आजादी के समय जम्मू कश्मीर में डोगरा वंश का राज था, जिसके राजा हरिसिंह थे। हालाँकि, ब्रिटिश हुकुमत ने वहाँ अपना प्रधानमंत्री भी नियुक्त किया था। जिस समय कश्मीर का मामला चला और देश आजाद हुआ तब प्रधानमंत्री पद पर दक्षिण से संबंध रखने वाले एन गोपालस्वामी आयंगर काबिज थे और भारत के साथ कश्मीर विलय में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही थी।
आयंगर संविधान सभा के सदस्य भी रहे थे। 1937 में कश्मीर के प्रधानमंत्री पद पर नियुक्त हुए आयंगर 1943 तक पद पर बने रहे। उसके बाद वे काउंसिल ऑफ़ स्टेट्स के लिए चुन लिए गए। 1946 में आयंगर संविधान सभा के सदस्य बने और बाद में 29 अगस्त 1947 को बीआर आम्बेडकर के नेतृत्व में ड्राफ्ट बना रही छः सदस्यीय समिति के सदस्य भी रहे।
ब्रिटिश सरकार के दबाव में बनाए गए कश्मीर के प्रधानमंत्री पद की शक्तियाँ या जिम्मेदारियाँ समय-समय पर बदलती रहती थी लेकिन, आयंगर के कार्यकाल में उनके पास सीमित अधिकार ही रहे। कश्मीर वियल के समय आयंगर नेहरू के चहीते बन गए, वो बिना पोर्टफोलियो के मंत्री थे और नेहरू को इतना प्रिय थे कि सरदार पटेल की नाराजगी से ऊपर उठकर उन्होंने आयंगर को जम्मू कश्मीर मामले में ‘पटेल’ बनाया था।
संसद में नेहरू ने जम्मू कश्मीर को विशेष दर्जा देने का प्रावधान अनुच्छेद 360 पेश करने की जिम्मेदारी आयंगर को ही दी थी। सरदार पटेल ने इसपर सवाल खड़ा किया था लेकिन नेहरू ने यह कहते हुए उन्हेंं चुप करा दिया कि, “गोपालस्वामी आयंगर को विशेष रूप से कश्मीर मसले पर मदद करने के लिए कहा गया है क्योंकि वे कश्मीर पर बहुत गहरा ज्ञान रखते हैं और उनके पास वहाँ का अनुभव है। नेहरू ने कहा कि अयांगर को उचित सम्मान दिया जाना चाहिए।”
नेहरू यही नहीं रुके, उन्होंने पटेल से कहा, “मुझे यह नहीं समझ आता कि इसमें आपका (गृह) मंत्रालय कहाँ आता है, सिवाय इसके कि आपके मंत्रालय को इस बारे में सूचित किया जाए। यह सब मेरे निर्देश पर किया गया है और मैं अपने उन कामों को रोकने पर विचार नहीं करता जिसे मैं अपनी ज़िम्मेदारी मानता हूँ। आयंगर मेरे सहकर्मी हैं।”
मामला इतना गर्माहट भरा रहा कि इसके बाद सरदार पटेल ने इस्तीफा दे दिया और फिर गाँधी जी मामले में बीच बचाव करने पहुँचे। यह वो समय था जब वी शंकर सरदार पटेल के निजी सचिव थे। वी शंकर के दस्तावेजों की मानें तो, नेहरू ने पटेल को बताए बिना अनुच्छेद 370 का मसौदा तैयार किया गया था।
वी शंकर ने इसकी भी जानकारी दी कि, मामले पर कॉन्ग्रेस की बैठक हंगामेदार रही, जिसमें आयंगर के मसौदे पर जोरदार प्रतिक्रियाएँ थी। पटेल ने एक बार फिर मामले को अपने हाथ में लिया था लेकिन, दुर्भाग्यवश 24 जुलाई 1952 को पटेल का निधन हो गया।
जिसके बाद नेहरू ने संसद में राहत की साँस लेते हुए कहा कि, ‘हर समय सरदार पटेल इस मामले को देखते रहे’। वहीं आगे, आयंगर जम्मू कश्मीर के विलय में ही नहीं, इसे अंतरराष्ट्रीय दखल तक ले जाने में भी साथ रहे। कश्मीर मामले में सयुंक्त राष्ट्र संघ में भारत का प्रतिनिधित्व भी आयंगर ने ही किया था। बता दें कि, बाद में वो भारत के रेल और परिवहन मंत्री भी बने।
‘ऐतिहासिक’ फैसले
यह जगजाहिर की रियासतों के एकीकरण का कार्य सरदार पटेल के जिम्मे था। लेकिन कश्मीर का मामला उनसे कैसे छिन गया? इसका सीधा सा जवाब नेहरू और शेख से ही होकर गुजरता है। दरअसल, जब अबदुल्ला ने कश्मीर को विशेष दर्जा देने की बात कही थी तो सरदार पटेल ने साफ इंकार कर दिया था।
डॉ पीजी ज्योतिकर की लिखी किताब ‘आर्षद्रष्टा डॉ बाबा साहेब आंबेडकर’ में शेख़ अब्दुल्ला की कश्मीर के लिए विशेष दर्जे की माँग पर डॉ बाबासाहेब आंबेडकर ने कहा था कि, “आप चाहते हैं कि भारत आपकी रक्षा करे, सड़कें बनाए, जनता को राशन दे और इसके बावजूद भारत के पास कोई अधिकार न रहे, क्या आप यही चाहते हैं! मैं इस तरह की मांग कभी नहीं स्वीकार कर सकता।”
सरदार पटेल से मनमुताबिक जवाब ना मिलने पर अब्दुल्ला मुँह फुला कर नेहरू के पास पहुँच गए और उनसे मदद माँगी। नेहरू जो कि उस वक्त देश से बाहर जा रहे थे ने उनको निराश ना करते हुए मामले की जिम्मेदारी सरदार पटेल से लेकर आयंगर को दे दी थी।
अक्सर यह सच्चाई दिखाई जाती है कि जम्मू कश्मीर को विशेष दर्जा देने के लिए सरदार पटेल ने अपनी स्वीकृति दी थी। पर इसका एक कारण यह रहा कि उनके पास इसका कोई अन्य विकल्प था भी नहीं। एक तो नेहरू ने यह मामला पहली ही आयंगर को दे दिया था। ऐसे में जब आयंगर ने शेख अबदुल्ला की शर्तें स्वीकार की तो, पटेल ने अपने विचार अपने तक ही सीमित रखने का विकल्प चुना।
अब्दुल्ला ने बाद में संविधान के मूल अधिकार लागू ना करने की बात कहकर इसका जिम्मा राज्य की संविधान सभा पर छोड़ने को कहा, जिस पर पटेल खुश नहीं थे। लेकिन, नेहरू द्वारा हाथ बंधे होने के कारण उन्होंने गोपालस्वामी को उनकी मर्जी के साथ आगे बढ़ने दिया। बैठक में सरदार पटेल नेहरू का प्रतिनिधित्व कर रहे थे ऐसे में उन्होंने मसौदा पारित करने में कोई परेशानी खड़ी नहीं की। हालाँकि, वी शंकर को उस समय पटेल ने कहा कि ‘जवाहरलाल रोएगा।’
कश्मीर मुद्दे पर माउंटबेटन की सलाह से कार्य कर रहे नेहरू ने जम्मू कश्मीर का मामला सयुंक्त राष्ट्र ले जाना उचित समझा। जबकि भारतीय सेना पहले से ही कबालियों को खदेड़ चुकी थी और कश्मीर के राजा भारत के पक्ष में थे।
यूएन में मामले को ले जाकर इससे सुलझने से ज्यादा उलझने के रास्ते खोल दिए गए थे। जहाँ कालांतर में यूएन ने अपना प्रतिनिधिमंडल भारत भेजा। जो मामला देश का आंतरिक मसला था और आंतरिक तरीकों से ही सुलझाया जाना था उसपर दुनिया को दखल के लिए आमंत्रित कर दिया गया था।