एक अभूतपूर्व फैसले में आज उच्चतम न्यायालय द्वारा फैसले में नए फॉर्मेट के साथ मुख्य चुनाव आयुक्त एवं अन्य आयुक्तों की नियुक्ति हेतु पैनल में प्रधानमंत्री और लोकसभा में विपक्ष के नेता (अथवा सबसे बड़े दल के नेता) के अतिरिक्त उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को भी शामिल कर लिया है.. प्रथम दृष्टया ही प्रतीत होता है कि न्यायपालिका अपनी गैर-जरुरी उपयोगिता हर जगह सुनिश्चित करने को लालायित है.. क्योंकि वर्तमान सरकार द्वारा पिछले कुछ वर्षों से लगातार न्यायपालिका के सरकार को मिले कार्यकारी शक्तियों के असंवैधानिक अतिक्रमण का लगातार विरोध करती आ रही है.. और अब इस फैसले के बाद एक बार फिर से सरकार और न्यायपालिका एक दूसरे के आमने-सामने हैं।
हंगामा है क्यों बरपा: न्यायालय से राज्यपालों की नियुक्ति पर बवाल किसलिए?
क्या है मामला?
पिछले वर्ष उच्चतम न्यायालय में एक दायर याचिका में चुनाव आयोग के आयुक्तों की नियुक्ति को पारदर्शी बनाने हेतु एक नए गठित पैनल में सरकार और विपक्ष के अतिरिक्त सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को शामिल किये जाने का आग्रह किया गया था.. बहस के दौरान इसपर न्यायालय में सरकार का पक्ष रखते हुए सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने दो टूक शब्दों में कह दिया था कि “किसी भी संस्था में न्यायपालिका के प्रतिनिधि कि मौजूदगी उसकी पारदर्शिता सुनिश्चित नहीं कर देती..” लेकिन इन सबके बावजूद न्यायपालिका इस परिणाम तक पहुँच गयी कि उसे स्वयं को अनावश्यक रूप से राजनीतिक पक्ष-विपक्ष के खींचतान में ‘स्नेहक’ के भूमिका में रख दिया।
गौरतलब है कि 2014 लोक सभा चुनाव से सत्तापक्ष के दलों के लगातार बढ़ते जनाधार से त्रस्त विपक्षी दलों द्वारा आत्मचिंतन छोड़ संवैधानिक, गैर-संवैधानिक समेत तमाम तरह के संस्थानों की विश्वसनीयता पर सवाल खड़े किये जाते रहे हैं.. खुद की सरकार में जिन संस्थाओं को निष्पक्ष और स्वायत्त बताते आये थे अचानक से यह सभी संस्थाएं राजनीति से प्रेरित हो गए।
इसके बाद से एक-एक कर उन सभी संस्थाओं पर क्रमबद्ध तरीके से हमले होते रहे.. चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के अलावा ईवीएम को लेकर भी विपक्षी दलों ने एक स्वर में दुष्प्रचार होता रहा है.. यदि इसी प्रकार से सरकार की कार्यकारी शक्तियों को सीमित किया जाता रहा है तो संभव है कि निष्पक्षता का स्वांग करता न्यायपालिका उन दलों के हितों को देखते हुए वापस बैलट पेपर से चुनाव कराने की बात कह दे।
क्या है मौजूदा प्रावधान?
इस फैसले के बाद, एक बार फिर से भारत में मौजूदा प्रावधान को जानने की आवश्यकता है.. जैसा की यह सर्व-विदित है, चुनाव आयोग एक संवैधानिक संस्था है अर्थात इस सम्बन्ध में संविधान में विशेष रूप से प्रावधान किये गए हैं जिसमें इसकी संरचना, कार्य, शक्तियां, अधिकार क्षेत्र समेत अन्य विषयों का उल्लेख किया गया है.. संविधान के अनुच्छेद 324(2) के अंतर्गत, केंद्रीय मंत्रिमंडल (प्रधानमंत्री) की अनुशंसा पर राष्ट्रपति द्वारा मुख्य एवं अन्य चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति की जाती रही है.. अब सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद यदि सरकार इसका विरोध नहीं करती है तो संसद से इस सम्बन्ध में संविधान संशोधन करने की आवश्यकता होगी जिसके बाद ही इसे लागू किया जा सकेगा।
विमर्श: भारतीय न्यायालयों की कार्यशैली में क्यों है उपनिवेशवाद की छाप
यहाँ गौर करने वाली बात है, जहाँ एक तरफ न्यायपालिका गैर-संवैधानिक तरीके से कार्यपालिका के हर उस संस्था में अपनी हिस्सेदारी मांग रही है जो सरकार चलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने की स्थिति में है.. और यह लगातार हो रहा है विपक्षी दलों द्वारा एक-एक कर सभी ऐसे महत्वपूर्ण संस्थाओं की विश्वसनीयता पर सवाल उठाये जाते रहेंगे और मामला न्यायालय तक पहुँचता रहेगा.. बाद में इस संस्थाओं पर दलगत विरोध की मध्यस्थता के नाम पर न्यायपालिका अपनी हिस्सेदारी लेती रहेगी।
स्पष्ट है कि न्यायपालिका स्वयं को कागज़ी तौर पर भले भी निष्पक्ष और स्वायत्त दिखाने के दावे करता रहे परन्तु व्यावहारिक रूप से न तो यह निष्पक्ष दिखती है और न ही स्वायत्त.. तो न्यायपालिका स्वयं को दोनों पक्षों के बीच मध्यस्थता की भूमिका में न ही रखे तो ज्यादा बेहतर होगा.. क्योंकि ऐसे में तीन सदस्यों के पैनल में यदि किसी नाम को लेकर सरकार (प्रधानमंत्री) और विपक्ष (विपक्षी दल के नेता) मतभेद हो जाए तो निर्णायक भूमिका में फिर से मुख्य न्यायाधीश ही होंगे.. अर्थात यहाँ भी न्यायपालिका ने अपनी सुपीरियोरिटी सुनिश्चित करने की पुरज़ोर प्रयास किया गया है.. और इस प्रकार यदि निष्पक्ष होने का दावा कर रहे मुख्य न्यायाधीश महोदय एक पक्ष के नेता के साथ मिलकर ‘अपने आदमी’ को (जैसा की सरकार पर आरोप लगाया जाता है) संवैधानिक पद पर बिठा सकते हैं.. अन्यथा यहाँ भी मामला आनुपातिक तौर पर २-१ से एक पक्ष की तरफ चला जा सकता है जैसा की न्यायपालिका में अक्सर देखा जाता रहा है.. तो फिर सरकार के प्रतिनिधित्व का क्या होगा? क्या सरकार को बैकफुट पर नहीं धकेल दिए जाने का प्रयास किया जाएगा? जबकि निर्णायक भूमिका वाले सबसे भ्रष्टतम संस्थाओं में एक स्वयं के कॉलेजियम की पारदर्शिता को लेकर किसी भी प्रकार की प्रतिबद्धता नहीं दिखती है।
सरकार को लेकर न्यायपालिका का रवैया पक्षपातपूर्ण?
गौरतलब है, सत्ता में आते ही संस्थाओं में ढांचागत सुधारों को लेकर ही मोदी सरकार द्वारा कॉलेजियम को नेशनल जुडिशल अपॉइंटमेंट कौंसिल से स्थानांतरित किया जाना तय हुआ था.. जिसे विचित्र तर्कों के आधार पर अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर सरकार द्वारा बनाये गए कानून को निरस्त कर दिया था.. जिसे लेकर सरकार और न्यायपालिका के बीच के मतभेद सार्वजनिक हुए थे और तभी से ऐसे कई मौकों पर सरकार और न्यायपालिका एक-दूसरे के आमने-सामने देखे गए हैं.. और इसके बाद से ही न्यायपालिका का रवैया सरकार के विरुद्ध पक्षपातपूर्ण रहा है.. इसका प्रमाण हमने अनेक मौकों पर देखा है।
अब प्रश्न उठता है कि यदि न्यायपालिका सरकार विरोधी है तो क्यों सरकार द्वारा लिए गए फैसलों को न्यायपालिका द्वारा वैधता क्यों दी जाती रही है? चाहे बात हो विमुद्रीकरण, अनुच्छेद-370, जीएसटी, अग्निवीर योजना आदि जैसे मुद्दों पर सरकार के निर्णयों को क्यों संवैधानिक वैधता मिलती रही है तो इसका उत्तर है – ‘सरकार द्वारा कानूनी पहलुओं पर जबरदस्त होमवर्क’ और ‘जनता का जनादेश’।
सरकार द्वारा अपने लिए गए निर्णयों से पहले पर्याप्त तरीके से कानूनी समीकरणों पर विचार किया जाता रहा है.. इसका ताजा-तरीन उदहारण आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्ग (EWS) को दिए गए आरक्षण और अग्निवीर योजना का है.. भले ही न्यायपालिका द्वारा इसे ‘न्यायिक समीक्षा’ के नाम पर लम्बा खींचा गया हो लेकिन संविधानिक और तार्किक आधार पर इनके विरोध में दायर याचिकाओं को पहली सुनवाई के दौरान ही डस्टबिन में डाल दिए जाने लायक होते हैं।
न्यायपालिका सार्वजनिक मंचों से चाहे कितने भी सरकार विरोधी टिप्पणियां करती रहे लेकिन उन्हें पता है कि सरकार द्वारा लिए गए इन निर्णयों से जिसमें कुछ हद्द तक जनता को कठिनाइयों का सामना करना भी पड़ा है लेकिन बावजूद उसे जनता का समर्थन मिलता आया है.. साल-दर-साल इन फैसलों पर जनता के मुहर लगते आये हैं।
और न्यायपालिका कभी नहीं चाहेगी की उसकी और सरकार के बीच के गतिरोध सार्वजनिक हों, जिससे इस बात पर चर्चा हो कि कैसे पारदर्शिता और संविधान के नाम पर दूसरों के अधिकार क्षेत्र में घुसपैठ करने वाले न्यायपालिका के स्वयं की नियुक्ति प्रक्रिया में व्याप्त समस्याओं को लेकर कितने कटिबद्ध हैं?
वैसे भी मंच पर एक्ट कर रहे ‘कलाकार’ को ऑडियंस की जरुरत होती ही है.. ठीक सरकार की ‘निरंकुशता’ की कथाएं सुनने के लिए जनता का न्यायपालिका पर विश्वास कायम रहना न्यायपालिका के लिए नितांत आवश्यक है.. तभी तो हर जगह उनकी उपयोगिता स्थापित किया जा सके।
अंत में इस चर्चा को कुछ प्रश्नों के साथ छोड़ दिया जाना चाहिए-
- क्या सरकार न्यायपालिका के इस फैसले को स्वीकार करती है या नहीं?
- क्या न्यायपालिका जो स्वयं के नियुक्ति प्रणाली में किसी भी प्रकार के बदलाव को स्वीकार नहीं करने की स्थिति में देखी जाती रही है उसे सरकार द्वारा आईना दिखाया जाएगा?
- वे राजनीतिक दल जो एक ओर सरकार पर न्यायपालिका को भी नियंत्रित करने का आरोप लगाते हैं, क्या न्यायपालिका के प्रतिनिधित्व के बाद चुनाव आयोग जैसे संवैधानिक संस्था पर उनका विश्वास पुनः स्थापित हो जाएगा?