वर्गीकरण विज्ञान है। सामाजिक वर्गीकरण और वर्गीकरण में विभिन्न वर्गों का पदानुक्रम तय करने का विज्ञान सीधे-सीधे राजनीतिक प्रभाव से जुड़ा है जो राज्य की प्रकृति और प्रवृत्ति निर्धारित करता है। सामाजिक वर्गीकरण और वर्गों के पदानुक्रम को बदल कर राजनीति को बदला जा सकता है, जो अंततः राज्य की प्रकृति और प्रवृत्ति में बदलाव के रूप में प्रकट होगा। ऐसा शायद ही कोई समाज हो जहां किसी प्रकार का सामाजिक वर्गीकरण न पाया जाता हो। इतिहास के प्रवाह में सामाजिक वर्गीकरण भी बदलते रहे हैं और वर्गों का पदानुक्रम भी बदलता रहा है। भारत में वर्ण और जाति सामाजिक वर्गीकरण की मौलिक इकाई रही हैं। भारत में जाति वर्गीकरण अनेक परिवर्तनों से गुजरा है। जातियों की व्यवस्था का मूल उद्देश्य समाज द्वारा उत्पन्न आर्थिक लगान के वितरण को व्यवस्थित करना था और जब-जब किसी जाति या जातियों के समूह ने आर्थिक लगान के बड़े हिस्से को कब्ज़ा करने और बाकी जातियों का हिस्सा हड़पने की कोशिश की, भारत में सामाजिक और राजनीतिक क्रांतियां हुईं, जिसका फायदा सीधे-सीधे आक्रमणकारी ताकतों ने उठाया।
भारतीय समाज में उपस्थित जातीय द्वैत
भारतीय दर्शन और सभ्यता में हर अवयव एक चक्रीय पदानुक्रम में व्यवस्थित किया गया है और जाति व्यवस्था भी इस सामान्य नियम का अपवाद नहीं है। हालाँकि जैसा पहले कहा गया, समय- समय पर ताकतवर समूहों ने इस चक्रीय व्यवस्था को तोड़ने मरोड़ने की कोशिश की। आधुनिक समय में अंग्रेजों ने जाति व्यवस्था को नए सिरे से परिभाषित किया और इस पुनर्परिभाषा में जनगणना का सबसे महत्त्वपूर्ण रोल रहा। आज हम जातियों को संवैधानिक रूप से जिस रैखिक पदानुक्रम में देखते हैं, वो औपनिवेशिक शासन में शुरू हुई जनगणना के साथ उत्पन्न हुआ। आज भी संवैधानिक तौर पर तो जातियों का एक रैखिक पदानुक्रम दिखाई देता है लेकिन सामाजिक तौर पर ब्राह्मण और नपित को विशिष्ट अधिकारों के साथ सामाजिक विधि विधानों में एक साथ देखा जा सकता है। मृत्यु से सम्बंधित हिन्दू विधानों में भी एक विशिष्ट प्रकार के ब्राह्मणों को डोम और मल्लाह जाति के साथ उपस्थित देखा जा सकता है। इस प्रकार जनगणना ने जहाँ जातियों को विधिक रूप से एक रेखीय पदानुक्रम में ढालना प्रारम्भ किया, वहीं सामाजिक तौर पर जातियों की चक्रीय व्यवस्था आज भी बनी हुई है, जो भारतीय समाज में उपस्थित सामाजिक-संवैधानिक द्वैत को प्रदर्शित करती है। यहाँ पर हम औपनिवेशिक शासन में विकसित हुई जातीय जनगणना के कारणों और इसके जातियों पर प्रभावों की चर्चा करेंगे।
जाति जनगणना की औपनिवेशिक शासकों के लिए आवश्यकता
अंग्रेजों ने प्रारम्भ में जातियों के प्रति उदासीनता दिखाई लेकिन इस कारण पहले से क्षेत्रीय स्तर पर प्रभावशाली जातियों ने औपनिवेशिक शासन में देशी लोगों के लिए उपलब्ध शिक्षा के अवसरों और शासकीय पदों पर तेजी से कब्ज़ा किया। हालाँकि नयी औपनिवेशिक व्यवस्था ने पिछड़ी और दलित कही जाने वाली प्रभावशाली जातियों को भी व्यापार और सेना में नौकरियों के माध्यम से समृद्ध बनाया और इन्ही समृद्ध हुए लोगों ने जनगणना के आंकड़ों का उपयोग करके शैक्षणिक संस्थानों और सरकारी पदों में अपनी जातियों के लिए विशेष आरक्षण के लिए औपनिवेशिक शासन पर दबाव डालना शुरू किया जिसके परिणामस्वरुप भारत में जातीय राजनीति की शुरुआत हुई।
प्रारंभिक दौर में एडमंड बुर्के जैसे ब्रिटिश विद्वानों का मानना था कि भारतीयों को खुद के तौर तरीकों के अनुसार जीने का अधिकार होना चाहिए। इसी भावना के अंतर्गत वारेन हेस्टिंग्स, जो पहला गवर्नर जनरल था, ने मनु संहिता के आधार पर अपने न्यायालयों में सामाजिक कानून स्थापित किये। मनु संहिता को लेकर उपद्रव की शुरुआत यहीं से होती है क्योंकि इसके पहले ऐसी संहिता यदा-कदा सामाजिक मामलों में उपयोग में लायी जाती थीं क्योकि भारतीय ग्रामीण समाज सामाजिक मामलों में लगभग स्वायत्त थे। लेकिन ब्रिटिश कोर्ट, जिसके द्वारा विकेन्द्रीकृत भारतीय समाज को एक केंद्रीय न्यायिक शासन प्रणाली के अंतर्गत लाया गया, द्वारा मनु के कानूनों को भारतीय जन जीवन पर लाद दिया गया। हालाँकि बाद के ब्रिटिश विद्वानों जैसे, कैम्बेल, १८५३ ने माना कि जाति के बारे में ब्रिटिश सोच बहुत हद तक मनु सहिंता से प्रभावित है, जो वास्तविकता के विपरीत है लेकिन मनु के कानूनों को दृढ़ता से लागू करने ने जॉन स्टुअर्ट मिल जैसे विद्वानों को भारतीय समाज और परम्पराओं कि आलोचना करने का मौका दे दिया, जिसका बाद के जाति नेताओं जैसे अंबेडकर, पेरिआर आदि ने उपयोग किया।
अंग्रेजों की सामाजिक निरपेक्षता की नीति में १८५७ के विद्रोह के बाद गंभीर परिवर्तन हुए। १८५७ के विद्रोह से पहले तक ब्रिटिश नीतियां जाति को लेकर निरपेक्ष बनी रहीं थीं, जिसका प्रमाण ये है कि जहाँ बंगाल की सेना में पूर्वी भारत की ऊंची जातियों की भरमार थी, वहीं बॉम्बे में ब्रिटिश सेना की सबसे बड़ी रेजिमेंट महार जाति से थी। १९५७ के विद्रोह के बाद ब्रिटिश शासक जाति के प्रश्न को लेकर गंभीर हो गए और जाति को १८८१ से जनगणना में शामिल किया गया ताकि नयी जातियों को शासकीय पदों, खासकर सेना में शामिल होने का मौका देकर सेना पर कुछ जातियों के प्रभुत्व को समाप्त किया जा सके।
कुछ विद्वान जाति को जनगणना में शामिल किये जाने को ब्रिटिश शासकों द्वारा भारतीय समाज को समझने की प्रक्रिया बताते हैं। वहीं कुछ और विद्वानों का मत है कि जाति जनगणना एक बौद्धिक क्रिया से कहीं ज्यादा भारतीय समाज को बांटने और भारतीय समाज में अपने लिए नए मित्र ढूंढने की ब्रिटिश साजिश थी। जातीय जनगणना ने विभिन्न वर्गों के लाभ के लिए नीतियां बनाने में मदद की और इस प्रकार जनगणना ने सीधे-सीधे जातियों को भौतिक लाभ से जोड़ दिया। इस प्रकार ब्रिटिश शासन में प्रारम्भ हुयी जाति जनगणना ने जाति राजनीति की नींव डाली।
जाति जनगणना के प्रभाव
जाति जनगणना के मामले में एक और मत है जिसके अनुसार जाति आधारित जनगणना का उद्देश्य भारतीय नागरिकों को उनकी पहचान से अवगत कराना नहीं बल्कि जनगणना करवाने वाले अधिकारियों को जाति की आवश्यकता से परिचित कराना था, ताकि आने वाले समय में ये अधिकारी जाति के आधार पर ही नीतियां बनाएं। इन्हीं सरकारी अधिकारियों ने ब्रिटिश शासन और स्वतंत्र भारत में नीतियों का निर्धारण किया। इस प्रकार स्वतंत्र भारत में भी सामाजिक विकास की समझ जातियों की समझ के आस-पास ही घूमती रही, जिसने जातिवादी राजनीति का मार्ग प्रशस्त किया। एक और तथ्य यह है कि रिशले नामक जनसँख्या कमिश्नर ने जातियों की समझ को यूरोपियन रेस की समझ के साथ जोड़ने का प्रयास किया और यह स्थापित करने की कोशिश की कि भारत में बाहर से आने वाली जातियों की मानव वैज्ञानिक संरचना देशी जातियों से अलग है। इस प्रकार रिशले के काम ने आर्य आक्रमण के सिद्धांत को जातीय आधार पर स्थापित करने का प्रयास किया और भारतीय समाज में आर्य, द्रविड़ और मंगोलायड जैसे विभाजन को रेखांकित किया। रिशले जैसे अधिकारियों के कार्य ने जातीय विभाजन को और दृढ़ किया जिसका प्रभाव आज भी उत्तर और दक्षिण भारत के बीच आर्य-द्रविड़ जैसे विभाजनों में दिखाई देते हैं।
हालाँकि ऐसा भी नहीं कहा जा सकता कि जाति जनगणना ने भारतीय समाज का केवल नुकसान ही किया। एक तरह से जाति जनगणना ने कई जातियों के उत्थान के रास्ते भी खोले जिसने राष्ट्रवादी आंदोलन में सभी जाति वर्गों के लोगों का योगदान सुनिश्चित किया। जाति जनगणना ने जातियां, जो क्षेत्रीय स्तर तक सीमित थीं, को एक राष्ट्रीय स्वरुप प्रदान किया और इस प्रकार स्वतंत्रता आंदोलन को एक राष्ट्रीय स्वरूप प्रदान करने में मदद की। जातीय जनगणना के कारण उत्पन्न हुए हिन्दू समाज में विभाजन को रोकने के लिए ऊंची जाति के नेता निचली जाति के लोगों को रियायतें देने के लिए बाध्य हुए जिसने जाति समरसता के नए अध्याय की शुरुआत की। इस कड़ी में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के दौरान मूंजे-राजा पैक्ट और आंबेडकर और मदन मोहन मालवीय के बीच हुआ पूना पैक्ट, जिसको महात्मा गाँधी की सहमति थी, महत्वपूर्ण पड़ाव थे।
जनगणना के आंकड़े आने से पहले पिछड़ी और दलित जातियों के लिए शासकीय पदों पर नियुक्ति के लिए आवश्यक अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त करना कितना कठिन था, इसका पता इस बात से चलता है कि १८५६ में एक महार जाति के लड़के को बॉम्बे प्रेसीडेंसी के एक सरकारी स्कूल ने एडमिशन देने से मना कर दिया और उसकी इस सन्दर्भ में की गयी अपील को बॉम्बे एजुकेशन डिपार्टमेंट ने यह कह कर अस्वीकृत कर दिया कि सिर्फ एक महार लड़के, जिसके साथ बाकी जातियों के लड़के बैठने के लिए तैयार नहीं हैं, कि अपील को स्वीकार करना शिक्षा विभाग को व्यर्थ का संस्थान बना देगा। हालाँकि १८५८ में बॉम्बे की सरकार ने एक आदेश के द्वारा सरकारी सहायता पाने वाले स्कूलों में जाति के आधार पर प्रवेश निषेध करने को समाप्त कर दिया। हालाँकि अन्य जातियों के विरोध के कारण इस आदेश का विशेष प्रभाव नहीं हुआ। लेकिन अनेक समाज सेवियों के प्रयासों से जाति उन्मूलन के प्रयास प्रारम्भ हुए और निचली जातियों की शिक्षा के लिए विशेष प्रयास हुए।
जातीय जनगणना ने एक रेखिक पदानुक्रम में जातियों को व्यवस्थित करना शुरू किया जिसने भारतीय समाज में यह सन्देश दिया कि जो जातियां पदानुक्रम में ऊपर हैं, उनका सामाजिक स्थान भी ऊंचा है। इस प्रकार की व्यवस्था ने जातियों के बीच जाति जनगणना के पदानुक्रम में ऊंचा स्थान पाने को लेकर होड़ मच गयी और जातीय संगठनों ने मुकदमे करने प्रारम्भ किये। इस प्रकार ब्रिटिश शासकों ने जाति जनगणना के माध्यम से न केवल जाति व्यवस्था को एक नया स्वरुप देना प्रारम्भ किया बल्कि न्यायालय में हो रहे मुकदमों के माध्यम से अपने शासन और संस्थाओं की वैधता को भी स्थापित करने का प्रयास किया। जातियों के मध्य जाति वर्गीकरण को लेकर चेतना इस हद तक हुई कि लाहौर में विभिन्न वर्गों ने सही तरीके से जाति कैसे बताई जाए, इसके लिए पर्चे और पम्पलेट बांटे। 1911 की जनगणना में बंगाल में इसके कारण सामाजिक असंतोष होने की बात ब्रिटिश सरकार ने खुद स्वीकार की।
जातीय संगठनों द्वारा जातियों के जनगणना में स्थान के लिए लड़ाइयां करने का परिणाम मद्रास प्रेसीडेंसी में जस्टिस पार्टी के उदय के रूप में हुआ। अन्य भूभागों में भी जातीय संगठनों की उत्पत्ति के कारण जाति राजनीति का उदय हुआ हालाँकि अलग-अलग स्थानों पर इन जाति संगठनों की राजनीति भी अलग-अलग रही। जैसे, मद्रास प्रेसीडेंसी में जाति राजनीति का विकास ब्राह्मणों के विरोध पर आधारित था जिसका नेतृत्व जस्टिस पार्टी कर रही थी। दक्षिण में ब्राह्मण विरोधी राजनीति की धुरी मंदिरों में प्रवेश की मांग थी, जिसकी परिणति जस्टिस पार्टी की सरकार बनते ही मंदिरों पर सरकार के कब्जे के साथ हुई। वहीँ दूसरी तरफ बिहार और उत्तर प्रदेश में जाति राजनीति में अग्रणी जातियां जैसे यादव और कुर्मी क्षेत्रीय स्टेटस के लिए लड़ते रहे और इन जातियों के कार्यक्रम की धुरी गोरक्षा और मुस्लिम विरोध रहा। उन्नीसवीं शताब्दी के गंगा के मैदानों में हुए धार्मिक दंगों में यादव जाति के लोगों के खिलाफ दर्ज़ हुए मामले इस तथ्य की पुष्टि करते हैं। हालाँकि बिहार की अग्रणी पिछड़ी जातियां भी अंततः त्रिवेणी संघ के रूप में एक राजनैतिक मोर्चे के पीछे लामबंद हुई जिसका मुख्य उद्देश्य अगड़ी जातियों के प्रभुत्व वाली कांग्रेस पार्टी को चुनौती देना था। जहाँ दक्षिण और पश्चिमी भारत में जाति राजनीति शिक्षा के अधिकार के साथ सीधे-सीधे जुड़ी हुई थी, पूर्वी भारत में जाति राजनीति का शिक्षा के प्रति वैसा प्रगतिवादी रवैया नहीं था बल्कि क्षत्रिय दर्जा हासिल कर के सेना की नौकरियां पाना पूर्वी भारत की जातीय राजनीती का मुख्य अवयव रहा।
जाति की संख्या के आधार पर आरक्षण की मांग सामाजिक न्याय की हत्या है
इस प्रकार हम देखते हैं कि जाति राजनीति करने वाले राजनीतिक दल सीधे-सीधे उपनिवेशवादी विमर्श से प्रभावित हैं। इस सन्दर्भ में जाति जनगणना की मांग और इसके आधार पर जाति आरक्षण का जातियों की संख्या के आधार पर पुनरावलोकन पूर्वी भारत, खास कर उत्तर प्रदेश और बिहार में गौण जातियों के बीजेपी शासन में बढ़ते प्रभाव को रोकने का प्रयास है। इस प्रकार की मांग से सामाजिक न्याय की अवधारणा को किनारे करके बड़ी जातियों के हितों को आगे बढ़ाने में मदद करेगी। निश्चित तौर पर संख्या के आधार पर आरक्षण के पुनरावलोकन से ब्राह्मण, जिनकी संख्या ज्यादा है, लाभान्वित होंगे और ऐसे क्षेत्रीय दलों को लाभ मिलेगा जो प्रभावशाली जातियों की राजनीति करते हैं। इन दलों में समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल आदि शामिल हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि जातियों की संख्या के आधार पर आरक्षण सामाजिक न्याय, जो कम संख्या वाली जातियों को आगे बढ़ाने से सम्बंधित है, की हत्या साबित होगा।