पाकिस्तान में आज रोटी खाना तो दूर, एक बड़े तबके के लिए देखना भी नसीब नहीं हो पा रहा है। यह वही पाकिस्तान है जो दुनिया भर में कथित भूख और कुपोषण की स्थिति को दर्शाने वाली ग्लोबल हंगर इंडेक्स की रिपोर्ट में भारत से आगे हुआ करता था। इस रिपोर्ट से पाकिस्तान को कम लेकिन भारत में एक वर्ग को अधिक खुशी जरूर महसूस हुई थी और यह ख़ुशी समय-समय पर उनके बयानों में दिखाई भी दी।
हंगर इंडेक्स में भारत के स्थान को 2014 के बाद नफरत की राजनीति का परिणाम बताने वाले पूर्व गृह मंत्री चिदंबरम हों या दिल्ली के उप-मुख़्यमंत्री सिसोदिया, ये नेता आज पकिस्तान के वर्तमान हालात से वाकिफ होंगे ही। सिसोदिया ने तो सीधे यह घोषणा कर दी थी कि 106 देश दो वक़्त की रोटी उपलब्ध कराने के मामले में भारत से आगे हैं।
भारत की क्षमता और संप्रभुता पर ऐसे इंडेक्स को आगे रखकर वैश्विक स्तर पर कुछ लोगों के मन में भ्रम तो पैदा किया जा सकता है परन्तु एक सीमा के बाद ऐसे इंडेक्स प्रभावहीन प्रतीत होते हैं। हाँ, इनके परिणामों को आगे रखकर भारत के लिए भविष्यवाणी करना अब एक आम बात हो चली है। केवल विपक्षी राजनीतिक दल ही नहीं बल्कि बुद्धिजीवी, संपादक, अर्थशास्त्री और ओपिनियन मेकर वगैरह माने जाने वालों के कारण पिछले 7 वर्षों में यह परंपरा स्थापित हो चुकी है।
इससे पहले यह तथ्य स्थापित करने की कोशिश की गई कि 72 वर्षों में पहली बार भारतीय रुपया बांग्लादेशी टका से पिछड़ा है और भारतीय करेंसी की इस दशा के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार दोषी है। सोशल मीडिया पर करेंसी रेट और रुपया-टका में तुलना करने वाले ग्राफ भी फेंके गए। वहीं श्रीलंका के आर्थिक संकट के बाद लेख देखने को मिले कि क्या भारत का भी हो सकता है श्रीलंका जैसा हाल? चीन में वहाँ की कोविड नीति के चलते भयावह हालात सामने आए तो भारत की स्वास्थ्य नीतियों को भी चीन की स्थिति से तय किए जाने का दबाव बनाया गया।
वैक्सीनेशन ड्राइव हो या फिर पर कैपिटा इनकम की बात, वैश्विक इंडेक्स जिनमें भारत को कमतर दिखाया गया, ऐसे हर मौके को भारत के एक वर्ग द्वारा लपक कर देश और वर्तमान सरकार के खिलाफ नैरेटिव बनाने का काम किया गया। इन तथाकथित बुद्धिजीवियों ने ऐसा क्यों किया, इसकी कई वजहें हो सकती हैं।
एक मुख्य वजह जो मानी जा रही है वह है देश की लीडरशिप को एक चुनौती पेश करना। देश के अंदर कई विषयों को मुद्दा बनाने के प्रयास में असफल इस वर्ग को एक उम्मीद देश के बाहर बनने या पैदा की जानेवाली खबर, इंडेक्स या विदेशी अखबारों में लिखे जाने वाले स्तंभों में ही नज़र आई है। ऐसा इसलिए क्योंकि शायद इस वर्ग की सोच है कि वैश्विक चश्मे से भारत का नैरेटिव अगर एक बार स्थापित हो गया तो देश की जनता को उसे स्वीकार करने में आसानी होगी। ऐसे प्रयासों से मुश्किलें तो सामने आईं लेकिन यह वर्ग इस प्रयास में अभी तक अधिक सफल नहीं हो पाया है।
इसके पीछे क्या कारण हो सकते हैं? आखिर एक समय था कि भारत में बनने वाली फिल्मों तक को जब विदेशों मेंअच्छा बता दिया जाता था तो उनकी स्वीकार्यता बढ़ जाती थी। कोई किताब, किसी विद्वान की विद्वत्ता या फिर विदेशों में पढ़े-लिखे भारतीयों को मिलने वाली मान्यता, एक समय इनकी स्वीकार्यता आसान थी। फिर आज ऐसा क्यों है कि इन बातों को अधिक महत्व नहीं मिल रहा?
पिछले कुछ वर्षों में देश के अंदर ‘गुलामी से मुक्ति’, ‘विरासत पर गर्व’ और राष्ट्रवाद जैसे विषयों ने जोर पकड़ा जिससे पश्चिम की ओर देखने की मानसिकता धीरे-धीरे समाप्ति की ओर है। वहीं जब अन्य मजबूत देश कई संकटों में घिरे तो भारत मजबूती से उन संकटों का सामना करते दिखा। बार-बार ऐसे मौकों पर भारत की जीत ने यहाँ की जनता में नेतृत्व के प्रति एक आत्मविश्वास भरा जिसके कारण एक आम नागरिक ने सही गलत में फर्क को विश्वास के साथ समझना शुरू किया।
विदेशी इनपुट्स के आधार पर भविष्यवाणी करने वालों के हिट एंड रन पैटर्न को समझना इसलिए भी आवश्यक था क्योंकि अपनी भविष्यवाणी के प्रति ये ‘विद्वान’ कभी जवाबदेह नहीं बनाये गए। आज जब ऐसी तमाम भविष्यवाणियां गलत साबित हो चुकी हैं तो क्या देश के उन राजनीतिक दल, उनके नेता, संपादक और बुद्धिजीवियों को भारत की जनता से माफ़ी नहीं मांगनी चाहिए? ख़ासकर इसलिये क्योंकि इन्होने हर मौके पर भारत की छवि को धूमिल करने का प्रयास किया?
कोरोना महामारी में भारत में करोड़ो की मृत्यु तो नहीं हुई लेकिन ऐसी भविष्यवाणी करने वालों की राजनीतिक मृत्यु अवश्य हो गई है। अब ना पाकिस्तान का हैंडसम प्रधानमंत्री इमरान दिखता है और ना ही वहाँ का हैप्पीनेस इंडेक्स।