सप्तशती के अष्टम अध्याय में निशुम्भ ने तब मूर्खता कर दी जब उसने अपनी तीखी तलवार और चमकती हुई ढाल लेकर देवी के श्रेष्ठ वाहन सिंह के सिर पर प्रहार किया। इससे अपने वाहन को चोट पहुँचती देखकर देवी को इतना क्रोध आया कि देवी ने अपने क्षुरप्र नामक बाण से तुरन्त निशुम्भ की तलवार काट डाली और उसकी अद्भुत ढाल जिसपर आठ चाँद जड़े हुए थे उसे खण्ड-खण्ड कर दिया। (- सप्तशती 9.11-12)
इसके बाद घोर युद्ध हुआ, पर देवी ने निशुम्भ के शूल, गदा और फरसे को भी विफल कर दिया और बाणों से उसे घायल करके जमीन पर गिरा दिया। इसके बाद शुम्भ ने बीच-बचाव किया पर भयंकर युद्ध के बीच देवी ने निशुम्भ का मस्तक तलवार से काटकर उसे यमलोक पहुँचा दिया।
सप्तशती में वर्णन है कि देवी को अपना वाहन सिंह बहुत प्रिय है जिसे वे चोट पहुँचते हुए नहीं देख सकतीं।
देवी के सिंह की गर्जना से डर जाते थे सभी शत्रु
सप्तशती के द्वितीय अध्याय में भगवती महिषासुर की सेना का वध करती हैं। यहाँ सिंह की वीरता बताई गई है और लिखा है, “राजन्य तेज से उद्दीप्त देवीवाहन सिंह क्रोध से भरा हुआ अपनी गर्दन के बालों को लहराता हुआ दुश्मन की सेनाओं में ऐसे विचरण करता मानो वनों में दावानल फैल रहा हो। तब सिंह की भयंकर गर्जना से दैत्यों के प्राण स्वतः ही निकल जाते थे।” (-सप्तशती 2.51, 2.68)
सिंह तुम्हें दूँ किसकी उपमा? तुम स्वयं प्रकट श्रेष्ठता!
महिषासुर वध वाले तृतीय अध्याय में जब चामर हाथी पर चढ़कर आया तब सिंह ने ही हाथी पर उछलकर चामर को नीचे गिराकर गर्दन मसलकर मार डाला था। (- सप्तशती 3.14-16)
श्री सप्तशती में देवी के वाहन सिंह ने निरन्तर अद्भुत पराक्रम दिखाया
सप्तशती के छठे अध्याय में आता है कि जब धूम्रलोचन और उसकी सेना ने देवी पर हमला किया तो,
“देवी का वाहन सिंह क्रोध में भरकर भयंकर गर्जना करके गर्दन के बालों को हिलाता हुआ असुरों की सेना में कूद पड़ा। उसने कुछ दैत्यों को पंजों की मार से, कितनों को अपने जबड़ों से और कितने ही महान राक्षसों को पटककर यम समान होठों की दाढ़ों से घायल करके मार डाला। उस सिंह ने अपने नाखूनों से कितनों के पेट फाड़ डाले और थप्पड़ मारकर कितनों के सिर धड़ से अलग कर दिये।
सिंह ने कितनों के ही भुजाएं और मस्तक काट डाले और अपनी गर्दन के बाल हिलाते हुए उसने बहुत से दैत्यों के पेट फाड़कर उनका रक्त पी लिया। अत्यंत क्रोध से भरे हुए देवी के वाहन महाबली सिंह ने थोड़े ही समय में असुरों की सारी सेना का संहार कर डाला।” (-सप्तशती 6.15-19)
सिंह की दहाड़ को घण्टे की ध्वनि से बढ़ा देती हैं देवी
सप्तशती के आठवें अध्याय में जब शुम्भ रक्तबीज आदि की विशाल सेना को देवी से लड़ने भेजता है तब, देवी चण्डिका युद्धघोष कर देती हैं तो उनका प्रिय शेर भी बड़ी जोर से दहाड़ता है, यह देखकर देवी अम्बिका भी घण्टे के शोर से सिंह की ध्वनि को और बढ़ा देती हैं जिससे सभी दिशाएं गूंज उठती हैं।” (- दुर्गासप्तशती 8.9)
हमारे परमवैभवशाली राष्ट्र की भी ऐसी ही गर्जना होनी चाहिए।
इससे अगले निशुम्भ वध के अध्याय में भी लिखा है कि “देवी के सिंह की दहाड़ से बड़े बड़े गजराजों का मद चूर चूर हो जाता था और आकाश पृथ्वी व दश दिशा गूँज जाती थीं।” गज और सिंह में है जन्म जन्म का वैर। “तब सिंह अपनी दाढ़ों से असुरों की गर्दनें मसलकर खाने लगा, यह बड़ा भयानक दृश्य था।” (- सप्तशती 9.21, 9.37)
जब उन गर्दनों से रक्त के झरने बहते थे तो सिंह का अभिषेक हो जाता था, तब लाल रंग का सिंह मृत्यु की दक्षिण दिशा जैसा कराल प्रतीत होता था।
सप्तशती में एक सिंह पर सवार देवी को दर्शाया गया है –
ददृशुस्ते ततो देवीमीषद्धासां व्यवस्थिताम्।
सिंहस्योपरि शैलेन्द्रशृंगे महति काञ्चने॥
– सप्तशती 7.2
उन्होंने स्वर्णमय पर्वत के शिखर पर जाज्ज्वल्यमान उद्दीप्त कान्ति से युक्त भगवती को सिंह के ऊपर बैठे हुए देखा जो बहुत ही हल्का सा मुस्कुरा रही थीं।
इसी को देवीभागवत में ऐसे कहा है –
ते तत्र ददृशुर्देवीं सिंहस्योपरि संस्थिताम् ।
अष्टादशभुजां दिव्यां खड्गखेटकधारिणीम्॥
यदि सप्तशती में देवी के सर्वाधिक प्रेम किसी ने पाया है तो वह सिंह ही है। हमारे देश में सिंह की जितनी महिमा है उतनी किसी की नहीं है। भगवान् विष्णु ने भी नरसिंह रूप में अवतार लिया था। जो राजस् तेज सिंह में है जिससे उसके अंग प्रत्यंग दमकते हैं वह कहीं और नहीं है। आज भारत में अमूमन तीन हज़ार बाघ हैं पर केवल 674 शेर हैं। क्यों?
देवी के साथ सिंह की भी की जाती है पूजा
सप्तशती के वैकृतिक रहस्य में कहा है कि देवी की प्रसन्नता के लिए देवी के दक्षिण भाग में रहने वाले उस देवीवाहन सिंह की पूजा करनी चाहिए जो समग्र धर्म का सार्वभौम प्रतीक है और चराचर जगत को धारण करता है।
दक्षिणे पुरतः सिंहं समग्रं धर्ममीश्वरम्।
वाहनं पूजयेद्देव्या धृतं येन चराचरम्॥
— वैकृतिकं रहस्यम्, 30-31
दुर्गा तंत्रशास्त्र में वनेन्द्र सिंह की स्तुति सर्वदेवमय रूप में की गयी है, सिंहस्तोत्र और उसका हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत है –
॥ देवीवाहन सिंह स्तोत्रम् ॥
ग्रीवायां मधुसूदनोऽस्य शिरसि श्रीनीलकण्ठः स्थितः
श्रीदेवी गिरिजा ललाटफलके वक्षःस्थले शारदा।
षड्-वक्त्रो मणिबन्धसंधिषु तथा नागास्तु पार्श्वस्थिताः
कर्णौ यस्य तु चाश्विनौ स भगवान् सिंहो ममास्त्विष्टदः ॥1॥
यन्नेत्रे शशि भास्करौ वसुकुलं दन्तेषु यस्य स्थितं
जिह्वायां वरुणस्तु हुंकृतिरियं श्रीचर्चिका चण्डिका ।
गण्डौ यक्ष यमौ तथौष्ठ युगलं सन्ध्याद्वयं पृष्ठके
वज्रोयस्य विराजते स भगवान सिंह ममास्त्विष्टदः ॥2॥
ग्रीवा सन्धिषु सप्तविंशति मितान्यृक्षाणि साध्या हृदि
प्रौढा निर्घृणता तमोऽस्य तु महाक्रौर्यै समा: पूतनाः ।
प्राणेयस्य तु मातरः पितृकुलं यस्यास्त्य-पानात्मकं
रूपे श्रीकमला कचेषु विमलास्ते स्युः रवे रश्मयः ॥3॥
मेरू: स्याद् वृषणेऽब्धयस्तु जनने स्वेदस्थिता निम्नगाः
लांगूले सहदेवतैर्विलसिता वेदा बलं वीर्यकम्।
श्रीविष्णोः सकलाः सुरा अपि यथास्थानं स्थितायस्य तु
श्री सिंहोऽखिल देवतामय वपुर्देवीप्रियः पातु माम् ॥4॥
यो बालग्रह पूतनादि भय हृद् यो पुत्रलक्ष्मी प्रदो
यः स्वप्न ज्वर रोगराजभय हृद् योऽमङ्गले मङ्गलः।
सर्वत्रोत्तमवर्णनेषु कविभिर्यस्योपमा दीयते
देव्या वाहनोऽशेष रोगभयहृत् सिंहो ममास्त्विष्टदः ॥5॥
सिंहस्त्वं हरिरूपोऽसि स्वयं विष्णुर्न संशयः।
पार्वत्या वाहनस्त्वं ह्यतः पूजयामि त्वामहम् ॥6॥
॥ इति श्री सिंह स्त्रोतम्॥
जिनकी ग्रीवा में भगवान् चक्रधारी मधुसूदन स्थित हैं और शिर में भगवान् पिनाकपाणि नीलकण्ठ स्थित हैं, विस्तृत भाल पर गिरिराजकिशोरी गिरिजा स्थित हैं और वक्षस्थल पर देवी सरस्वती विराजमाना हैं, जिनके मणिबन्ध (कलाई) में छह मुखों वाले कार्तिकेय शोभा पा रहे हैं, जिनके पृष्ठभाग में नागों का वास है और जिनके दोनों कानों में दोनों अश्विनीकुमारों का वास है, ऐसे भगवान् सिंहदेव मेरा अभीष्ट प्रदान करनेवाला होवें। (1)
जिन वनकेसरी भगवान् सिंह के दोनों नेत्र सूर्य और चन्द्र हैं, जिनके दांतों में वसुओं का वास है, जिह्वा पर वरुण का वास है, जिनकी हुंकार चर्चिका और चण्डिका देवी हैं, जिनके दोनों गण्डस्थल यक्ष और यम हैं, दोनों होठ दोनों सन्ध्याएँ हैं और जिनके पृष्ठभाग में वज्र विराजमान है, वे भगवान् सिंहदेव मेरा अभीष्ट प्रदान करनेवाला होवें। (2)
जिनकी गर्दन की सन्धियों में सत्ताईस नक्षत्र हैं, जिनके हृदयमें साध्य-देवगण हैं, जिनकी तमोवस्था प्रौढ निर्दयता है, महाक्रूरता में पूतनाएँ जिनकी उपमाएँ हैं, जिनके प्राण में मातृकुल और अपान में पितृकुल है, जिनके रूपमें श्रीलक्ष्मी हैं, बालों में विमल रविरश्मियाँ हैं, (3)
जिनके वृषण में मेरु पर्वत है, लिंग में सागरसमूह हैं, स्वेद में नदियाँ स्थित हैं, पूँछ में सभी देवताओं के साथ सभी वेद और बल-वीर्य स्थित हैं, श्रीविष्णु के सभी देवतागण भी यथास्थान जिनके अंगों में स्थित हैं, ऐसे सर्वदेवतामय शरीरवाले देवीप्रिय श्रीसिंह मेरी रक्षा करें। (4)
जो बालग्रह पूतनादिके भयका हरण करने वाले हैं, जो पुत्र-लक्ष्मीके प्रदाता हैं, जो स्वप्नगत भय तथा ज्वर और अन्य महारोगोंके भय का हरण करनेवाले हैं, जो अमंगल में भी मंगलस्वरूप हैं, उत्तम वर्णनों में कविगण सर्वत्र जिनकी उपमा प्रदान करते हैं, हे देवीके वाहन! सकल रोगों के हर्ता श्रीसिंह मेरा अभीष्ट प्रदान करनेवाले होवें। (5)
श्रीसिंह, आप हरिरूप हैं, निःसन्देह स्वयं विष्णु हैं, पार्वतीके वाहन हैं, अतः मैं आपकी पूजा करता हूँ। (6)
सन्दर्भ
निशुम्भो निशितं खड्गं चर्म चादाय सुप्रभम्।
अताडयन्मूर्ध्नि सिंहं देव्या वाहनमुत्तमम्॥११॥
ताडिते वाहने देवी क्षुरप्रेणासिमुत्तमम्।
निशुम्भस्याशु चिच्छेद चर्म चाप्यष्टचन्द्रकम्॥१२॥
– दुर्गासप्तशती ९.११-१२
सोsपि क्रुद्धो धुतसटो देव्या वाहनकेसरी।
चचारासुरसैन्येषु वनेष्विव हुताशनः ॥
स च सिंहो महानादमुत्सृजन्धुतकेसरः।
शरीरेभ्योsमरारीणामसूनिव विचिन्वति ॥
– दुर्गासप्तशती २.५१, २.६८
ततः सिंहः समुत्पत्य गजकुम्भान्तरे स्थितः।
बाहुयुद्धेन युयुधे तेनोच्चैस्त्रिदशारिणा ॥
युध्यमानौ ततस्तौ तु तस्मान्नागान्महीं गतौ।
युयुधातेsतिसंरब्धौ प्रहारैरतिदारुणैः॥
ततो वेगात् खमुत्पत्य निपत्य च मृगारिणा।
करप्रहारेण शिरश्चामरस्य पृथक्कृतम्॥
– दुर्गासप्तशती ३.१४-१६
ततो धुतसटः कोपात् कृत्वा नादं सुभैरवम् ।
पपातासुरसेनायां सिंहो देव्याः स्ववाहनः॥
कांश्चित् करप्रहारेण दैत्यानास्येन चापरान् ।
आक्रम्य चाधरेणान्यान् स जघान महासुरान्॥
केषाञ्चित्पाटयामास नखैःकोष्ठानि केसरी।
तथा तलप्रहारेण शिरांसि कृतवान् पृथक्॥
विच्छिन्नबाहुशिरसः कृतास्तेन तथापरे ।
पपौ च रुधिरं कोष्ठादन्येषां धुतकेसरः॥
क्षणेन तद्बलं सर्वं क्षयं नीतं महात्मना ।
तेन केसरिणा देव्या वाहनेनातिकोपिना॥
– दुर्गासप्तशती ६.१५-१९
ततः सिंहो महानादमतीव कृतवान् नृप।
घण्टास्वनेन तन्नादमम्बिका चोपबृंहयत्॥
– दुर्गासप्तशती ८.९
ततो सिंहो महानादैस्त्याजितेभमहामदैः।
पूरयामास गगनं गां तथैव दिशो दश ॥
ततः सिंहश्चखादोग्रं द्रंष्ट्राक्षुण्णशिरोधरान्।
असुरांस्तांस्तथा काली शिवदूती तथापरान्॥
– दुर्गासप्तशती ९.२१, ९.३७
सप्तशती सिखाती है अपराध और अपराधियों के अंत पर प्रसन्न होना