अमेरिका ने हाल ही में अंतरराष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता की रिपोर्ट जारी की। संभावना के अनुसार रिपोर्ट में प्रोपगेंडा और झूठे दावों के साथ भारत में धार्मिक स्वतंत्रता में गिरावट बतायी गई। रिपोर्ट मुसलमानों और ईसाइयों के ऊपर अत्याचारों के कई उदाहरण देती है। इस तरह की रिपोर्ट को लेकर अमेरिका इतना प्रेडिक्टेबल हो चुका है कि ऐसे रिपोर्ट में अब आश्चर्य के तत्व रहते ही नहीं। रिपोर्ट में निष्कर्ष को साबित करने के लिए जिन घटनाओं को शामिल किया गया है वे सेलेक्टिव हैं। रिपोर्ट किन तथ्यों के आधार पर तैयार की गई है उसका जिक्र नहीं किया गया है। अपने आधारहीन निष्कर्षों से अमेरिका ने भारतीय हिंदुओं को एक बार फिर बड़ी सफाई से कटघरे में खड़ा कर दिया है। अमेरिका की यह रिपोर्ट भारत सरकार ही नहीं बल्कि भारतीय न्याय व्यवस्था को हमेशा की तरह दरकिनार करती हुई नज़र आती है।
रिपोर्ट में नुपूर शर्मा द्वारा की गई विवादित टिप्पणी का जिक्र कर हिंसात्मक घटनाओं का जिक्र किया गया और कहा गया कि इससे अल्पसंख्यक मुसलमानों की भावनाएं आहत हुई है। रिपोर्ट में इसके दूसरे पक्ष की बात करना आवश्यक नहीं समझा गया। रिपोर्ट में बड़ी बेशर्मी के साथ इस बात को नज़रअंदाज़ कर दिया गया कि नूपुर शर्मा की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का समर्थन करने के कारण अपनी जान गंवानी पड़ी थी। रिपोर्ट गाय संरक्षण कानूनों पर बात करती है तो जबरन धर्म परिवर्तन कानूनों की आलोचना करती है। रिपोर्ट जबरन धर्म परिवर्तन को रोकने के लिए बने क़ानून की बात करती है पर जबरन धर्म परिवर्तन पर बात नहीं करती। धर्म परिवर्तन कानूनों का हवाला देकर रिपोर्ट दावा करती है कि यह सिर्फ गैर-हिंदू धर्मों तक ही सीमित है जबकि यह बताना जरूरी नहीं समझती कि जबरन धर्म परिवर्तन से जुड़े मामले गैर-हिंदू धर्मों से ही सामने आए हैं।
कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि धर्म के नाम पर रिपोर्ट निकालकर अमेरिका भारत को गैर-हिंदूओं के प्रति असहिष्णु दर्शाना चाहता है। रिपोर्ट के रूप में यह देश कितना ईमानदार रहा है वह इसके तथ्यहीन उदाहरणों को देखकर ही पता लग जाता है। यह धर्म स्वतंत्रता पर रिपोर्ट कम और भारत के लिए उस रुढ़िवादी पश्चिमी नजरिए का परिपत्र अधिक लगती है जिसमें भारत को कथित तौर पर मुस्लिमों के लिए सबसे अधिक दमित, दलितों के साथ भेदभाव और महिलाओं के लिए असुरक्षित स्थान बताया जाता है।
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भारतीय न्यायालयों में लंबे समय से जबरन धर्मांतरण के मामले लंबित हैं। कई राज्यों में बदलती डेमोग्राफी ने जबरन धर्मांतरण की धारणा को प्रस्तुत किया है। इसके उपरांत भी अमेरिका की रिपोर्ट द्वारा पेश किए गए उदाहरण देश में साम्प्रदायिक भेदभाव को बढ़ावा देने एवं राजनीतिक नरैटिव फैलाने की कोशिश लग रहे हैं।
वर्ष, 2021 में प्यू रिसर्च सेंटर द्वारा एक रिपोर्ट जारी की गई थी। इसमें भारत की 70% जनता को औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्त बताया गया था। धार्मिक स्वतंत्रता पर बात करते हुए रिपोर्ट बताती है कि भारत में 91 % हिंदू, 89% मुस्लिम, 89% ईसाई, 93% बोद्ध एवं 85% जैन धर्म के लोगों का मानना है कि उन्हें उनके धार्मिक नियम मानने की पूर्ण स्वतंत्रता है। करीब-करीब यही आंकड़ा एक-दूसरे के धर्म के सम्मान को लेकर भी रिपोर्ट में दर्शाया गया है।
अमेरिका की रिपोर्ट इन तथ्यों को झुठलाने की कोशिश करती नजर आ रही है। दरअसल, भारत की औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्ति और सर्वधर्म सम्मान की अवधारणा ही प्रोपगेंडा संचालित संस्थानों के लिए खतरे की तरह है। इसे रोकने के लिए समय-समय पर ऐसे तथ्यहीन आंकड़े प्रस्तुत किए जाते हैं। भारत में आगामी लोकसभा चुनाव के नजदीक होने से रिपोर्ट का अभी जारी होना आश्चर्यजनक प्रतीत भी नहीं होता है।
प्रश्न यह है कि मुसलमानों पर तथाकथित अन्याय का जिक्र करके भारत को कटघरे में खड़े करने की कोशिश करने वाले अमेरिका ने स्वयं की नीतियों का जिक्र क्यों नहीं किया? एसोसिएटेड प्रेस/नॉर्क सेंटर फॉर पब्लिक अफेयर्स रिसर्च पोल के अनुसार मानें तो 53 % अमेरिकी मुस्लिमों के प्रति अनुकूल राय नहीं रखते हैं। इसके साथ ही समय-समय पर मस्जिदों पर हमलों की घटनाएं सामने आती रहती हैं। वर्षों से चली आ रही नस्लवादी समस्या का हल अमेरिका अभी भी नहीं निकाल सका है। सार्वजनिक फायरिंग की घटनाओं ने अमेरिका को सामान्यजन के लिए असुरक्षित स्थान बना दिया है। इसी वर्ष अबतक 200 से अधिक सार्वजनिक शूटिंग की घटनाएं सामने आई हैं। वहीं हाल के वर्षों में हेट-क्राइम की घटनाओं में 11.6 % की वृद्धि दर्ज की गई है।
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अमेरिका के लिए यह सब देखना मुश्किल है। वैश्विक मंच पर उसने लंबे समय तक स्वयं को नेतृत्व कर्ता के रूप में देखना पसंद किया है। एक ऐसा देश जो तीसरी दुनिया के देशों की तस्वीर पेश करता है और उनपर अपने निर्णय थोपता है। हालांकि बदलते परिवेश के आकलन करने में इस विकसित देश से भारी भूल हुई है। मल्टीपोलर दुनिया अब अमेरिका को सर्वेसर्वा के किरदार में नहीं देखती। यह उचित समय है कि दूसरे देशों पर अपनी तथ्यहीन चिंता व्यक्त करने में समय व्यर्थ करने की बजाए अमेरिका अपने सामाजिक आधारों को मजबूत करने पर ध्यान दे जो समाप्त होने की कगार पर है।