कुत्तों और खम्भे के संबंधों पर एक आध वाक्य पढ़ लेना सोशल मीडिया के दौर में कोई बड़ी बात नहीं। ऐसे में कभी न कभी तो यह भी ध्यान आया होगा कि कुत्ते ऐसा करते क्यों हैं? जीव विज्ञान की मामूली सी जानकारी भी रखने वाले लोग बता देंगे कि पशु ऐसा करके अपने क्षेत्र की निशानदेही करते हैं।
अधिकांश शिकारी पशुओं की सूंघने की क्षमता इतनी विकसित होती है कि वो गंध से पहचान लेते हैं कि ये उनका इलाका नहीं, किसी और का है। यह तो हुई पशुओं की बात, लेकिन मनुष्य तो ऐसा कुछ करते नहीं। फिर वन्य पशुओं को कैसे पता चलता है कि यह मनुष्यों का क्षेत्र है, यहाँ नहीं जाना, अपने जंगल में ही रहना है?
अगर मोगली वाली “द जंगल बुक” जैसी फिल्में देखी होंगी तो शायद याद आ जाएगा। बच्चे जिज्ञासु स्वभाव के होते हैं। हो सकता है बच्चों को यह फिल्म दिखाने ले गए हों और उन्होंने पूछा हो, ऐसी फिल्मों में जंगली पशु आग को लाल फूल, मनुष्यों का फूल कहते सुनाई दे सकते हैं। जी हाँ, वन्य जीव आग से दूर रहना चाहते हैं। हो सकता है कहीं आग देखते ही गैंडे के दौड़कर आने और उस पर पैर पटककर आग बुझा देने के किस्से भी आपने पढ़े-सुने हों। जब मनुष्यों ने कृषि का काम शुरू किया, जंगलों के बाहर पालतू पौधों और पशुओं के बीच रहना उसके लिए संभव हो गया, आग पर पकाकर खाना सीख गया, तभी उसकी नजर पशुओं के आग से डरने पर भी गई ही होगी।
जाड़े में जब निचली डालियों पर हरी पत्तियाँ कम होने लगती हैं। जंगल में पशुओं-पक्षियों के लिए आहार कम होने लगता है तो पक्षी ही नहीं, शाकाहारी पशुओं के झुण्ड भी पलायन करते हैं। एक क्षेत्र से उनके दूसरे क्षेत्र में जाने पर बीच में मानवों की बस्तियाँ भी आएं, ऐसा हो सकता है।
भारत में जो सबसे पुरानी खेती होती है, वो धान की खेती है, और वो लगभग इसी काल में पक रही होगी। शाकाहारी पशु उसे चरते हुए न निकलें, उनके पीछे आते शिकारी पशु, मनुष्यों पर झपट्टा न मार दें, इसका सबसे आसान तरीका क्या होगा? आग?
अब सवाल है कितनी आग? रोज रात भर या दिन भर आग जलाने के लिए ईंधन कहाँ से आएगा? फिर बहुत ज्यादा आग तो चाहिए भी नहीं। रात में टिमटिमाता एक दीपक, पशुओं को यह बताने के लिए पर्याप्त है कि यह मनुष्यों का क्षेत्र है, घूमकर जाओ।
भारत, जो कि एक कृषि प्रधान देश है, उसने इसके लिए क्या व्यवस्था की? दुर्गा पूजा (शारदीय नवरात्र) से लेकर दीपावली ही नहीं, उसके काफी बाद तक ऐसे त्योहार मनाते देखेंगे जिनमें आग, दिये, रौशनी इत्यादि का महत्व बहुत होता है। सिर्फ दीपावली पर पटाखे फोड़ने की परंपरा नहीं, बिहार में ये आपको छठ तक होता दिखेगा।
उत्तराखंड में ऐसा ही इगास नामक लोकपर्व होता है। यह वह त्योहार हैं, जिनके बारे में मैकॉले मॉडल की पढ़ाई में तो पता नहीं ही चला, बाद के आयातित विचारधारा से प्रेरित किताबों में भी नहीं लिखा-पढ़ा गया। विचित्र है कि किसी ने यह भी नहीं पूछा कि कृषि प्रधान देश में फसल के लगने, काटकर मंडी तक जाने इत्यादि पर होली-पोंगल जैसे त्योहार होते हैं, तो फसल की सुरक्षा के लिए बीच में कोई त्योहार कैसे नहीं होता होगा?
भारतीय जीवन बीमा के ध्येय वाक्य में तो ‘योगक्षेमं वहाम्यहम्’ लिखा होता है। अगर भगवद्गीता (9.22) में यह ‘योगक्षेमं वहाम्यहम्’ कहने वालों को याद था कि केवल जोड़ने-इकठ्ठा करने (योग) का ही महत्व नहीं, जो प्राप्त हुआ उसकी सुरक्षा (क्षेम) भी आवश्यक है, तो फिर ऐसे ग्रन्थ को केवल स्मृति से पीढ़ी दर पीढ़ी आगे ले जाने वालों को इसकी याद न रही हो, ऐसा तो संभव नहीं।
दीपावली जैसे त्योहारों के दिये, उस दौर में होने वाली आतिशबाजी यही उद्देश्य पूरा करती थी। पशु पहले आपके क्षेत्र में आकर नुकसान करें फिर आप उनका शिकार कर के कृषि इत्यादि की सुरक्षा करें। ऐसी प्रतिक्रियात्मक व्यवस्था के बदले हिन्दुओं ने एक सक्रीय व्यवस्था विकसित कर ली थी। इसके तहत शिकार बहुत जरूरी हो जाने पर ही करना पड़ता था। आमतौर पर दूर से आग देखकर ही पशु मनुष्यों के क्षेत्र में नहीं आते थे।
ब्रिटिश शासन/शोषण काल में जब ग्रामीण स्तर पर पंचायत जैसी व्यवस्थाओं की हत्या की गई तो साथ में और भी काफी कुछ मरा। अब कई एनजीओ इत्यादि भी स्वीकारते हैं कि हमें जल संरक्षण, पर्यावरण, समेकित विकास आदि के लिए अपने परंपरागत ज्ञान से सीखना होगा।
अंधी विकास की दौड़ और पर्यावरण के लिए ‘पैर झटकने’ जैसी प्रतिक्रियाओं से काम नहीं चलने वाला। अनुपम मिश्र जैसे गाँधीवादियों ने ऐसे विषयों पर ‘आज भी खरे हैं तालाब’ जैसी कई किताबें लिखी। कृषि से जुड़ी ख़बरें जो छपती हैं, उनमें ऐसी व्यवस्थाओं के जाने के बाद से, खेतों में नील-गाय इत्यादि के घुसने की ख़बरें भी दिखती ही हैं। समस्या यह है कि किसान नील-गाय को चरने दे तो दलहन इत्यादि की फसलें जाएँगी और जो कहीं डंडा भी मार दे, तो वन्य कानूनों की चपेट में आकर जेल की चक्की पीसेगा।
दिल्ली में बैठे लोग ऐसे में जब बिना सोचे समझे, कानून बनाते हैं तो नुकसान होता है। एक कूप में जीने वाले, लगभग वंशानुगत परंपरा से आने वाले कानूनाधीश (न्यायाधीश नहीं क्योंकि वो न्याय नहीं कानूनों का पालन भर करवाते हैं), जब कानून का हंटर फटकार कर बिना वैज्ञानिक प्रमाणों को देखे यह कहते हैं कि दीपावली आदि हिन्दू त्योहारों पर ‘आवश्यक प्रतिबन्ध’ लगाए जाएं, तो दिक्कत तो होगी ही।
दीपावली बीतने के बाद, पटाखों पर प्रतिबन्ध होने के बाद भी जो प्रदूषण पर कोई असर नहीं होता दिखता, स्कूल बंद करवाने पड़ते हैं, वो ऐसी ही बचकानी सोच का नतीजा है।
अपना जबरदस्ती थोपा हुआ ‘विकास’ यह अपने पास ही रखें, हिन्दू समाज जो समाज सुधारक पैदा करने और उन्हें सम्मानित स्थान देने में स्वयं सक्षम रहा है, उस समाज को अपनी नीतियाँ, अपने नियम, अपने सुधार और अपना ‘विकास’ भी स्वयं देखने दें तो बेहतर रहेगा।
बाकी रहा सवाल दूसरे पक्ष की सुनने का तो उसमें मैकॉले मॉडल की पढ़ाई और आयातित विचारधारा की जबरदस्ती थोपी हुई साम्यवादी सोच सक्षम तो होती नहीं। ऐसे में भारत में दूसरे दर्जे के नागरिकों जैसा जीवन जीते हिन्दुओं को संविधान प्रद्दत्त स्वतंत्रता भी बिना संघर्ष के मिलेगी, ऐसा लगता तो नहीं!