सन् 1947, 14 अगस्त की संध्या को, गोधूली के पश्चात, भारत में दो संन्यासी एक कार में भीड़ भरी दिल्ली की सड़कों से होते हुए गुज़र रही थी। खुली हुई देह, माथे पर भभूत और लंबे केशधारी साधुओं के पास तीन वस्तुएँ थीं- एक बांस का पंखा, एक कमंडल और एक व्याघ्र चर्म। फोर्ड 1937 टैक्सी में बैठे दो सन्यासियों में से एक के पास थी एक बड़ी सी चाँदी की थाली, और उस पर सलीक़े से रखा हुआ सुनहरी किनारों वाला पीतांबर।
दूसरे संन्यासी के हाथ में था एक पाँच फुट लंबा दंड, तंजावुर की नदी के पवित्र जल से भरा कमंडल, एक पवित्र भस्म से भरा बटुआ, और मद्रास में भगवान महादेव को चढ़ाया गया चावल। 17 यॉर्क रोड (अब मोतीलाल नेहरू मार्ग) में भारत का भावी प्रधानमंत्री उनकी प्रतीक्षा में था। भारत में धार्मिक गुरुओं के द्वारा सम्राटों के अभिषेक की परंपरा रही है, इसी परंपरा में आज आधुनिक भारत के नेता का धार्मिक अभिषेक था। सन्यासियों ने नेहरू के ऊपर पवित्र जल छिड़का, माथे पर पवित्र भभूत मला और उनकी देह पर पवित्र वस्त्र ओढ़ाया।
नेहरू के हाथों में सत्ता के नैतिक हस्तांतरण और स्थिर एवं न्यायसंगत शासन के सूचक के रूप में मद्रास से लाया गया, शिव के आशीर्वाद रूप में पवित्र धर्म-दंड अर्थात् तमिल भाषा में चोल काल से चला आ रहा परम्परागत संगोल दिया गया। जो व्यक्ति सार्वजनिक रूप से धर्म को वह शब्द मानता था जिसके उच्चारण मात्र से उसे भय हो जाता था, उसके लिए यह प्रक्रिया परेशान करने वाली थी।
परंतु इस अवसर पर उन्होंने भी इस धार्मिक अनुष्ठान को प्रसन्न नम्रता के साथ स्वीकार किया। संभवतः भविष्य की चुनौतियों से विजय पाने के लिए एक नवोदित राष्ट्र को जिस दैवी अनुकंपा की आवश्यकता होगी, उसकी आवश्यकता को पंडित नेहरू ने भी स्वीकार किया। रात दस बजे के बाद, माथे से पवित्र भभूत धोने के तुरंत बाद लाहौर से फ़ोन आया जिस से नेहरू को सूचना मिली लाहौर के हिंदू -सिख क्षेत्रों की पानी की आपूर्ति बंद कर दी गई है और पानी के लिये निकलने वाले बच्चों और स्त्रियों की निर्मम हत्या हो रही है।

17 यॉर्क रोड से कुछ दूर, मध्य रात्रि के समय, डॉ राजेंद्र प्रसाद अपने आवास के उद्यान में हवन की अग्नि के समक्ष बैठे थे। एक पवित्र अग्नि के निकट, संविधान समिति के अध्यक्ष एवं भारत के भावी प्रथम राष्ट्रपति, आज्ञाकारी यजमान की भाँति, ब्राह्मण के वैदिक मंत्रोच्चार को उनके पीछे पीछे पढ़ रहे थे।
पवित्र मंत्र ध्वनि दग्ध, दुखी विभाजित भारत की आत्मा को मानो ठंडक और प्रकाश दोनों देने का प्रयास कर रही थी, जब मध्यरात्रि को वातावरण में सुनाई देता था – ओम् अग्निमील पुरोहितं यज्ञस्य देवामृत्विजम होताराम रत्नाधातमम।। (ऋग्वेद- मैं उस अग्नि का आह्वाहन एवं उसकी प्रार्थना करता हूँ, जो (अग्नि) जीवन में प्रकाश का स्रोत है, सर्वश्रेष्ठ प्रेरणादायक एवं मार्गदर्शक है, जो अंतरिक्षीय संतुलन का साधक है, प्राकृतिक विकास का सहायक है, और समस्त संपन्नता का दाता है)।
जैसे जैसे वैदिक मंत्रों का पाठन आगे बढ़ा, वैसे ही स्वतंत्र भारत के प्रथम मन्त्रिमण्डल के मंत्री मानो पवित्र यज्ञ की अग्नि के आकर्षण से बंधे एक एक कर आ कर हवन में बैठते गये। एक महिला आगंतुकों के मस्तक पर गंगा के पवित्र जल के छिड़काव के साथ पवित्र तिलक का चिन्ह अंकित करती जा रही थी। और इस प्रकार सनातनी पवित्र विधि विधान से पार कर के स्वतंत्र भारत के निर्माता एक पुनर्निर्मित राष्ट्र के स्वागत हेतु संविधान सभा में एकत्रित हुए। मध्यरात्रि पर प्रधानमंत्री नेहरू का प्रसिद्ध ‘भाग्य के साथ मेल’ का भाषण समाप्त हुआ और शंख ध्वनि के साथ बाहर सहसा हुई वर्षा के स्वर जुड़ गये।
लैरी कॉलिन्स तथा डोमिनिक लेपियर की पुस्तक ‘फ्रीडम ऐट मिडनाइट’ पर आधारित यह अंश स्पष्ट करता है कि किन आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों के मध्य एक आशान्वित भारत ने अपनी स्वतंत्रता-उपरांत की यात्रा प्रारंभ की। साथ ही यह भी दिखता है कि कैसे सत्ता-लोलुप राजनीति ने एक इस्लामिक देश के निर्माण के विभाजक दंश से जूझते देश के उस भारत के सांस्कृतिक चिन्हों को पीछे ऐसा धकेला कि तमिलनाडु से आया धर्मदंड नेहरू की सैर की छड़ी बना के संग्रहालय पहुँच गई।
इस्लामिक कट्टरता से घायल भारत माता अपनी भुजा के विखंडन के पश्चात वैदिक सनातन की गोद की सुरक्षा में अपनी संतानों को रख कर उस घाव को भरने का प्रयास करेगी, यह तो सहज ही था। जिस भारत के नेतृत्व ने 1947 में वैदिक मंत्रोच्चार के मध्य भारत के निर्माण का प्रण लिया था, उन्हीं मंत्रों की ध्वनि को उसी भारत में अल्पसंख्यक तुष्टिकरण की नीति के कारण मौन कर दिया गया।
अपने मूल्यों के ऐसे ह्रास का ही परिणाम हुआ की भारत को ऐसे सांसद भी देखने पड़े जो वन्दे मातरम् जैसे राष्ट्रभक्ति के ओजस्वी आह्वान को भी अपनी धर्मांन्धता के कारण स्वीकार नहीं कर सकते हैं। एक सुनियोजित राजनैतिक साज़िश ने उस सोच को पोषण दिया जिसने भारत का विभाजन किया और एक कुटिल मौन के माध्यम से उस हिंदुत्व को लज्जा का सूचक बना दिया जिसने एक झुलसे हुए भारत की दग्ध आत्मा पर शांति का फ़ाहा रखा।
भारत में स्वेच्छा से रुके तजम्मुल हुसैन जैसे संविधान समिति के सदस्य भारतीय मुसलमानों ने भारत की हिंदू संस्कृति पर ना सिर्फ़ विश्वास प्रदर्शित किया, वरन् उसपे गर्व करते हुए हुए अल्पसंख्यकवाद को सिरे से नकार दिया। यह भारत का दुर्भाग्य है कि आज जब भारत के उस शताब्दी पुराने सांस्कृतिक गौरव को पुनर्जीवित किया जा रहा है, राजनैतिक दल अपना ही स्वातंत्र्य का इतिहास भूला कर विभंजनकारी विचारों के माध्यम से सत्ता में लौटने का मार्ग ढूँढ रहे हैं।
संगोल अथवा धर्म दंड की ऊपर नंदी की आकृति अंकित है। नंदी स्थिरता एवं स्वार्थहीन सेवा के सूचक हैं। एक शासक जो उस ऋग्वेदिक संस्कृति की परंपरा से आता हो, जहाँ राजा भी शासन सभा एवं समिति के मार्गदर्शन में करता हो, ऐसे आदर्श अपने आप में अलग ही अर्थ रखता है।
धर्मदंड शासक को देवरूप मान कर भी शक्ति को व्यक्ति से इतर स्थापित करता है। मनुस्मृति कहती है –
दण्डः शास्ति प्रजा: सर्वादंड एवाभिरक्षति।
दण्डः सुप्तेषु जागर्ति दण्डम धर्मम् विदुर्बुधा: ।।
(वस्तुतः दण्ड ही समस्त प्रजा पर शासन करता है, दण्ड ही प्रजा की रक्षा करता है, जब प्रजा निद्रा में लीन होती है, तब दण्ड ही जागता है, और इस प्रकार दण्ड ही राजा के धर्म का प्रकट स्वरूप है।)
सत्ता को व्यक्ति से इतर, शासक को धर्म के नीचे मानना ही भारत की सभ्यता के मूल में लोकतंत्र को डालता है, और यही धार्मिक मूल है जो भारत को धार्मिक रखते हुए भी सभी धर्म और वादों को सत्ता के लिए स्वीकार्य बनाता है। ऋग्वेद का श्लोक कहता है-
समाना मंत्र: समिति: समानी समानम मनः सहचित्तमेषम
समानम् मन्त्रमभि मन्त्राय व: समानेन वो हविषा जुहामि।।
(तुम्हारा प्रेरक हो एक एवं समान, तुम्हारी सभा हो सम एवं समान, तुम्हारा चित्त एक दिशा में हो, तुम्हें जीविकोपार्जन के समान साधन उपलब्ध हों, आप सबको समान मंत्रों का लाभ हो।)
भारत का हिंदू संविधान के कारण धर्म निरपेक्ष नहीं है, भारत का संविधान हिंदू संस्कृति का कारण धर्मनिरपेक्ष है। हमारी धर्मनिरपेक्षता हमारे धर्म में अनर्निहित है और उसकी रक्षा के लिए धर्म की राजनीति में प्रधानता आवश्यक है। जब पारसी और यहूदी भारत की शरण में आये थे तो भारत में संविधान नहीं था, परंतु धर्म था। सेंगोल उसी राजधर्म का मूर्तरूप है। यह दंड सत्ता की उस शांतिपूर्ण निरंतरता का भी सूचक है जिसका नितांत अभाव हम भारत के उस भाग में देखते हैं जिसने हिंदू धर्म से दूर होने के लिए भारत का विभाजन करवाया।
आज जहाँ भारत अपनी सदियों की धार्मिक एवं सांस्कृतिक परम्परा के आधार पर एक परिपक्व लोकतंत्र की भाँति लोकतांत्रिक सत्ता की निरंतरता देख रहा है, वहीं इस्लामी देश पाकिस्तान में एक भी शासक ऐसा नहीं हुआ जो सत्ता जाने के बाद निर्वासित नहीं हुआ हो अथवा जिसकी हत्या ना हुई हो। यह धर्म का ही प्रभाव है कि युद्ध एवं महामारी से ग्रसित विश्व में भारत एक शांति के द्वीप के रूप में स्थापित हुआ है, और यह धर्मदंड उसी का प्रतीक है।
अपनी संस्कृति एवं सभ्यता के मूल्यों को त्याग कर विपक्ष का ऐसे सुखद संयोग कर विरोध करना दुखद है, तथा उस विचारधारा का सूचक है जिसने उत्तर -दक्षिण की विभाजक राजनीति को भारत में बनाये रखा है। कर्नाटक के कण्व ऋषि की पुत्री शकुंतला के पुत्र के नाम को जैसे स्नेह से समस्त भारत ने उत्तर -दक्षिण भेद त्याग के सदियों पूर्व धारण किया था, इस चोल साम्राज्य के धार्मिक चिन्ह सांगोल से भारत में पुनः एका होगा और एक नैतिक युग का प्रारंभ इस नयी संसद के साथ होगा, ऐसा मेरा मानना है।
जिस स्नेह से चोल सम्राटों ने काशी के पशुपति महादेव के चिन्ह को अपने साम्राज्य का संरक्षक माना था, और शताब्दियों पश्चात स्वतंत्र भारत के प्रथम नेतृत्व ने इस धर्मदंड को भारतीय लोकतंत्र का मूर्त रूप माना था, आज इसकी लोकतंत्र के मंदिर में स्थापना भारतीय लोकतंत्र और संस्कृति को क्षेत्रवाद से ऊपर उठ कर भारतीय सभ्यता के मूल से जोड़ेगी। इससे सभी को अपने अपने रूप में जुड़ना चाहिये। यह संविधान निर्माताओं को सच्ची श्रद्धांजलि होगी, और जैसा हमें स्वतंत्रता दिवस का शाब्दिक विवरण बताता है, उनके स्वप्नों का वास्तविक प्रकटीकरण होगा।
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