भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को सम्पूर्ण राष्ट्र गणेश पूजन के माध्यम से राष्ट्र नायक के प्रति अपनी श्रद्धा समर्पित करता है। आज गणेश चतुर्थी अत्यन्त धूम धाम और भव्यता से भारत के अधिकांश हिस्सों में मनाई जाती हो परन्तु यह सत्य है कि समय के एक काल खंड में यह जापान, चीन, कंबोडिया, इंडोनेशिया, थाईलैंड, मलाया और सुदूर मैक्सिको तक में इसका प्रचलन था।
इन देशों में बहुतायत से वर्तमान में भी गणेश प्रतिमाओं का उपलब्ध होना इस बात का प्रमाण है कि गणेश पूजा को विश्व व्यापी मान्यता प्राप्त थी और उन्हें गणराज्य के अध्यक्ष के रूप में स्वीकार किया जाता था। संसार भर में गणपति से अच्छा शुभंकर अभी तक नहीं हुआ, और भविष्य में कभी इस शुभंकर का अतिक्रमण हो सकेगा, इसकी कोई सम्भावना नहीं है।
गणपति का मंगलमूर्ति और विघ्नहर्ता वाला स्वरूप केवल सनातन धर्मावलम्बियों को ही नहीं, अपितु उन सब को भी सुहाता है जो कर्म में जुते हुए हैं, और अपने मानस में श्रद्धा और विश्वास को स्थापित कर निर्भय हो जाना चाहते हैं। गणपति वक्रतुण्ड हैं, लम्बोदर हैं, शूर्पकर्ण हैं, एकदन्त हैं, इसीलिए तो वे अभिराम हैं और विलक्षण हैं।
वे यक्ष की प्राचीन मूर्ति-परम्परा के साथ चलते-चलते आज जहाँ खड़े हैं, वह आर्यों की महान् सांस्कृतिक यात्रा का एक पड़ाव है, क्योंकि गणपति हमेशा भविष्य के द्वार खोलते रहने वाले देवता है, इसलिए सुदूर भविष्य में भी उन्हें चलते चले जाना है। गणपति गणेश अथवा विनायक सभी शब्दों का अर्थ है देवताओं का स्वामी अथवा अग्रणी।
वेदों में ‘नमो गणेभ्यो गणपतिभ्वयश्चवो नमो नम:’ अर्थात गणों और गणों के स्वामी श्री गणेश को नमस्कार। इस संदर्भ में हिन्दू शास्त्रों और धर्म ग्रन्थों में अनेकानेक कथाएँ प्रचलित हैं। विभिन्न स्थानों पर गणेश जी के अलग अलग रूपों का वर्णन है परन्तु सब जगह एक मत से गणेश जी की विघ्नकारी शक्ति को स्वीकार किया गया है।
गणेश चतुर्थी के उत्सव पर पूजा प्रारंभ होने की सही तीथि किसी को ज्ञात नहीं है, हालांकि इतिहास के अनुसार, यह अनुमान लगाया गया है कि गणेश चतुर्थी 1630-1680 के दौरान छत्रपति शिवाजी (मराठा साम्राज्य के संस्थापक) के समय में एक सार्वजनिक समारोह के रूप में मनाया जाता था। शिवाजी के समय, यह गणेशोत्सव उनके साम्राज्य के कुलदेवता के रूप में नियमित रूप से मनाना शुरू किया गया था।
पेशवाओं के अंत के बाद, यह एक पारिवारिक उत्सव बना रहा, यह 1893 में बाल गंगाधर लोकमान्य तिलक ( भारतीय स्वतंत्रता सेनानी और समाज सुधारक) द्वारा पुनर्जीवित किया गया। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने गणोत्सव को जो स्वरूप दिया उससे गणेश राष्ट्रीय एकता के प्रतीक बन गये। इस वर्ष “आजाद का अमृत महोत्सव” में गणेशोत्सव का महत्व ओर बढ़ जाता है।
तिलक के प्रयास से पहले गणेश पूजा परिवार तक ही सीमित थी। पूजा को सार्वजनिक महोत्सव का रूप देते समय उसे केवल धार्मिक कर्मकांड तक ही सीमित नहीं रखा, बल्कि आजादी की लड़ाई, छुआछूत दूर करने और समाज को संगठित करने तथा आम आदमी का ज्ञानवर्धन करने का उसे माध्यम बनाया और उसे एक आंदोलन का स्वरूप दिया।
इस आंदोलन ने ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिलाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। यहां भारतीय स्वंतत्रता में सांस्कृतिक आंदोलन की महत्वपूर्ण भूमिका रही। गणेश जी की प्रतिष्ठा सम्पूर्ण भारत में समान रूप में व्याप्त है। महाराष्ट्र इसे मंगलकारी देवता के रूप में व मंगलपूर्ति के नाम से पूजता है। दक्षिण भारत में इनकी विशेष लोकप्रियता ‘कला शिरोमणि’ के रूप में है।मैसूर तथा तंजौर के मंदिरों में गणेश की नृत्य-मुद्रा में अनेक मनमोहक प्रतिमाएं हैं।
वर्तमान में गणेश उत्सव दस दिनों तक मनाया जाता है। उत्सव के प्रतिदिन अलग अलग सांस्कृतिक आयोजन उत्सव समितियाँ करवाती है। जिसमें वाद विवाद प्रतियोगिता, कवि सम्मेलन, भाषण, लोकगीत, नृत्य, नाटक, संगीत, चित्रकला आदि आयोजन समाज में सांस्कृतिक एकता व स्वच्छ मनोरंजन का कार्य करते हैं।
बचपन में हम बड़े उत्साह से गणेश जी की मूर्ति लाने व गणेशोत्सव आयोजन के लिए सभी से चंदा मांगते थे। वर्तमान में यह महोत्सव आधुनिकता के कारण बहुत कुछ बदल गया है। आज बनाई जा रही गणेश मूर्तियां पर्यावरण के अनुकूल नहीं है, उस ओर भी ध्यान देने की जरूरत है।
स्वतंत्रता संग्राम और गणेशोत्सव
विनायक दामोदर सावरकर और कवि गोविंद ने नासिक में ‘मित्रमेला’ संस्था बनाई थी। इस संस्था का काम था देशभक्तिपूर्ण पोवाडे (मराठी लोकगीतों का एक प्रकार) आकर्षक ढंग से बोलकर सुनाना। इस संस्था के पोवाडों ने पश्चिमी महाराष्ट्र में धूम मचा दी थी। कवि गोविंद को सुनने के लिए लोग उमड़ पड़ते थे।
राम-रावण कथा के आधार पर वे लोगों में देशभक्ति का भाव जगाने में सफल होते थे। उनके बारे में वीर सावरकर ने लिखा है कि कवि गोविंद अपनी कविता की अमर छाप जनमानस पर छोड़ जाते थे। गणेशोत्सव का उपयोग स्वतंत्रता की लड़ाई के लिए किए जाने की बात पूरे महाराष्ट्र में फैल गयी।
बाद में नागपुर, वर्धा, अमरावती आदि नगरों में भी गणेशोत्सव ने स्वंतत्रता का नया ही आंदोलन छेड़ दिया था। अंग्रेज भी इससे घबरा गये थे। इस बारे में रोलेट समिति रपट में भी चिंता जताई गई थी। रपट में कहा गया था “गणेशोत्सव के दौरान युवकों की टोलियां सड़कों पर घूम-घूम कर अंग्रेजी शासन विरोधी गीत गाती हैं व स्कूली बच्चे पर्चे बांटते हैं। जिसमें अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ हथियार उठाने और मराठों से शिवाजी की तरह विद्रोह करने का आह्वान होता है।
साथ ही, अंग्रेजी सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिए धार्मिक संघर्ष को जरूरी बताया जाता है।” गणेशोत्सवों में भाषण देने वाले में प्रमुख राष्ट्रीय नेता थे – वीर सावकर, लोकमान्य तिलक, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, बैरिस्टर जयकर, रेंगलर परांजपे, पंडित मदन मोहन मालवीय, मौलिकचंद्र शर्मा, बैरिस्ट चक्रवर्ती, दादासाहेब खापर्डे और सरोजनी नायडू।
गणेश जी को यदि गणपति अर्थात किसी राज्य का राजा मान कर विश्लेषण किया जाए तो किसी शासक के अच्छे लक्षण स्पष्ट दिखाई देने लगेंगे। गणेश जी गज मस्तक हैं अर्थात वह बुद्धि के देवता हैं। वे विवेकशील हैं। उनकी स्मरण शक्ति अत्यन्त कुशाग्र है। हाथी की भ्रांति उनकी प्रवृत्ति प्रेरणा का उद्गम स्थान धीर, गंभीर, शांत और स्थिर चेतना में है।
हाथी की आंखें अपेक्षाकृत बहुत छोटी होती हैं और उन आँखों के भावों को समझ पाना बहुत कठिन होता है। शासक भी वही सफल होता है जिसके मनोभावों को पढ़ा और समझा न जा सके। आंखों के माध्यम से मन के भावों को समझना सुगम होता है। यदि शासक की आँखें छोटी होंगी तो उसके भावों को जान पाना उतना ही कठिन होगा। इस प्रकार अच्छा शासक वही होता है जो दूसरों के मन को तो अच्छी तरह से पढ़ ले परन्तु उसके मन को कोई न समझ सके।
गणेश जी को प्रथम लिपिकार माना जाता है उन्होंने ही देवताओं की प्रार्थना पर वेद व्यास जी द्वारा रचित महाभारत को लिपिबद्ध किया था। जैन एवं बौद्ध धर्मों में भी गणेश पूजा का विधान है। गणेश को हिन्दू संस्कृति में आदि देव(प्रथम पूज्य) भी माना गया है। अनंतकाल से अनेक नामों से गणेश दुख, भय, चिन्ता इत्यादि विघ्न के हरणकर्ता के रूप में पूजित होकर मानवों का संताप हरते रहे हैं।
वर्तमान काल में स्वतंत्रता की रक्षा, राष्ट्रीय चेतना, भावनात्मक एकता और अखंडता की रक्षा के लिए गणेश जी की पूजा और गणेश चतुर्थी के पर्व का उत्साह पूर्वक मनाने का अपना विशेष महत्व है। भारत में दस दिनों तक चलने वाले श्री गणेशोत्सव का राष्ट्रीय एकता व अखंडता में महत्वपूर्ण स्थान है।
गणेश जी ने उत्तर-दक्षिण और पूरब-पश्चिम की संस्कृति को आपस में मिलाने का अद्भुत काम किया। हमारे देश को स्वतंत्रता दिलाने के लिये जब समाज के संगठन की आवश्यकता महसूस की गई, तब बाल गंगाधर तिलक को गणेश जी से बड़ा कोई पुरोधा, कोई लोकदेवता नहीं मिला।
तिलक जी ने गणेशोत्सव मनाने की जो राष्ट्रीय परम्परा एक बार डाल दी, वह सौ बरस पूरे होने के बाद भी चल रही है। जब तक गणेश जी पूजे जाते रहेंगे, तब तक हमारा लोक-जीवन विघ्नों को पार कर नये से नये युग में प्रवेश करने का सामर्थ्य जुटाता रहेगा।
यह लेख भूपेन्द्र भारतीय (ट्विटर: @AdvBhupendraSP) द्वारा लिखा गया है