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Home » आरिफ के सारस ने नहीं, रामायण ने सिखाया पशुप्रेम: पश्चिम में जीवहत्या रहा है मनोरंजन का जरिया
सिविलाइजेशन स्टोरीज

आरिफ के सारस ने नहीं, रामायण ने सिखाया पशुप्रेम: पश्चिम में जीवहत्या रहा है मनोरंजन का जरिया

आशीष नौटियालBy आशीष नौटियालApril 18, 2023No Comments6 Mins Read
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Arif-Saras story
यूरोप और अमेरिका से ले कर भारत का पशुप्रेम का इतिहास क्या रहा है
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हम आपके सामने हर मंगलवार को सभ्यता या सिविलाइजेशन से जुड़ी स्टोरी ले कर आएँगे, और इसमें हम बताएँगे कि वो क्या चीजें हैं जो रोजना की बहस में खबर के रूप में आपके सामने तो हैं लेकिन उनके पीछे है बेहद महीन और रोचक जानकारी जिसे हम ‘मिस’ कर जाते हैं। आज इस कार्यक्रम की पहली कड़ी है। 


आरिफ़ से बिछड़कर सारस उदास रहने लगा, उसने ख़ाना छोड़ दिया, सारस ट्रॉमा में भी है। सारस, सारस नहीं बल्कि सारस तैमूर बन गया है। बीते दिनों मीडिया में सारस ही तैमूर बना हुआ था। कारण? कारण यही है कि ये सारस आरिफ़ का सारस था, वैसे ही जैसे आपने खबरों में ये तो सुना होगा कि अतीक अहमद रॉबिननहुड था, लेकिन आपको किसी ने ये नहीं बताया होगा कि जब केंद्र में राजीव गांधी की सरकार थी तब अतीक की गिरफ्तारी के बाद उसे छुड़ाने के लिए दिल्ली से फोन आते थे, और फिर एक साल बाद अतीक अहमद जेल से बाहर आ गया। ऐसा कुछ पुलिस सूत्रों का कहना है लेकिन ‘लश्कर ए मीडिया’ के सूत्रों का कहना है कि अतीक अहमद रॉबिनहुड था। 

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लेकिन आज हमारा मुद्दा अतीक अहमद बिलकुल भी नहीं है। आज हमारा मुद्दा है आरिफ़ और आरिफ़ का सारस कि आख़िर मीडिया ने आरिफ़ और उसके सारस को इतनी फ़ुटेज क्यों दी?

मोदी सरकार ने बीते दिनों विदेशों से भारत में चीते मँगवाए थे, जिस पर जमकर बहस हुई। लोगों ने कहा कि विश्वगुरु को अब चीते मँगवाने का काम करना पड़ रहा है, आपने ध्यान दिया होगा कि पिछले कुछ समय में जितना वसुधैव कुटुम्बकम् और विश्वगुरु शब्द को भारत की सकारात्मक छवि के रूप में आगे रखा जाता है उतना ही इस विश्वगुरु और वसुधैव कुटुम्बकम् को एक कटाक्ष बनाकर इस्तेमाल किया जाता है। आज की हमारी यह पहली कहानी है जो आपको बताएगी कि भारत किस तरह से अन्य देशों से आगे है और वो भी बिना अधिक बखान किए हुए।

तो वापस लौटते हैं आरिफ़ और आरिफ़ के सारस के पास और इस घटना की कैलकुलेशन पर। साल 2014 में एक खबर आई थी कि यूरोप महाद्वीप में एक जगह है कोपेनहेगन, जहां के एक चिड़ियाघर में एक सेहतमंद, स्वस्थ और तन्दुरुस्त जिराफ को गोली मार दी गई थी। उसके टुकड़े वहां के शेरों को खिला दिये गए थे। ये गोलीकांड दर्शकों के सामने हुआ था और इस घटना से दुनिया हैरान रह गई थी।  यूरोप में हर साल चिड़ियाघर के हजारों सेहतमंद जानवरों के साथ यही होता है और ये वहाँ रोज़ की ही बात है। इस तरह से हर साल यूरोप में 3000 से 5000 जानवर मार दिये जाते हैं।

कोपेनहेगन के चिड़ियाघर में जिन जानवरों को मारा जाता है, उनमें हैं नन्हें जिराफ, तेंदुए, बाघ, शेर, भालू, हिरण और हिप्पोज। ऐसे ही एक डेनिश चिड़ियाघर में भी जिराफ़ और फिर दो शेरों को गोली मार दी गई थी। इन चिड़ियाघरों को रखने वालों की एक और ख़ास बात देखिए- अमेरिका में तो इनकी संख्या को सीमित रखने के लिए इन्हें गर्भनिरोधक तक दिये जाते हैं ताकि इनकी संख्या बहुत ना बढ़ जाए और यूरोप में तो इन्हें मार कर और जानवरों को खिला दिया जाता है।

अगर चिड़ियाघरों के कॉन्सेप्ट की बात करें तो अन्य देशों  की तुलना में भारत में चिड़ियाघर कितने हैं आप इस चित्र में देख सकते हैं।

अपने मनोरंजन के लिए जानवरों को क़ैद करने का जो सिलसिला पश्चिमी देशों ने अपनाया है, उस पर आपने कभी शायद ही ध्यान दिया होगा।  लेकिन वसुधैव कुटुम्बकम् जब भारत कहता है, तो वो सिर्फ़ एक मानव सभ्यता की ही बात नहीं कर रहा होता, बल्कि अपने आसपास के सारे ईकोसिस्टम और पारिस्थितिकी पर बात करता है। इसमें सिर्फ़ मनुष्य ही नहीं बल्कि प्रकृति और जानवर भी हैं। यानी हम भारतीय शुरू से ही जानवरों के साथ हार्मोनी में रहा करते थे।

देखा जाए तो हमने कभी भी पशु पक्षियों को अपने मज़े के लिए पश्चिमी राष्ट्रों की तरह चिड़ियाघर में क़ैद करने की मंशा नहीं रखी-  आप याद करेंगे तो भारत के इतिहास में राजा भरत 11 साल की उम्र में शेर के दांत गिनते थे, ये तस्वीर शायद आप सभी के मस्तिष्क में छपी हुई होगी।

असल मसला यही है। पश्चिमी देशों की अब अगर हम भारत से तुलना करें तो हम भारतीयों का समाज आप कहीं अधिक लिबरल पाएँगे, और यह आज से नहीं, बल्कि तब से, जब भगवान श्रीराम माँ सीता की तलाश के लिए वन्य जीवों की मदद लेते थे, कमाल की बात है कि उन्हें सबसे प्रिय थे भी तो हनुमान जी, जिन्हें हिंदू कपि स्वरूप में पूजते हैं। हमने अपने भगवानों को भी जानवरों के रूप में चुना। जो लोग इसे मायथॉलॉजी कहते हैं- या सिर्फ़ साहित्य कहते हैं उन्हें तो इस बात से खुश होना चाहिए था कि भारत के इतिहास का साहित्य कितना उन्नत था कि आज से कई सौ-हज़ार साल पहले पशुओं को केंद्र में रखते हुए साहित्य लिखा जा रहा था। प्रकृति देवी को इतना महत्व हमारे साहित्य में रहा है। और जो इसे अपना इतिहास मानते ही आ रहे हैं उन्हें कुछ भी साबित करने की आवश्यकता ही नहीं है।

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इसकी तुलना में जब आप रोमन इतिहास पर नज़र डालेंगे तो उनके लिए तो पशु हत्या बड़ा लोकप्रिय खेल था। गिलेन नाम का एक फ़िजिशयन सूअरों की सर्जरी कर लोग का मनोरंजन करता था, उसकी उम्र भी तीस से अधिक नहीं थी लेकिन ये रोम के लोगों का प्रिय खेल था। वो  लोगों को लाइव ऑपरेशन कर के दिखाता था।

रोमन फ़िज़िशियन गिलेन

आज बीबीसी से ले कर तमाम मीडिया चैनल जिस सारस और आरिफ़ की कहानी पर माहौल बना रहे हैं,  ये तो तब हम भारतीयों का मजाक बनाया करते थे जब हम कहते थे कि श्रीराम की मदद वानरों ने की या फिर जटायु ने माँ सीता के लिए अपने प्राण तक त्याग दिये। 

पंचतंत्र की कहानियों में हमारे पशुओं और प्रकृति के क़िस्से मौजूद हैं। तो इसका मतलब ये है कि आरिफ़ जो कर रहा है वो भारतीय सभ्यता को ही आगे ले जा रहा है, पशु पक्षियों से प्रेम करना भारता की ही सभ्यता है।

तो जब प्रधानमंत्री मोदी जी बान्दीपुर टाइगर रिज़र्व जाते हैं, तो वो ये नहीं कहते कि बाघ को काटकर या मारकर दुनिया का मनोरंजन किया जाए, वो ये कहते हैं कि पशु और वन्य जीव भारत की कहानी कहते हैं और ये हमारी सभ्यता का बहुत अहम हिस्सा हैं। भारतीय सभ्यता में हमेशा से ही जानवर और मनुष्य साथ रहे हैं।

इतिहास के पन्नों में झांक कर हम ही लोग नहीं देख पाते। हमने भगवानों को भी जानवरों के रूप में रखा है। चाहे भगवान हनुमान हों या फिर उनका श्रीराम से विशिष्ट प्रेम – बीबीसी और पश्चिमी सभ्यता को अगर कुछ सीखना चाहिए, तो वो हमारे इतिहास पर अवश्य नज़र डालें, यहाँ तमाम कहानियाँ बिखरी पड़ी हैं और इसके लिए हमने कभी किसी तरह के इंडेक्स भी जारी नहीं किए। 

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  • आशीष नौटियाल
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