में अंत फिलहाल नजर नहीं आता।

यस मैन वाली राजनीति का परिवारवाद में जोर

राजनीति में परिवारवाद के हावी होने के चलते अधिकतर यह देखा गया है कि पार्टियों में अध्यक्ष पद को छोड़कर बाकी सारे पद अपने ऐसे विश्वस्त लोगों को रेवड़ी की तरह बांटे जाते हैं जिनका जनता में अक्सर आधार नहीं होता। इन नेताओं की नियुक्ति ऐसे तरीके से की जाती है कि वे आगे चलकर दल के परिवारवाद वाली नीति के लिए खतरा न बन सकें।

इसका एक ज्वलंत उदाहरण समाजवादी पार्टी के उत्तर प्रदेश के वर्तमान अध्यक्ष नरेश उत्तम पटेल हैं, जिन्हें वर्तमान अध्यक्ष अखिलेश यादव ने प्रदेश अध्यक्ष के पद पर बिठा रखा है जबकि वे न कोई बड़े जननेता हैं और ना ही उनमें कोई अत्यंत विशेष संगठनात्मक कौशल है।

"मैं सबसे पहले आज आपके द्वारा चुने गए प्रदेश के अध्यक्ष श्री नरेश उत्तम पटेल जी को बहुत-बहुत बधाई एवं शुभकामनाएं देता हूं।"

– समाजवादी पार्टी के राज्य सम्मेलन में माननीय राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री अखिलेश यादव जी। pic.twitter.com/Jrghu9MqOu

— Samajwadi Party (@samajwadiparty) September 28, 2022

इसी तरह कॉन्ग्रेस में भी प्रदेश अध्यक्षों और पार्टी के प्रमुख पदों पर परिवार के विश्वसनीय और वफादार लोगों को बिठाया जाता रहा है जिससे वे आगे चलकर परिवार की राजनीति के लिए खतरा ना बनें। वर्तमान में कॉन्ग्रेस पद के लिए जारी दौड़ में गांधी परिवार का पहले अशोक गहलोत और अब मल्लिकार्जुन खड़गे को अपना अप्रत्यक्ष समर्थन देना इसी बात का परिचायक है।

भारत में परिवारवाद की राजनीति का अंत नहीं दिखता

देश में जो परिवारवादी दल हैं, वे इसे रोकने के लिए ठोस कदम उठाते नहीं दिखते। इसके उलट पुराने और क्षेत्रीय दलों का अनुसरण करने से नए दलों में यह रोग और फैल रहा है। उदाहरण के लिए हाल ही में जगन मोहन रेड्डी ने स्वयं को अपने दल का आजीवन अध्यक्ष नियुक्त करवा लिया।

धन्यवाद बिहार।

ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि हर बिहारवासी की उम्मीदों पर खरा उतर सकूं। सभी समर्थकों से आग्रह है जश्न मनाने की बजाय काम पर लग जाएं। गरीब-गुरबा को गले लगाए व ईमानदारी से उनकी समस्याओं का समाधान करने का प्रयास करें। आइये हम सब मिलकर बिहार को और अधिक बेहतर बनाएं। pic.twitter.com/zqVsyO7CWC

— Tejashwi Yadav (@yadavtejashwi) August 11, 2022

बिहार में लालू प्रसाद जी की दो संतानें राज्य की राजनीति में सक्रिय हैं। बेटी मीसा भारती सांसद हैं। दक्षिण भारत के दल हों या उत्तर भारत या उत्तर पूर्व के छोटे दल, लगभग सभी पर काबिज अध्यक्षों ने दल के पदों पर अपने-अपने परिवार वालों को ही रखा है और इस पर रोक लगने के आसार फिलहाल दूर-दूर तक नजर नहीं आ रहे हैं।

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