आधुनिकता के चश्मे से गैर-पश्चिमी परंपरा और संस्कृति का चित्रण दुनिया के एक बड़े हिस्से के लिए कोई महत्वपूर्ण खबर नहीं है। लंबे समय से लोग इसके दुष्प्रभाव झेलते रहे हैं। पश्चिम से उभरा उत्तर-औपनिवेशिक विमर्श अपने को स्वयंभू प्रकाशस्तम्भ मानने के भ्रम में जीता है। समस्या केवल इस बात से है कि जो जहाज उसकी बताई दिशा को नकारते हैं उन्हें ये अपने मनमुताबिक चलाना चाहता है या फिर उन्हें डुबो देने में भी संकोच नहीं करता।
कुमारी की परंपरा भी पश्चिम की इसी प्रवृत्ति की शिकार है। नेपाल के पनौती शहर में यह शाक्त परंपरा चलती आ रही है। यह परंपरा बालिका या कन्या के इर्दगिर्द घूमती है जिसे यौवन तक पहुंचने से पहले एक जीवित देवी के रूप में देखा और माना जाता है। शाक्त परंपरा जिसका आधार सप्तशती ग्रन्थ को माना जाता है, वहाँ सभी महिलाओं के लिए एक बात कही गयी है, जो भारत के मूल चरित्र को उजागर करती है :-
विद्या: समस्तास्तव देवि भेदा: स्त्रिय: समस्ता: सकला जगत्सु।
त्वयैकया पूरितमम्बयैतत् का ते स्तुति: स्तव्यपरा परोक्ति :॥
–सप्तशती 11.6
देवी! सम्पूर्ण विद्याएँ तुम्हारे ही भिन्न-भिन्न स्वरूप हैं। संसार में जितनी स्त्रियाँ हैं, वे सब तुम्हारे ही रूप हैं। जगदम्ब! एकमात्र तुमने ही इस विश्व को व्याप्त कर रखा है। तुम्हारी स्तुति क्या हो सकती है? तुम तो स्तवन करने योग्य पदार्थो से परे एवं परा वाणी हो।
पर कौमार्य से पहले, सभी कन्याओं को विशेष रूप से देवी का रूप मानकर पूजा जाता है। भारतीय उपमहाद्वीप में देवी मानकर 9 कन्याओं को भोजन कराया जाता है। इसी दर्शन के अंतर्गत नेपाल में किसी कन्या को बहुत कम उम्र में एक देवी के रूप में चुन लिए जाता है, उसके बाद उस कुमारी कन्या को कुछ अनुष्ठान करने पड़ते हैं जो उसे सामान्य नश्वर मनुष्यों से अलग बनाते हैं।
उस कन्या की विशेष देखभाल सुनिश्चित करते हुए उसे किसी भी तरह की चोट और दुर्घटनाओं से सुरक्षित रखा जाता है, उसके बर्तन भी दूसरों के साथ साझा नहीं की जाती है। महिलाओं को उनके मासिक धर्म के दौरान कन्या के संपर्क में नहीं आने दिया जाता है। ईश्वरीय प्रतीकों के साथ साथ, कुमारी कन्या अपने मस्तक पर तृतीय नेत्र भी धारण करती है। काठमांडू की शाही कुमारी की तुलना में अन्य कुमारियों के लिए अपेक्षाकृत कम कठोर नियम होते हैं, शाही कुमारी अपने परिवार से अलग एक विशेष निवास में रहती है।
जहाँ एक ओर नेपाल की कन्या कुमारी परंपरा में कन्या देवीरूप में पूजी जाती है वहीं दूसरी ओर नेपाल के भीतर और बाहर नेपाली महिलाओं की बड़े पैमाने पर देह व्यापार और तस्करी की गंभीर सामाजिक समस्या इस परंपरा से विरोधाभास उत्पन्न करती है। यह कहना है पश्चिमी दृष्टि का, जिसके पीछे एक विशाल प्रोपेगेंडा मशीन लगी है, कहने को यह एक सामान्य कथन लगता है, विचारोत्तेजक भी, पर इसे अंतर्निहित अर्थ कुछ दूसरे ही हैं।
यह विरोधाभास तब और तीव्र दिखाई देता है जब अंतर्राष्ट्रीय मीडिया नेपाल की स्थिति का नैतिक चित्रण अपने दर्शकों के सामने रखता है। ऐसे विषयों पर कहानियों के निर्माण से लेकर जन प्रतिक्रियाएं लेने और तीसरी दुनिया के अनजान अंतर्विरोधों पर विचार रखने तक, यह प्रक्रिया उपनिवेशवादियों की मूलनिवासी “पेंग्विन्स” के प्रति औपनिवेशिक युग में कैसी समझ रही होगी की याद दिलाती है।
यह पूर्व-आधुनिक दुनिया की सुंदर तस्वीर चित्रित करने का प्रयास नहीं है, बल्कि तेजी से बढ़ती वैश्विकतावादी आधुनिकता की सामाजिक व्यवस्था को इंगित करने का प्रयास है। हालांकि कुमारी परंपरा अकेली नहीं है, भारत में भी कभी नवरात्र, कभी करवाचौथ, तो कभी कन्यादान का ऐसा ही वीभत्स प्रतीक निर्मित किया जाता रहा है।
यही हमारे समकालीन आधुनिकतावाद की कड़वी सच्चाई है। दुनिया औपनिवेशिक युग से केवल सामाजिक-राजनीतिक संदर्भ में ही आगे बढ़ पाई है। विश्व व्यवस्था की भौतिक स्थिति कमोबेश वैसी ही बनी हुई है- कुछ सबसे अमीर औद्योगिक राष्ट्र ही बाकी दुनिया के सामाजिक व्यवहार का जबरन निर्धारण कर रहे हैं।
कुमारी, नवरात्र, करवाचौथ जैसी भारतीय परंपराओं पर आक्रमण इसलिए किया जा रहा है ताकि इतिहास में जिस समाज को उपनिवेश बनाकर तबाह किया था उसी समाज पर कथित रूप से उदार सामाजिक व्यवस्था को थोपा जा सके। इससे भी एक कदम आगे जाकर उनका उद्देश्य है कि सामाजिक समस्याओं के मूल में लोक परंपरा को कारण के रूप में स्थापित किया जा सके और उसे तीसरी दुनिया के देशों के खुद पर शासन करने की असमर्थता की एक और वजह बताया जा सके।
इतिहास में कुछ ही समय पहले यह कार्य श्वेतों का मानसिक बोझ माना जाता था। जिसका मुख्य विरोधाभास यह था कि काफिरों द्वारा कथित ‘एकमात्र सच्चे धर्म’ का पालन न करने के बावजूद, वे उनकी तुलना में अधिक भौतिक समृद्ध कैसे हैं? यह उनके अस्तित्व के विचार के खिलाफ सबसे बड़ा सबूत था, वह विचार जो दूसरों को केवल सहन करता है, पर स्वीकार नहीं कर सकता, सह-अस्तित्व की बात नहीं सोच सकता।
गायत्री स्पिवक अपनी महान कृति “कैन द सबाल्टर्न स्पीक?” में उत्तर-औपनिवेशिक विचारों के सजावटी महलों के अंधेरे कोनों के बारे में बात करती हैं, जो नए स्वतंत्र राष्ट्रों में ‘अधिकार मांगने’ की आड़ में उन्हें अस्थिर करने के प्रयोग करता रहता है, जबकि कुछ मामलों में तो यह सब पश्चिम की शक्ति के लिए काम करता है यहाँ तक कि हठधर्मिता से लड़ता भी है।
1980 के दशक में शीत युद्ध के अंतिम पड़ाव के दौरान ही यह काफी कुछ स्पष्ट हो चुका था। सोवियत संघ और अमेरिका के नेतृत्व वाले पश्चिम के बीच असमानता की खाई बड़ी हो गई थी। कई पश्चिमी पंडितों ने अमेरिकी की नवजात एकध्रुवीयता को मानव विकास का शिखर घोषित कर दिया था।
फ्रांसिस फुकुयामा ने अपनी प्रसिद्ध थीसिस ‘इतिहास का अंत’ में लिखा है कि, “शीत युद्ध का अंत मानवता की सामाजिक व्यवस्था में अंतर्विरोध के अंत जैसा था।” इससे उनका तात्पर्य यह था कि अब पश्चिमी-उदारवादी व्यवस्था का पूर्ण प्रसार, वैश्विकता का नया धर्म पश्चिमी और गैर-पश्चिमी दोनों तरह के लोगों की चेतना को समान रूप से प्रभावित करेगा।
21वीं सदी की शुरुआत में प्राचीन धर्मों की औपनिवेशिक व्याख्या का एक अधिक व्यापक और मजबूत संस्करण दुनिया के सामने आया। इस व्याख्या से स्थापित किया गया कि, पश्चिमी शक्ति ही अब यह निर्धारित करेगी कि लोगों की सामूहिक स्मृति के रूप में रहने योग्य क्या क्या है और क्या क्या ऐसा है जिसे उदारवाद के आधुनिक धर्म के प्रति ईशनिंदा घोषित किया जाना चाहिए। और इस प्रक्रिया के परिणामस्वरूप जब राष्ट्रों की संप्रभुता कमजोर हो जाएगी, तब अमेरिका उनके दुख को समाप्त करने के लिए सैन्य साधनों के उपयोग द्वारा उनका नेतृत्व करेगा।
लीबिया पर यूएस-नाटो का आक्रमण इस प्रक्रिया का जीता जागता उदाहरण है। शीत युद्ध की समाप्ति के दशकों में इस सैद्धांतिक की उत्पत्ति को समझने में लोग असफल रहे हैं। राबर्ट नोज़िक नाम के एक राजनीतिक वैज्ञानिक ने राज्य की “पवित्र हिंसा” के आधुनिक प्रयोग कैसे किए जा रहे हैं की फिर से व्याख्या की। वह नाइट-वॉचमैन राज्य के सिद्धांत के लिए प्रसिद्ध हुए, जिसके अंतर्गत संप्रभु राज्य को अपने ‘रणनीतिक’ राष्ट्रीय हितों की रक्षा के लिए दूसरे सम्प्रभु राष्ट्रों पर क्रूरता के साथ हमला करना चाहिए। इसी के बाद ‘रणनीतिक गहराई’ शब्द प्रचलन में आया, और इराक पर अमेरिकी आक्रमण में इसकी परिणति हुई।
इस विकास से थोड़ा पहले और दूसरे विश्व युद्ध के कुछ दशकों बाद, एक और विचारक हुई हैं जिन्होंने राज्य की अतिरिक्त वैधहिंसा के सवाल पर विचार किया था। उन्होंने विचारधारा और आतंकवाद के जुड़वां उपदेशों की नींव पर वैधहिंसा के अस्तित्त्व का विचार किया। उनका नाम हन्ना अरेंड्ट था। अपने एक व्याख्यान के दौरान, उन्होंने कहा था कि विचारधारा के लिए व्यापक सहमति के बिना आतंकवाद भी अधूरा है।
उसकी समझ में विचारधारा ही नाजुक शांति और अपरंपरागत युद्धों की नींव बन गई थी। उनकी बहुप्रशंसित ईचमैन रिपोर्ट सामने आने के बाद उनके कथनों का महत्त्व बढ़ गया। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि उनके कथनों ने युद्ध की शारीरिक रचना की व्यापक समझ को रेखांकित किया, और साम्राज्यवाद-विरोधी युग के दौर में पश्चिमी देशों के बीच होने वाले पारंपरिक युद्ध की जांच की संस्कृति की शुरुआत की।
पश्चिमी इतिहास में यह एक ऐसा क्षण था जब लोगों ने अपने भौगोलिक क्षेत्रों से दूर स्थित राष्ट्रों में उनके देशों द्वारा किए जा रहे युद्धों को रोकने के लिए अपनी सरकारों और अभिजात वर्ग के खिलाफ लड़ाई लड़ी। सामूहिक परोपकारिता के इस नेक कार्य ने अमेरिकी लोकप्रिय संस्कृति का आगाज़ किया, जो आज तक अमेरिका की पहचान बना हुआ है।
स्वार्थ से ऊपर उठने के इस विचार ने इन राष्ट्रों को 20वीं शताब्दी में उनकी समृद्धि की ऊंचाई तक पहुँचा दिया, आज पश्चिम के पतन का कारण उसी empathy के भाव को त्यागना है। इस संपूर्ण विकास को राजनीतिक सिद्धांतकार डेविड बेल ने अपनी प्रमुख पुस्तक ‘द एंड ऑफ आइडियोलॉजी’ में अच्छी तरह से प्रस्तुत किया था।
भारतीय परंपराओं के भरे पूरे विशाल परिवार के साथ चेतना का गहरा और घनिष्ठ संबंध है। भारतीय परंपराएं एक विशाल बरगद के पेड़ की तरह हैं, जिसकी इतिहास रूपी शाखाओं में तरह तरह के फूल और फल लगे हैं। सनातन ज्ञान का मूल्य और अस्तित्व की कालातीत एकता को हिन्दू प्रतीकों में कल्प वृक्ष के रूप में दर्शाया गया था। कल्पवृक्ष इस बात का प्रतीक है कि परमतत्त्व का साधक होने का क्या अर्थ है- उसका अर्थ है समय के साथ विकसित होते रहकर भी जड़ों से न कटना।
देवों और असुरों के बीच हुए पौराणिक समुद्र मंथन के दौरान, ब्रह्मांडीय महासागर की गहराइयों से लक्ष्मी और कामधेनु के साथ कल्पवृक्ष प्रकट हुआ था। समुद्र मंथन धर्म के छत्र के नीचे रहते हुए अस्तित्व के विचार का प्रतीक है। धर्म भीतर और बाहर के देवताओं का प्रतिबिंब है, धर्म चेतना का प्रतिनिधित्व करता है। धर्म की खोज स्वयं सत्य की खोज बन जाती है, जिसमें ईश्वर स्वयं सत्य बन जाता है और जहां आत्मा अनंत में विलीन होने के लिए लालायित हो जाती है।
यह विचार भारतीय परंपराओं और दर्शनों के विभिन्न विद्यालयों में असंख्य प्रकार से व्यक्त किया गया है। वेद-वेदांग-वेदांत, पुराण और तन्त्रों की विभिन्न परम्पराओं में इसके अलग-अलग रंग देखने को मिलते हैं। अस्तित्व को लकवापन मार जाना ही शून्यवाद है, जो कि अधर्म है। अधर्म केवल इसलिए नहीं करना चाहिए कि अधर्म कर्म से नर्क मिलेगा, बल्कि इसलिए भी नहीं करना चाहिए क्योंकि अधर्म अस्तित्व को अपने ही भार के नीचे गिरा देता है।
पनौती नगर की कुमारी परंपरा अपनी संस्कृति और इतिहास के माध्यम से प्रकट इस सत्य का जीवंत प्रतीक है। वह इसके मानने वालों के लिए ‘अनन्त’ का प्रतीक है। यह विचार भगवान के साथ अपने निजी पारस्परिक जीवन के बारे में भी है, जिसमें देवता जीवित होते हैं, खाते हैं, नृत्य करते हैं, सोते हैं, काम करते हैं और यहां तक कि अपने भक्तों के पैर भी खींच लेते हैं।
बहुत से लोग पश्चिमी दृष्टि को उनका अपनी संस्कृतियों के प्रति अज्ञान मानकर सहज हो जाते हैं। जबकि यह अन्तर पश्चिम और अन्यों के बीच धन की असमानता के कारण पैदा होता है, और अक्सर इसे वर्ग अंतर के रूप में देखा जाता है। यह गैर पश्चिमी राष्ट्रों में औपनिवेशिक राष्ट्रों द्वारा स्थापित की गई ‘पश्चिमी अज्ञानता’ की मानक व्याख्या भी है, जिसमें इसके कुछ कट्टरपंथी गुट भी शामिल हैं।
अल्जीरिया के फ्रांसीसी कब्जे का सूक्ष्म समर्थन करने के कारण ‘फ्रांसीसी अस्तित्ववाद’ कुख्यात हो गया था पर अल्बेयर कामू का अपवाद उल्लेखनीय है। पर यह अज्ञान वास्तव में अज्ञान नहीं है एक सोची समझी योजना है जिसके तहत उदारवाद के नाम पर ‘वर्ल्ड ऑर्डर’ और प्रतिशोधी हिंसा का प्रसार किया जा रहा है।
नेपाल की कुमारी परंपरा की हाल में जो अंतर्राष्ट्रीय कवरेज की गयी है वह लीबिया में जो हुआ उसे एक सूक्ष्म बौद्धिक वैधता देती है। बहुत से लोग बौद्धिकता की पूरी प्रक्रिया से ही घृणा करते हैं, और इसे किसी प्रकार की नैतिकता मानकर खारिज कर देते हैं।
तीसरी दुनिया के राष्ट्रों की संस्कृति अगर आज भी बची हुई है और उपनिवेशवाद के आगोश में नहीं समा पाई तो उसका कारण यही है कि उन लोगों ने अभी चीजों से ऊपर अपनी परंपरा को माना, उसे जिया और अगली पीढ़ी को दिया, उसके लिए जान भी दी, पर पूर्वजों से चली आ रही परंपरा को यथाशक्ति निभाने का प्रयास किया। आज जब इसमें शिथिलता आ रही है तो भारतीय और अन्य प्राचीन समाज पश्चिमी समुद्र में अदृश्य रूप से विलीन होते जा रहे हैं।
भारत में कहा गया है कि जो समझ से परे है, उसे ‘परा’ कहते हैं। और उस ‘परा’ में भी जो ‘परम’ है उसे ‘परंपरा’ कहते हैं।
रामधारी सिंह “दिनकर” ने अपनी एक कविता में इसे सुंदर रूप से रेखांकित किया है :-
परंपरा को अंधी लाठी से मत पीटो
उसमें बहुत कुछ है
जो जीवित है
जीवन दायक है
जैसे भी हो
ध्वंस से बचा रखने लायक है
पानी का छिछला होकर
समतल में दौड़ना
यह क्रांति का नाम है
लेकिन घाट बांध कर
पानी को गहरा बनाना
यह परंपरा का नाम है
परंपरा और क्रांति में
संघर्ष चलने दो
आग लगी है, तो
सूखी डालों को जलने दो
मगर जो डालें
आज भी हरी हैं
उन पर तो तरस खाओ
मेरी एक बात तुम मान लो
लोगों की आस्था के आधार
टूट जाते हैं
उखड़े हुए पेड़ों के समान
वे अपनी जड़ों से छूट जाते हैं
परम्परा जब लुप्त होती है
सभ्यता अकेलेपन के
दर्द में मरती है