ऐसा कहते हैं कि प्रथम इस्लामिक गृहयुद्ध में जब अली और अबू सूफ़िआन के बेटे मुवइया की सेनाएं आमने सामने हुईं तो मुवइया ने लड़ाई रोकने के लिए कुरान का वास्ता दिया। कुरान के नाम पर इस्लामिक खलीफा अली को न चाहते हुए भी संधि करनी पड़ी। बाद में इसी संधि को गैर कुरानिक मानने वाले पक्ष के एक व्यक्ति ने अली का कुफा की मस्जिद में क़त्ल कर दिया और कहानी के अंत में अली के बेटे हुसैन को क़त्ल करके मुवइया इस्लाम का नया खलीफा बना। इस प्रकार कुरान को सामने रखकर रशीदन ख़लीफ़ाओं की वंशावली को क़त्ल किया गया और उम्मयद वंशावली के खलीफाओं की शुरुआत हुयी। राजनीति में नैतिकता की आड़ में ऐसे खेल आम बात हैं और ऐसे खेलों का अंत भी वैसा ही होता है जैसा इस्लाम के प्रथम गृहयुद्ध में हुआ। ऐसे खेल कमजोर पक्ष जनमत को अपने पक्ष में करने के लिए खेलता है ताकि एक तरफ तो अपने समर्थकों की संख्या बढ़ाई जा सके और दूसरी तरफ विपक्षियों को नैतिक द्वन्द में डाल कर कमजोर किया जा सके। सुरक्षात्मक आक्रामकता का ये बढ़िया उदाहरण है।
भारतीय राजनीति में कांग्रेस पार्टी ने अभी-अभी एक ऐसा ही पासा फेंका है और अपने प्रस्तावित गठबंधन का नाम ही देश के नाम पर इंडिया रख दिया है। कांग्रेस अपने इतिहास के सबसे कठिन संकट से गुजर रही है और अपने अस्तित्व को बचाने के लिए कांग्रेस के पास कोई चारा भी नहीं है, लेकिन जिनको ये लगता है कि कांग्रेस ने ये खेल पहली बार खेला है, वो गलत हैं। शास्त्री साहब की असामयिक मृत्यु के बाद कांग्रेस के भीतर चले संघर्ष में नेहरू वंशावली का शासन पर अधिकार सुरक्षित करने के लिए इंदिरा प्रियदर्शिनी नेहरू ने ऐसा ही खेल किया था जब उन्होंने मोहनदास करमचंद गाँधी का पारिवारिक नाम अपने नाम के साथ जोड़ा था। दरबारी इतिहासकारों का तर्क रहता है कि इंदिरा के पति के नाम में गाँधी था, लेकिन ये गलत तथ्य है। फिरोज ने अपने नाम के साथ गांधी महात्मा गांधी से प्रभावित होकर लिया था, और उनके पति का अपना नाम बदलना हो सकता है एक संयोग रहा हो लेकिन इंदिरा का नाम के आगे गाँधी लगाना और कांग्रेस के दरबारियों द्वारा नेहरू वंशावली के इस नए नाम को न्यायोचित ठहराने के लिए तरह-तरह की कहानियां गढ़ना इस बात का संकेत देता है कि इंदिरा का उद्देश्य गांधी नाम का राजनीतिक उपयोग करना था और उनके परिवार ने इसको परंपरा बना दिया।
इंदिरा ने गांधी नाम का उपयोग करके नेहरू-शास्त्री के बाद के कालखंड में एक तरफ तो कांग्रेस के नेताओं को, जिनमें अधिकांश गांधी के साथ रहे थे और उन्होंने गाँधी को देखा था, ये संकेत दिया कि वो महात्मा गांधी कहे जाने वाले व्यक्ति के कितने निकट रहीं हैं और इसलिए अपने पिता के बाद वही कांग्रेस की नैतिक उत्तराधिकारी हैं, वहीँ दूसरी तरफ उन्होंने गांधी नाम का उपयोग खुद और खुद के परिवार को विरोधियों से सुरक्षित करने के लिए भी किया। एक तरह से गांधी उपाधि ने नेहरू परिवार को अनैतिकता करने का नैतिक लाइसेंस दे दिया जिसमें गांधी इंदिरा परिवार की अनैतिकता के लिए गाली खाते थे और परिवार उनके नाम की आड़ में राजनीतिक दांव पेंच करता था। इंदिरा ने एक ऐसे व्यक्ति को, जिसने कभी किसी राजनीतिक लाभ के पद को हैसियत में होते हुए भी हाथ तक नहीं लगाया, उसको स्वतंत्र भारत के इतिहास में सबसे अपमानित व्यक्तित्व बना दिया। आज भी नेहरू परिवार हर आरोप का जवाब गांधी की आड़ में खड़े होकर देता हैं। नेशनल हेराल्ड जो महात्मा गांधी का प्रारम्भ किया समाचार पत्र था, की संपत्ति में हेरफेर के मामले में जमानत पर रिहा सोनिया और राहुल गांधी को महात्मा गांधी जीवित होते तो पता नहीं कैसे देखते और इनका क्या करते लेकिन गांधी आज नहीं हैं और जमानत पर घूम रहे माँ-बेटा गांधी की आड़ लेकर नैतिक बने हुए हैं।
अब आते हैं कांग्रेस की नयी ढाल गढ़ने की कवायद पर। सबसे पहले तो नयी ढाल गढ़कर कांग्रेस ने ये मान लिया हैं कि गांधी नाम की पुरानी ढाल अब घिस के समाप्त होने की कगार पर है और वो नेहरू वंश के किसी उपयोग की नहीं रही। एक महान व्यक्ति का पारिवारिक नाम कांग्रेस के लिए उपयोग करने और उतार कर फेंक देने की वस्तु मात्र था। लेकिन राजनीति में जैसा कि पहले ही कहा गया, ये सब चलता है। अपने गठबंधन को इंडिया नाम देकर कांग्रेस ने एक तरफ तो ये सुनिश्चित किया है कि गठबंधन के अनुसांगिक दल वफादार बने रहें क्योकि यहाँ से गठबंधन को छोड़ कर जाने वाले को कांग्रेस इंडिया को तोड़ने वाला बोल सकती है और दूसरी तरफ कांग्रेस ने, जैसा कि दिख रहा है, विरोधियों का मुँह बंद करने की कोशिश की है क्योकि इंडिया को अपमानित करना देश को अपमानित करना होगा। महाभारत से दक्षिणपंथियों ने क्या सीखा, ये तो नहीं पता लेकिन कांग्रेस ने अपने इस दांव से कुरुक्षेत्र में शिखंडी की आड़ में पितामह को अपने बाणों से बींधते अर्जुन की याद जरूर दिला दी और इस अर्थ में राहुल गांधी पांडव ही हैं।
लेकिन यहाँ एक पेंच है, क्योकि गांधी उपाधि की तरह कांग्रेस के पास इंडिया नाम को न्यायोचित ठहराने के लिए आवश्यक पृष्ठ्भूमि का आभाव है, और इसलिए कांग्रेस का यह दांव सुरक्षात्मक तो है लेकिन बहुत जोखिम भरा है। इंदिरा गांधी कांग्रेस के नेताओं को यह विश्वास दिलाने में कि, वो गांधी की दत्तक पुत्री हैं, इसलिए सफल रहीं क्योकि वो गांधी के करीब रही थीं, लेकिन कांग्रेस गठबंधन का नाम इंडिया रखने को कैसे जस्टिफाई करेगी? कांग्रेस के शासन में ही इंडिया की जमीन चीन ने छीन ली, कांग्रेस के शासन में ही इंडिया के चप्पे-चप्पे पर बम विस्फोट हुए, कांग्रेस के एकछत्र शासन में ही इंडिया गरीबी की प्रयोगशाला बना रहा और कांग्रेस के शासन में ही देश ने सबसे बड़े घोटाले देखे।
इसलिए कांग्रेस द्वारा गठबंधन का इंडिया नाम रखना बहुत बड़ा जोखिम है, लेकिन जैसा कि पहले ही कहा गया, कांग्रेस के पास कोई चारा नहीं है। यह दांव कांग्रेस के सहयोगियों को भी वही सुविधाएं देता है जो कांग्रेस को देता है बल्कि कांग्रेस से कहीं ज्यादा देता है। कहने का मतलब ये है कि अगर किसी ममता बनर्जी के मन का भाव कांग्रेस ने न दिया तो ममता भी कांग्रेस पर आरोप लगा सकती हैं कि कांग्रेस इंडिया को तोड़ने का काम कर रही है। मतलब कांग्रेस को सहयोगी दलों की जायज-नाजायज बातें मानने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं है और अगर कांग्रेस ऐसा करती है तो कांग्रेस कम से कम पूर्वी और उत्तरी भारत की अधिकांश सीटों से बाहर होगी और कांग्रेस के सीमित होने की प्रक्रिया जारी रहेगी। पहली बात होने पर बीजेपी के पास ये तर्क होगा कि कांग्रेस देश के नाम पर बने गठबंधन को नहीं चला सकती तो देश क्या चलाएगी और दूसरी बात होने पर कांग्रेस को मानना पड़ेगा कि अब वो सिर्फ एक क्षेत्रीय दल है जो मध्य और दक्षिण भारत के कुछ राज्यों तक सीमित है और लगातार सिकुड़ रही है।
इस पूरी कवायद में जिस व्यक्ति के दोनों हाथ में लड्डू है वो सिर्फ और सिर्फ अरविन्द केजरीवाल है, और इस गठबंधन के बने रहने पर केजरीवाल का राष्ट्रीय नेता और बीजेपी के विकल्प के तौर पर उभरना तय है।
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