वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण द्वारा 1 फरवरी को वित्त वर्ष 2023-24 के लिए पेश किये गए बजट में श्रीअन्न का जिक्र देखने को मिला। भारत के प्रस्ताव पर संयुक्त राष्ट्र (UN) ने वर्ष 2023 को इंटरनेशनल मिलेट्स ईयर घोषित किया। साथ ही देश में मिलेट्स को बढ़ावा देने के लिए मध्य प्रदेश के ढ़िंढ़ोरी क्षेत्र की 27 वर्षीय आदिवासी महिला लहरी बाई को मिलेट्स का ब्रांड एम्बेसडर बनाया गया है। लहरी बाई ने मिलेट्स के बीजों की करीब 150 किस्मों को संरक्षित किया हुआ है।
देश में मिलेट्स के न केवल रिवाइवल बल्कि विकास पर जोर दिया जा रहा है। मोदी सरकार द्वारा इस पर एमएसपी भी घोषित की गई है तो मिलेट्स को सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) का हिस्सा भी बनाया गया है। सरकार के पास मिलेट्स यानी श्रीअन्न को बढ़ावा देने के लिए समुचित कारण भी है।
वैसे भी भारत के लिए मिलेट्स का परिचय नया नहीं है। अगर इतिहास में थोड़ा पीछे जाकर देखें तो पता चलता है कि श्रीअन्न की उपस्थिति सिंधु घाटी सभ्यता से ही देखने को मिलती है। लंबे समय तक ये मोटे अनाज भारतीय थाली का हिस्सा रहे हैं। बाजरा, ज्वार, कोदो, साँवा, रागी जैसे परंपरागत मोटे अनाज ऐतिहासिक तौर पर भारतीय भोजन का प्रमुख हिस्सा रहे हैं।
ये अनाज पौष्टिकता की दृष्टि से न केवल सर्वोत्तम हैं बल्कि कृषि की हमारी परंपरा के अनुरूप हैं। हाँ, समय के साथ इसे भारतीय थालियों से दूर ले जाया गया पर उसकी चर्चा बाद में की जाएगी। फिलहाल मिलेट्स और इसकी महत्ता पर बात की जानी चाहिए आखिर निकट भविष्य में ये भारत को संभवत विश्व में नया स्थान दिलवाने वाले हैं।
मोटे अनाज को बढ़ावा देने का अर्थ होगा की भारत अपनी पारंपरिक खाद्य परंपराओं को अपना रहा है। पर इससे भी महत्वपूर्ण है मिलेट्स के प्राकृतिक, आर्थिक एवं स्वास्थ्य संबंधी गुण। मिलेट्स लंबे समय तक भारत की कृषि का हिस्सा रहे हैं और इसकी कई प्रकार की किस्में यहाँ उगाई जाती थी। वर्तमान में भी 130 देशों में मिलेट्स की खेती की जाती है और एशिया एवं अफ्रीका के 50 करोड़ से अधिक लोग उपभोग करते हैं।
श्रीअन्न: ताकि ‘गरीब के अनाज’ से भरे हर भारतीय का पेट
देश का आज बड़ा हिस्सा गेहूं और चावल पर निर्भर है पर ये फसलें किसान के लिए महंगी होने के साथ ही थाली में से पोषक तत्व भी समाप्त कर रही है। मिलेट्स की खेती गेहूं के विपरीत सूखे की परिस्थितियों में भी आसानी से की जा सकती है। इसमें पानी की खपत बेहद कम होती है। साथ ही गेहूं की खेती से कृषि भूमि की उर्वरता कम होती हैं जबकि मिलेट्स की कृषि से भूमि उपजाऊ होती है। साथ ही गेहूं की खेती में रसायनों का उपयोग किया जाता है जबकि मिलेट्स तो विपरीत परिस्थितियों में आसानी से उत्पादित होते हैं।
ऐसे में मिलेट्स की खेती का सबसे अधिक फायदा किसानों को मिलने वाला है। कृषि से जुड़े इसके फायदों और उसमें निहित पौष्टिक तत्वों के कारण ही इसे ‘सुपर फूड’ भी कहा गया है। देश में मिलेट्स का सबसे अधिक उत्पादन राजस्थान में होता है। जाहिर है रेगिस्तानी क्षेत्र में इनकी खेती इतनी आसान है तो कृषि योग्य क्षेत्रों में इसकी पैदावार से किसान लाभान्वित होंगे ही।
किसानों की आय दोगुना करने का जो लक्ष्य सरकार द्वारा रखा गया है, उसकी सफलता में मिलेट्स की खेती का बड़ा योगदान हो सकता है। कम संसाधनों और विपरित प्राकृतिक परिस्थितियों में भी इनकी खेती से बड़ी पैदावार की जा सकती हैं। ज्ञात हो कि देश वर्तमान में भी दुनिया में मोटे अनाज का सबसे बड़ा उत्पादनकर्ता है।
किसानों के साथ ही मिलेट्स खाने वालों के लिए भी फायदेमंद है। मिलेट्स को ‘पोषण का पावर हाउस’ कहा जाता है। गेहूं और चावल मानव शरीर के लिए गरिष्ठ होते हैं जबकि श्रीअन्न हल्का एवं स्वास्थ्यवर्धक होता है। कृषि मंत्रालय द्वारा मिलेट्स को पोषक अनाज घोषित किया गया था। बाजरे में गेहूं की तुलना में 6 गुना अधिक फाइबर होता है। साथ ही इनके अंदर 7-12% प्रोटीन, 2-5% वसा, 65-75% कार्बोहाइड्रेट, 15-20% आहार फाइबर होते हैं। जाहिर है, ये पोषक तत्व थाली का हिस्सा होंगे तो कुपोषण, एनीमिया और खाद्य सुरक्षा की समस्याओं से नहीं जूझना पड़ेगा।
किसान सम्मान निधि या न्यूनतम समर्थन मूल्य, भारतीय किसानों के हित में क्या है?
भारत में कुपोषण एक भयावह सच्चाई है। बच्चों से लेकर गर्भवती महिलाएं एनीमिया का शिकार हैं। भारत कृषि प्रधान देश होने के बावजूद जनमानस की थाली तक आवश्यक पोषण पहुंचाने में अभी तक नाकाम रहा है क्योंकि हमारी थाली से मिलेट्स गायब हो गए हैं। ये समस्या शहरी क्षेत्रों में अधिक देखने को मिलती है जहां गेहूं और चावल को कॉर्मशियलाइज कर दिया गया है।
औपनिवेशिक काल से ही हमारी परंपरागत कृषि को भारी क्षति पहुँची क्योंकि अंग्रेजों द्वारा सस्ती ब्रेड के उत्पादन के लिए भारतीय कृषि परंपराओं का ही नाश कर दिया गया। मिलेट्स की जगह गेहूं को दे दी गई। स्वतंत्रता के बाद भी भारत में खाद्य की कमी की बात सामने आई तो ये कमी गेहूं के उत्पादन से पूरी करने की कोशिश की गई न कि मिलेट्स से।
खैर, अमेरिका से PL 480 योजना के तहत गेहूं लिया गया। बाद में हरित क्रांति के नाम पर एमएस स्वामीनाथन एवं नॉर्मन बोरलॉग ने गेहूं और चावल का प्रमोशन किया। क्रांति और उत्पादन के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए गेहूं का रासायनिक करण किया गया। जिन बीजों की ब्रीडिंग हरित क्रांति के दोनों वाहकों द्वारा की गई, वो बीज पर्याप्त रासायनिक उर्वरकों और पानी की खुराक के बिना उत्पादित ही नहीं होते थे।
ऐसे में न सिर्फ भारतीय थाली से पोषण से भरपूर मिलेट्स गायब हो गए बल्कि उनकी जगह रसायनयुक्त अनाज ने ले ली। ऐसे में किस प्रकार देश में कुपोषण को मिटाया जा सकता था और कैसे खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित की जा सकती थी।
सरकार द्वारा गेहूं और चावल को बढ़ावा देने के लिए उस समय सब्सिडी का सहारा लिया गया। जाहिर है किसान सब्सिडी मिलने वाली फसल का ही उत्पादन करेंगे और इसका परिणाम ये रहा कि 1968 में 55.6 मिलियन हेक्टेयर के उच्च स्तर से मोटे अनाज और चने का रकबा लगातार गिरते हुए 2006 में मात्र 28 मिलियन हेक्टेयर पर पहुँच गया। ये सब देश को आत्मनिर्भर बनाने के नाम पर किया गया पर गेहूं के विकास और उत्पादन की कोशिशों ने अन्य मोटे अनाज को लगभग खत्म कर दिया।
ऐसे में प्रश्न यह उठता है कि देश आत्मनिर्भर हुआ या उसकी आत्मनिर्भरता चली गई?
अकेले गेहूं के दम पर भारत को खाद्य सुरक्षा दिलाने के दावे करने वाले वैज्ञानिकों और बुद्धिजीवियों ने तथ्यों को दरकिनार कर दिया। प्रश्न यह भी उठता है कि अगर भारत में हरित क्रांति के बाद अनाज उत्पादन में 1000 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई तो देश अभी तक कुपोषण, कृषि समस्याओं एवं खाद्य सुरक्षा से क्यों जूझ रहा है?
इस तरह के नैरेटिव का विश्वास आज भी विद्यमान है तो वो केमिकल एवं बीज कंपनियों, बिजली के औजारों और यंत्रीकृत उपकरणों के निर्माताओं में ही है जिन्हें इसका सबसे अधिक फायदा मिला है। जाहिर तौर पर हरित क्रांति की शैली ने देश में कृषि भूमि की दीर्घकालिक उर्वरता को बहुत कम कर दिया है। रसायनों के कारण देश आज न केवल स्वास्थ्य समस्याओं का सामना कर रहा है बल्कि किसानों में कर्ज का जाल भी बढ़ा है।
देश को आज आत्मनिर्भर बनना है तो मिलेट्स को बढ़ावा देना होगा। थाली में मिलेट्स की उपस्थिति स्वास्थ्य ही नहीं किसान की समृद्धि भी सुनिश्चित करेगी। वित्त मंत्री द्वारा भी बजट भाषण में भारत में बाजरा को बढ़ावा देने के लिए प्रयास करने की बात कही गई। सरकार द्वारा मिलेट्स से संबंधित कई योजनाएं चलाई जा रही है। इनसे जुड़े स्टार्टअप्स को भी बढ़ावा दिया जा रहा है। साथ ही ये सुनिश्चित किया जा रहा है कि मोटे अनाज की खेती कर रहे किसानों को नुकसान न उठाना पड़े। इनके प्रति जागरूकता बढ़ाने के लिए देश-विदेश में रोड शो जैसे कार्यक्रमों का आयोजन किया जा रहा है।
मूल बात तो यह है कि दुनिया में मिलेट्स को बढ़ावा देने के साथ ही देश अपनी जड़ों की ओर लौट रहा है। मोटा अनाज एक बार फिर हमारी थाली का हिस्सा बने, इसके लिए सरकार द्वारा प्रयास किए जा रहे हैं। स्वतंत्रता के बाद से देश ने बहुत सी क्रांतियां देखी है और जाहिर है कि देश का जनमानस इस मिलेट क्रांति को भी सफल बनाने में सक्षम है क्योंकि ये शुद्ध आत्मनिर्भरता की ओर एक और कदम है।