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Home » न्यायालय पर मुखर होता लोकतंत्र: भाषाई जटिलता से ले कर माननीयों के कॉलेजियम
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न्यायालय पर मुखर होता लोकतंत्र: भाषाई जटिलता से ले कर माननीयों के कॉलेजियम

Jayesh MatiyalBy Jayesh MatiyalOctober 21, 2022No Comments10 Mins Read
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पीएम मोदी और कोर्ट
पीएम मोदी का न्यायिक प्रणाली पर बयान
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जब न्याय मिलता दिखाई देता है, तो संवैधानिक संस्थाओं के प्रति देशवासियों का भरोसा मजबूत होता है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का यह कथन उस समय आया, जब भारतीय न्यायपालिका की कार्यप्रणाली और नीति-रीति पर आए दिन प्रश्न-चिन्ह लग रहे हैं।

स्वतंत्रता के 75 साल बाद भी भारतीय न्यायपालिका में आम नागरिकों के लिए न्याय पाना आज भी एक जटिल प्रक्रिया बना हुआ है। परिणामस्वरूप, आम आदमी के भीतर न्यायपालिका के कार्य के प्रति संशय गहराता जा रहा है। इसके कई कारण हैं। 

मुख्यतौर पर न्यायालयों में लम्बित पड़े मामलों के समाधान में न्यायाधीशों की उदासीनता, इस कारण त्वरित और किफायती न्याय में होती देरी, न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया और संख्या में कमी, न्यायाधीशों के काम-काज के पुराने तरीके, अंग्रेजों के शासनकाल से चले आ रहे अप्रासंगिक कानून, न्यायपालिका में देशज भाषाओं के उपयोग का अकाल इत्यादि कई चुनौतियाँ अब भी बनी हुई हैं।   

पीएम मोदी ने न्यायपालिका के समग्र बुनियादी ढाँचे के विकास हेतु, बीते शनिवार (अक्टूबर 15, 2022) को अपने गृह-राज्य गुजरात के एकता नगर में विधि एवं न्याय मंत्रालय द्वारा आयोजित सभी राज्यों के विधि मंत्रियों और विधि सचिवों के दो दिवसीय अखिल भारतीय सम्मेलन के उद्घाटन सत्र को सम्बोधित किया।

Addressing the inaugural session of All India Conference of Law Ministers and Secretaries. https://t.co/sWk3fhHIIm

— Narendra Modi (@narendramodi) October 15, 2022

क़ानून और भाषा की जटिलता

अपने सम्बोधन में पीएम मोदी ने कानूनी भाषा की जटिलता पर जोर देते हुए कहा था, “भाषा की जटिलता के कारण सामान्य नागरिकों को बहुत सारा धन खर्च कर न्याय प्राप्त करने के लिए इधर-उधर दौड़ना पड़ता है। कानून जब सामान्य नागरिकों की समझ में आता है तो उसका प्रभाव ही कुछ और होता है।” उन्होंने आगे कहा कि स्थानीय भाषा के उपयोग से आम नागरिकों के बीच कानून के भारी-भरकम शब्दों का डर भी कम होगा। 

पीएम मोदी ने लोकतंत्र के तीन स्तम्भ और उनके समन्वय की महत्ता का जिक्र करते हुए कहा, “अगर हम संविधान की भावना को देखें तो कार्यों की भिन्नता के बावजूद विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच वाद-विवाद या प्रतिस्पर्धा की कोई गुंजाइश नहीं है। बल्कि तीनों को मिलकर 21वीं सदी में भारत को नई ऊँचाई पर ले जाना है।”

पीएम मोदी का यह सम्बोधन ऐतिहासिक माना गया। यह पहला मौका था, जब देश के प्रधानमंत्री न्यायपालिका में बुनियादी सुधार की बात बन्द कमरे में करने की बजाय खुलेआम कर रहे हैं। पीएम मोदी के बयान के बाद से ही न्याय प्रणाली में सुधार की चर्चा के द्वार भी खुल गए हैं।

इसी कड़ी में केन्द्रीय विधि एवं न्याय मंत्री किरेन रिजिजू ने सोमवार (अक्टूबर 17, 2022) को पांचजन्य पत्रिका द्वारा आयोजित साबरमती संवाद कार्यक्रम में न्यायाधीशों पर गम्भीर टिप्पणियाँ कर विमर्श का एक नया अध्याय ही खोल दिया।

किरेन रिजिजू ने ‘न्यायिक सक्रियता’ (Judicial Activism) के प्रश्न का उत्तर में कहा, “हम लोग (कार्यपालिका, विधायिका, न्यायपालिका) अगर अपने-अपने दायरे में रहकर काम करें तो फिर यह समस्या नहीं आएगी। हमारी कार्यपालिका और विधायिका अपने दायरे में बंधी हुई है। अगर वे इधर-उधर भटकती हैं तो न्यायपालिका उन्हें सुधारती है। समस्या यह है कि जब न्यायपालिका भटकती है, तो उसको सुधारने की व्यवस्था नहीं है। ऐसे में न्यायिक सक्रियता जैसे शब्द का प्रयोग होता है।”

#WATCH | "If there is no way to bind the judiciary, words like 'judicial activism' are brought to use. Several judges pass observations which never become a part of judgement… As a judge you do not know practical difficulties, financial limitations," says Law Min Kiren Rijiju pic.twitter.com/L12gCoU1L7

— ANI (@ANI) October 17, 2022

न्यायाधीशों की नियुक्ति की कॉलेजियम प्रणाली और उसकी आलोचना के सवाल पर किरेन रिजिजू ने इसे ‘गुटबाजी’ करार देते हुए एक बार फिर इस दबी-छुपी बहस को छेड़ने का कार्य किया।

किरेन रिजिजू ने कहा, “मैं जानता हूँ कि देश के लोग न्यायाधीशों की नियुक्ति की कॉलेजियम प्रणाली से खुश नहीं हैं। अगर हम संविधन की भावना से चलते हैं तो न्यायाधीशों की नियुक्ति सरकार का काम है। दुनिया में कहीं भी न्यायाधीशों की नियुक्ति न्यायाधीश बिरादरी नहीं करती हैं।” 

किरेन रिरिजू ने कहा, “देश का कानून मंत्री होने के नाते मैंने देखा है कि न्यायाधीशों का आधा समय और दिमाग यह तय करने में लगा रहता है कि अगला न्यायाधीश कौन होगा? मूल रूप से न्यायाधीशों का काम लोगों को न्याय देना है, जो इस व्यवस्था (कॉलेजियम प्रणाली) की वजह से बाधित होता है।”

न्यायालयों के स्व-नियमन पर जोर देते हुए किरेन रिजिजू कहते हैं कि “जिस प्रकार मीडिया पर निगरानी के लिए भारतीय प्रेस परिषद है, ठीक उसी प्रकार न्यायपालिका पर निगरानी की एक व्यवस्था होनी चाहिए और इसकी पहल खुद न्यायपालिका ही करे तो देश के लिए अच्छा होगा।”

अब सवाल उठता है कि आखिर न्यायपालिका पर निगरानी, स्व-नियंत्रण या स्व-नियमन क्यों महत्वपूर्ण हो गया है। इसके कई पहलू हैं।   

कॉलेजियम प्रणाली

कॉलेजियम प्रणाली, यानी जिसके जरिए न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थानांतरण होता है। इसी प्रणाली की आड़ में न्यायाधीश बिरादरी ने संविधान और संसद को दरकिनार कर अपनी (न्यायाधीशों की) नियुक्ति की एक अलग व्यवस्था बनाई है। इसी प्रणाली के कारण ही न्यायाधीशों पर भाई-भतीजावाद, गुटबाजी, राजनीति आदि के आरोप-प्रत्यारोप लगते रहते हैं।  

इस कलह से निपटारे के लिए मोदी सरकार ने साल 2015 में कॉलेजियम प्रणाली की जगह ‘राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग’ (एनजेएसी) को अस्तित्व में लाया था। एनजेएसी उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों और मुख्य न्यायाधीशों की नियुक्ति को अधिक पारदर्शी बनाता है।

NJAC की उपेक्षा

एनजेएसी में सदस्य के तौर पर न्यायपालिका, विधायिका और सामाजिक पृष्ठभूमि के लोग शामिल होंगे, जिनकी सहमति से न्यायाधीशों की नियुक्ति होगी। हालाँकि, सुप्रीम कोर्ट ने इसकी वैधता पर प्रश्नचिन्ह लगाते हुए, इस आयोग के क्रियान्वयन पर ही रोक लगा दी। 

एनजेएसी जैसे आयोग के आने से न्यायपालिका पर न्यायाधीशों के विशेषाधिकार और एकाधिकार छिनने का भय बना रहता है। जब भी न्यायाधीशों की नियुक्ति पर बात होने लगती है तो अजीबोगरीब बयान सामने आने लगते हैं।

इसका हालिया उदाहरण उत्तराखण्ड उच्च न्यायालय में न्यायाधीशों के रिक्त पदों को भरने वाली याचिका है, जिसे खारिज करते हुए न्यायालय कहता है, “यह मानने का कोई कारण नहीं है कि कॉलेजियम अपने कर्तव्य के प्रति सचेत नहीं है, या जब भी अवसर आता है, वह अपना कर्तव्य नहीं निभाएगा।” 

न्यायपालिका में ‘Wokism’

कई न्यायाधीश अपनी वोक, सेक्युलर प्रवृत्ति के कारण अक्सर आलोचना का शिकार होते रहते हैं। पूर्वाग्रह से ग्रस्त न्यायाधीश आए दिन हिन्दू प्रतीकों, स्थलों, त्योहारों पर अनावश्यक ज्ञान बाँटते नजर आते रहते हैं। दिलचस्प बात यह है कि यह ज्ञान केवल टिप्पणी के रूप में ही आता है न कि लिखित रूप से अपने आदेश की प्रति में।

इसका जिक्र किरेन रिजिजू भी अपने वक्तव्य में करते हैं। बात चाहे सांस्कृतिक त्योहार जलीकट्टू की हो या फिर दही हाँडी की ऊँचाई की, बहुसंख्यकों के क़रीब-क़रीब हर त्योहार पर न्यायालय अपने कथित ‘प्रगतिशील’ विचारों के द्वारा हस्तक्षेप करते देखे जा सकते हैं।

इसके अलावा कामाख्या मन्दिर में साफ-सफाई पर चिन्ता जताने से लेकर दिवाली पर पटाखों को प्रतिबन्धित करने के षड्यंत्र तक न्यायालय आवश्यकता से अधिक ही सक्रिय रहता है। इतनी सक्रियता अगर सदियों से लम्बित पड़े मामलों को लेकर दिखाई जाए, तो न्याय प्रणाली पर आधा बोझ यूँ ही समाप्त हो जाए।

इसे भी पढ़ें: दिवाली पर पटाखे बैन का सुनियोजित खेल

विलासिता का पर्याय, न्यायाधीशों का अवकाश 

न्यायाधीशों के आवश्यकता से अधिक अवकाश चिन्ता का विषय बना रहता है। इस पर हाल ही में बॉम्बे उच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की गई है। याचिकाकर्ता का कहना है कि न्यायालयों को 70 से भी अधिक दिनों तक बन्द करना वादियों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है। याचिका में माँग की गई है कि न्यायाधीशों के लम्बे समय तक अवकाश की इस प्रथा को समाप्त कर दिया जाना चाहिए। 

याचिकाकर्ता का मानना है कि न्यायालय में लम्बे समय तक अवकाश औपनिवेशिक अतीत का अवशेष है। यह उस समय उचित था जब अधिकांश न्यायाधीश अंग्रेज थे, जो भारत में गर्मी सहन न कर पाने पर समुद्री मार्ग से इंग्लैंड की यात्रा के लिए लम्बे अवकाश पर जाते थे। आज यह विलासिता का पर्याय बनकर रह गया है। न्यायाधीशों की इस विलासिता को देश और नहीं ढो सकता है। 

Plea before Bombay High Court challenges long court vacations; claims such vacations violate fundamental rights

Read story: https://t.co/3E5l4Q9gB8 pic.twitter.com/TdY32Y2DMR

— Bar & Bench (@barandbench) October 20, 2022

न्यायिक व्यवस्था में भाषाई जटिलता

समाज के आखिरी व्यक्ति तक न्याय की उपलब्धता के लिए सबसे आवश्यक भाषा की सरलता मानी जाती है। भाषाई सरलता का एक उदाहरण अमेरिका न्यायाधीश का एक बयान है। अमेरिका में अदालती कार्रवाई अंग्रेजी भाषा में होती है।

एक रिपोर्ट के अनुसार, अमेरिका की 78% जनसंख्या अंग्रेजी-भाषी है। बावजूद, ‘कोलंबिया कोर्ट ऑफ अपील्स’ के मुख्य न्यायाधीश एरिक टी कहते हैं, “जब न्यायालय दीवानी मामलों में सीमित अंग्रेजी समझने वाले लोगों के लिए सक्षम दुभाषिए को न्याय प्रदान करने में विफल रहते हैं, तो वे अपनी और अपने बच्चों, घरों की रक्षा नहीं कर सकते हैं।”

एरिक टी का यह बयान भाषा के लिहाज से काफी चर्चा में रहा था। एरिक का बयान बताता है कि अगर न्यायालय भाषाई जटिलता के कारण अपनी बात नहीं समझा पाता है तो फिर वह न्याय नहीं माना जाएगा।

न्यायिक प्रक्रिया में भाषा की जटिलता का एक उदाहरण अब भारत का; साल 2013 में दिल्ली के एक न्यायालय को आरोपित चन्द्रकांत झा की सजा एक महीने में दो बार टालनी पड़ी। क्योंकि, न्यायालय का आदेश अंग्रेजी में था और आरोपित झा अंग्रेजी भाषा नहीं जानते थे। झा ने न्यायालय के आदेश की प्रति (कॉपी) हिन्दी भाषा में माँगी। न्यायालय के समक्ष विडंबना यह कि अनुवादक का पद भी सालों से खाली पड़ा था।

भाषाई जटिलता का एक और उदाहरण न्यायालय द्वारा जारी समन, नीचे फोटो में देखा जा सकता है। यह समन हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला स्थित जिला न्यायालय की तरफ से जारी किया गया है। 

समन में लिखा है, “हरगाह हाजिर होना आपका बगर्ज जवाबदेही इल्जाम जरूरी है कि पस बरूए तहरीर हजा आपको हुक्म दिया जाता है कि तारीख, मास को असालतन या वकालतन मैजिस्ट्रेट के हजूर में हाजिर हो। इस बात की ताकीद जानो। इलावा बरी खबरदार हो कि बजुज इस सूरत के कि आप उस जुर्म से जिसका इल्जाम लगाया गया है, इकबाल करने के लिए आमादा हों। आपको चाहिए कि अपने गवाहान तारीख मुतजकरा वाला पर अपने हमराह लाओ।”

समन की इस प्रति को पढ़ने के बाद मन में पहला प्रश्न आता है, आखिर इसका अर्थ क्या है? न्यायालय का यह समन भाषाई जटिलता की कलई खोल देता है। आप और हम इस समन को पढ़ पाने में इसलिए समर्थ है, क्योंकि, इसकी लिपि देवनागरी है। अगर लिपि नस्तालकी होती तो इस समन को पढ़ पाना ही मुश्किल था। इसे समझना तो बहुत दूर की बात।

चूँकि यह समन हिमाचल प्रदेश के एक न्यायालय का है तो फिर सवाल यह भी उठता है कि हिमाचल का आम जनमानस इस अरबी/फारसी के गठजोड़ को कितना समझता है? हिमाचल की अधिकांश जनसंख्या हिन्दी भाषी है।

एक रिपोर्ट के अनुसार हिमाचल हिन्दी के अलावा पंजाबी, नेपाली, तिब्बती, कश्मीरी, डोगरी, किन्नौरी, काँगड़ी, चम्बियाली, मण्डियाली, कुल्लवी समेत कई अन्य स्थानीय बोली-भाषा प्रचलन में हैं। अरबी/फारसी यहाँ दूर-दूर तक सुनने-पढ़ने को नहीं मिलती है। बावजूद, न्यायालय की यह भाषा, जिसे समझ पाना, न्यायाधीशों के लिए भी आसान नहीं, दशकों से चली आ रही है।

गुलामी की मानसिकता मिटाना

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने लाल किले की प्राचीर से पंच-प्रण का आह्वान किया था। जिसमें से एक गुलामी की मानसिकता को मिटाना। इसमें न्यायपालिका भी आती है। केन्द्रीय कानून मंत्री किरेन रिजिजू ने भी अपने बयान में “न्यायपालिका उपनिवेश व्यवस्था पर आधारित है” कहा था।

पीएम मोदी ने विधि मंत्रियों को सम्बोधित करते हुए कहा भी था, “न्याय में आसानी के लिए कानूनी व्यवस्था में स्थानीय भाषा एक बड़ी भूमिका निभाती है।”

उन्होंने देश के युवाओं के लिए मातृभाषा में ‘अकादमिक इको-सिस्टम’ बनाने पर भी जोर दिया। पीएम मोदी ने कहा था, “कानून के पाठ्यक्रम मातृभाषा में होने चाहिए, हमारे कानून सरल भाषा में लिखे जाने चाहिए, उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय के महत्वपूर्ण मामलों के डिजिटल पुस्तकालय स्थानीय भाषा में होने चाहिए।”

न्यायाधीशों की मठाधीशी

न्यायिक प्रक्रिया के सम्बन्ध में प्राकृतिक न्याय का सिद्धान्त कहता है कि कोई भी व्यक्ति स्वयं के मामले में न्यायाधीश नहीं हो सकता है, साथ ही दूसरे पक्ष को सुने बिना किसी भी व्यक्ति को दण्डित नहीं कर सकता है या फिर निर्णय नहीं दिया जा सकता है।

अब सवाल उठता है कि भारतीय न्यायपालिका जिसके मूल में ही प्राकृतिक न्याय का सिद्धान्त है, व्यावहारिक तौर पर वह इस सिद्धान्त पर कितनी खरी उतर रही है? न्यायपालिका को भी अब यह सोचना चाहिए कि वह भारत जैसे समृद्ध लोकतांत्रिक देश में ‘बिना अपील, बिना वकील और बिना दलील’ की तर्ज पर कार्य नहीं रह सकती है, यह मठाधीशी कभी न कभी टूटनी ही है। कितनी जल्दी टूटेगी? इसका आकलन सुधी पाठक को करना है।

Author

  • Jayesh Matiyal
    Jayesh Matiyal

    जयेश मटियाल पहाड़ से हैं, युवा हैं। व्यंग्य और खोजी पत्रकारिता में रूचि रखते हैं।

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