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Home » CBI बनी विपक्षी एकता की वजह?
राजनीति

CBI बनी विपक्षी एकता की वजह?

अभिषेक सेमवालBy अभिषेक सेमवालMarch 25, 2023No Comments7 Mins Read
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हाल ही में दिया गया ममता बनर्जी का एक बयान आपको याद ही होगा। याद नहीं है तो आईये हम बता देते हैं। 

ममता बनर्जी ने अपने एक बयान में कहा कि; राहुल गांधी विपक्ष के लीडर बने रहे तो नरेंद्र मोदी को कोई टारगेट नहीं कर सकता। 

ज़ाहिर है, ममता बनर्जी के अनुसार विपक्षी एकता को नेतृत्व देना राहुल गांधी के बस की बात नहीं है। मिस बनर्जी के इस बयान के बाद चुनाव में नेतृत्व के मुद्दे पर विपक्षी एकता का सपना शायद सपना ही रह जाए। 

हाँ, एक मुद्दा है जो विपक्षी दलों को एक सूत्र में पिरो सकता है और वह है भ्रष्टाचार की जाँच का विरोध। भ्रष्टाचार की जाँच का विरोध ऐसा मुद्दा है जिस पर विपक्षी दल पिछले लगभग पाँच वर्षों से एक हैं और ज्यों ज्यों विभिन्न भ्रष्टाचार के आरोपों की जाँच आगे बढ़ रही है, त्यों त्यों यह एकता और प्रगाढ़ हो रही है। 

क्या है मामला?

जी हाँ, हम ऐसा इसलिए कह रहे हैं क्योंकि केंद्रीय मंत्री जितेंद्र सिंह ने बृहस्पतिवार को संसद में बताया कि देश में कुल नौ राज्यों ने सीबीआई को अपने राज्यों में जांच के लिए दी जाने वाली सामान्य सहमति वापस ले ली है।

इन नौ राज्यों में छत्तीसगढ़, झारखंड, केरल, मेघालय, मिजोरम, पंजाब, राजस्थान, तेलंगाना और पश्चिम बंगाल शामिल हैं।

दरअसल, किसी भी राज्य में अपनी जाँच के लिए सीबीआई को संबंधित राज्य सरकार से सहमति लेने की आवश्यकता होती है और परंपरा के अनुसार राज्य सीबीआई के लिये एक सामान्य सहमति पहले से जारी करके रखते हैं। 

प्रश्न यह उठता है कि इन राज्यों ने यह सहमति क्यों वापस ली? 

यह हम आपको आगे बताएँगे लेकिन फ़िलहाल ऐसा दिख रहा है कि विपक्ष ने भविष्य की राजनीति का मुद्दा तय कर लिया है और वह है देश की संवैधानिक संस्थायें पर लगातार हमलावर बने रहना ताकि इन संस्थाओं की साख पर चोट की जा सके। 

देखा जाए तो चुनाव आयोग पर हमले से शुरू हुई यह प्रक्रिया अब देश की जांच एजेंसियों तक पहुंच गया है और विपक्षी शासित राज्यों ने यह तय कर लिया है कि केंद्रीय एजेंसियों की निष्पक्षता पर लगातार हमला करते रहना है। 

यही कारण है कि विपक्षी दल कभी इनकम टैक्स, कभी ईडी तो कभी सीबीआई को टारगेट कर रहे हैं। 

सीबीआई भारत सरकार की प्रमुख जाँच एजेन्सी है जो आपराधिक एवं राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े हुए विभिन्न मामलों की जाँच के लिये विशिष्ट परिस्थितियों में लगायी जाती है।पर विपक्ष के लगातार हमले को देखते हुए प्रश्न यह उठता है कि क्या सीबीआई को उसके अधिकार वर्ष 2014 के बाद मिले हैं? 

जवाब है नहीं। एक जाँच एजेंसी के रूप में सीबीआई की स्थापना वर्ष 1963 में की गई थी।  तो क्या फिर मोदी सरकार के आने से पहले सीबीआई राज्यों में जांच नहीं करती थी? 

बिल्कुल करती थी तो फिर अब हंगामा क्यों है बरपा कि इन राज्यों ने सीबाआई जांच पर अड़ंगा लगाने का फैसला किया है?  आख़िर राज्य सरकारों को किस बात का भय है? 

दरअसल,  इसके पीछे कारण यह है कि अब सीबाआई अपना कार्य कर रही है और यही कारण है कि भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों पर सरकार का शिकंजा लगातार कस रहा है। 

हाल के वर्षों में सीबीआई के रिकॉर्ड पर नज़र डालें तो जहाँ 10 साल के कांग्रेस कार्यकाल में कुल 12 गिरफ्तारियां हुई थीं वहीं उसके मुकाबले बीजेपी के सात साल के कार्यकाल में सीबीआई ने 22 गिरफ्तारियां कर दी हैं और यह गिरफ्तारियां किसी सामान्य मामले में नहीं हो रही हैं बल्कि हजारों करोड़ रुपये के घोटालों में हुई है क्या इसलिए सीबीआई को जांच से रोका जा रहा है ?

रोक लगाने वाले राज्य

पश्चिम बंगाल में हर हफ्ते भ्रष्टाचार में ममता बनर्जी के करीबियों की गिरफ्तारी हो रही है। पार्थ चटर्जी, अनुव्रत मंडल अलग अलग भ्रष्टाचार के मामलों में जेल पहुंच चुके हैं दो युवा नेताओं को गिरफ्तार होने के बाद ममता बनर्जी को उन्हें पार्टी से बाहर करना पड़ा। ममता के भतीजे अभिषेक बनर्जी की भ्रष्टाचार के गंभीर मामलों में जाँच चल रही है।

बंगाल के पड़ोसी राज्य झारखंड की बात करें, यहाँ  सबसे अधिक नेता और आईएएस अफसर भ्रष्टाचार के मामले में जेल में बंद है. मुख्यमंत्री के प्रधान सचिव पर भ्रष्टाचार का आरोप लगा कि वह पैसे लेकर फाइलें निपटाते थे। स्वयं मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के खिलाफ ईडी ने पूछताछ के लिए समन जारी किया था। पूरा मामला अवैध खनन और मनी लॉन्ड्रिंग से संबंधित है। अब कयास लगाए जा रहे हैं कि हेमंत सोरेन भी गिरफ्तार हो सकते हैं। 

सीबीआई की सहमति वापस लेने वाला अगला राज्य तेलंगाना। तेलंगाना के मुख्यमंत्री की हालत भी ममता और सोरेन से कुछ अलग नहीं है। मुख्यमंत्री केसीआर की बेटी शराब घोटाले में ईडी दफ्तर के चक्कर लगा रही हैं। वही शराब घोटाला जिसमें सिसोदिया जेल जा चुके हैं। तेलंगाना में केसीआर सरकार को परिवारवाद और भ्रष्टाचार का प्रतीक बताया जाता है। 

परिवारवाद की बात हो और कांग्रेस (गाँधी परिवार)का नाम ना आये,  ऐसा नहीं हो सकता है? कांग्रेस शासित राज्य  राजस्थान और छत्तीसगढ़ ने भी सीबीआई की सहमति वापस ले ली है। राजस्थान में पेपर लीक के मामले बढ़ते जा रहे हैं जिस पर सीबीआई कभी भी जांच शुरू कर सकती है और एक बार जांच शुरू हुई तो इसके तार सत्ता के गलियारों तक जुड़ने की संभावना है। 

वहीं छत्तीसगढ़ में भी कांग्रेस जांच एजेंसियों के रडार पर है। हाल ही में ईडी ने कांग्रेस के नेता विनोद तिवारी को दफ्तर बुलाकर 10 घंटे की पूछताछ की है। मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की करीबी अफसर सौम्या चौरसिया को मनी लांड्रिंग के मामले में ED गिरफ़्तार कर चुकी है। कांग्रेस शासित राज्यों की यह प्रतिक्रिया स्वाभाविक है क्योंकि भ्रष्टाचार और कांग्रेस का रिश्ता चोली दामन का रिश्ता रहा है। 

लेकिन गैर कांग्रेस शासित राज्य केरल, जहाँ वामपंथी सरकार है। वहां के सीएम पिनरई विजयन के प्रधान सचिव रहे शिव शंकर को ईडी ने गिरफ्तार कर लिया है। उन पर लाइफ मिशन घोटाले में भ्रष्टाचार का आरोप है। इस गिरफ्तारी के बाद केरल की सियासत में भी हलचल मच गई है। हलचल सिर्फ दक्षिण भारत में ही नहीं है। 

उधर सिसोदिया और सत्येंद्र जैन की गिरफ्तारी के बाद आम आदमी पार्टी सरकार की चिंताएं बढ़ी हुई हैं। दिल्ली में सीबीआई की जांच से संबंधित सहमति पर केजरीवाल कुछ फैसला नहीं ले सकते इसलिए उन्होंने अपने फैसले के लिए चुना है पंजाब को। पंजाब में सीबीआई भ्रष्टाचार से जुड़े एफसीआई वाले मामले में लगातार छापेमारी कर ही रही है और अब कभी भी पंजाब से कुछ खबर आ सकती है। हमने आपको उन सभी राज्यों की स्थिति बताइए जिन्होंने सीबीआई जांच के लिए सहमति को वापस लिया है। 

अब आपको समझ आ रहा होगा कि इन राज्यों ने यह कदम क्यों उठाया लेकिन ऐसे फ़ैसले से केंद्र राज्य संबधों और संघीय ढाँचे का क्या होगा?

देखा जाए तो राज्यों की इस सूची में जल्द ही बिहार भी शामिल हो सकता है क्योंकि लैंड फॉर जॉब स्कैम में लालू यादव सहित उनका पूरा परिवार फँसा हुआ है। ये पूरा घोटाला 600 करोड़ का बताया जा रहा है और इसी मामले में लालू यादव के परिवार पर कार्रवाई चल रही है। ऐसा बताया जा रहा है कि बिहार के उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव सीबीआई से जुडी सहमति वापस लेने की तैयारी में जुटे हैं। 

भारत की विवधता के अनुरूप भारत के संविधान ने केंद्र को राज्यों से अधिक सशक्त बनाया है। अगर ऐसे में राज्य राजनैतिक प्रतिद्वंदिता के चलते केंद्र के बराबर खड़े होने के प्रयास में संवैधानिक परम्पराओं को तोड़ते हुए चलेंगे तो इसका अंत क्या होगा? कहने की आवश्यकता नहीं कि यह केंद्र राज्य संबधों के लिए एक खतरनाक परम्परा है। 

यह भी पढ़ें: जितने दल, उतने ‘प्रधानमंत्री’: विपक्ष के गठबंधन का क्या है भविष्य

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