असोज के महीने पहाड़ों पर धूप कुछ धीमी होने लगती है। बारिश ठहरती है तो लोग फसल समेटने निकलते हैं। पहाड़ों पर उम्र का अपना-अपना हिसाब है। कुछ महिलाएँ, जिनके पास असोज के माह फसल की कटाई और उसे सुरक्षित तिबार तक पहुँचाने की ज़िम्मेदारी। फिर कुछ बूढ़े हैं, जिनके पास अपने हिस्से का काम है, जैसे – तिबार तक पहुँची फसल से दाल और बीज छाँटना!
बच्चों की उम्र का मगर पहाड़ों में कोई हिसाब नहीं होता। वो घर की तिबार में बैठे बूढ़े दादा-दादी के साथ लाल राजमा में से काली राजमा भी अलग कर रहा होता है। ज़रा सी झिड़की के बाद उसे माँ के साथ खेत में फसल – ज्वार, बाजरा आदि निकालने भी भेज दिया जाता है।
खेत जाते-जाते बच्चे के भीतर का बालक भी अपनी उम्र से न्याय करता है। बच्चे कभी किसी फसल की बाली को खींचे लेते हैं तो कभी यूँ ही अपने मतलब की चीजें मिट्टी के ढेले पर पैर मार कर तलाशते हैं।
असोज से पूस की ओर बढ़ते पहाड़ों में ही लोगों को कुछ विश्राम होता है। बच्चे अपने मनोरंजन के साधन तलाशते हैं। मनोरंजन के साधन, मगर बाज़ार के बिना? ये सबसे बड़ी पहेली है। बाज़ार नहीं है तो क्या मिट्टी के ढेले पर पैर मार कर कोई जिन्न निकल आएगा जो गाँव के बच्चों से पूछेगा कि बताओ तुम्हें आज क्या खेल पसंद है?
मिट्टी ही तो पहाड़ का जिन्न है। फ़सल कटने के बाद खेतों में कहीं बेलें गिरी होती हैं तो कहीं ज्वार-बाजरे के डंठल। बेल से अलग कर दिए गए कद्दू का डंठल, जो कि क़रीब-क़रीब सप्ताह भर या महीने भर पुराना होता है, बच्चों के लिए एक खेल ले कर आता है।
ये काठ के जैसा मज़बूत हिस्सा एक गेंद का काम करता है। अब अगर इसे गोल्फ़ की गेंद में तब्दील करना है तो ज़रूरत पड़ती है स्टिक की। ये स्टिक कहाँ मिलेगी? गाँव के सभी बच्चे आपस में मिलकर यह तय करते हैं।
अचानक उन्हीं में से एक कहता है कि उसने कल स्कूल जाते वक्त रास्ते में पड़ने वाले बाँज के पेड़ में एक टहनी देखी है, जिस से क़रीब-क़रीब दो स्टिक दो बन सकती हैं।
अगले दिन की योजना तय होती है। यह स्कूल जाने की नहीं बल्कि स्कूल से लौटते वक्त की योजना तय हो रही होती है। स्कूल से किसी तरह जंगल के रास्ते घर लौट रहे बच्चे उस स्टिक का जुगाड़ करते हैं। अब महीनभर का खेल मिल चुका है।
तो इस खेल का नाम क्या होगा! गोल्फ़? ये तो कोई अफ़सरों का खेल प्रतीत होता है। हॉकी? नहीं ये तो मसला ओलम्पिक का हो गया। तो फिर क्या? इसका नाम तो ‘टुआ’ है या फिर ‘होल्या’ या यूँ कहें कि ‘हिंगोड़’! एकदम पहाड़ी नाम, मानो ये नाम अगर इस खेल का ना होता तो इसे खेल रहे बच्चों में से ही किसी एक का नाम होता।
देशज शब्दों की भारी कमी से गाँव के बच्चे ऐसा ही कोई एक नाम चुन लिया करते थे। नाम में अपनापन हो, यह एक मात्र शर्त ज़रूर होती है। हिंगोड़ तो यूँ भी दिनभर खेतों, जंगलों में गाय चराने वाले बच्चों का प्रिय खेल रहा है। जब गोल्फ़ नहीं था, शायद जब पोलो भी नहीं था, तभी से पहाड़ों में यह खेल रहा है।
गोल्फ़ जैसा खेला जाने वाला ‘हिंगोड़’
जैसे ही टुआ या हिंगोड़ का पूरा बंदोबस्त हो जाता, गाँव के तमाम बच्चे भूल जाते कि अब उन्हें कुछ और करना है। सुबह होते ही खेतों की ओर बच्चों की भीड़ जमा हो जाती। स्कूल से लौटने पर बच्चों का बस्ता घर नहीं पहुँचता, वो उस खेत पहुँचता जहाँ शाम की योजना तय हुई है, टुआ खेलने की!
टुआ या हिंगोड़? उत्तराखंड के जौनपुर और जौनसार क्षेत्र की बात करें तो इसका नाम टुआ या होल्या है। गढ़वाल-कुमाऊँ के दूसरे हिस्सों में इसे हिंगोड़ कहते हैं।
टुआ, जिसे आज पहाड़ों ने भुला दिया है। या पहाड़ शायद ना भूले हों मगर वो टुआ खेलने वाले अब कहीं खो गए। खेतों में फसल नहीं हैं। पहाड़ वीरान हैं। टुआ खेलने वाले बच्चे ‘बेहतर भविष्य’ के लिए अब शहरों में हैं। बेहतर भविष्य ने पहाड़ों के वर्तमान के साथ सबसे ज़्यादा ज़्यादती की है।
लेकिन एक समय था जब इस खेल की दीवानगी में बच्चे मास्टरजी की पिटाई और घर में माँ की डाँट खाने के लिए भी तैयार रहते थे।
इस खेल को उत्तराखंड के गढ़वाल और कुमाऊँ के दूरस्थ पहाड़ी इलाक़ों में खेला जाता है। इस खेल को पहाड़ में कई सदियों तक खेला गया। यूँ तो यह साल के किसी भी मौसम में खेला जाने वाला खेल रहा है लेकिन इसका विशेष प्रचलन सावन-भादों बीतने के बाद और सर्दियों से ठीक पहले अधिक बढ़ जाता है।
गाँव के बच्चे किसी पेड़ की लकड़ी की स्टिक और अक्सर कद्दू के डंठल की गेंद बना कर खेलते थे, लेकिन समय के साथ साथ इस खेल की प्रकृति में भी बदलाव आया। अब पुराने कपड़ों को गोलाकार लपेट कर हिंगोड़ की गेंद तैयार की जाती है।
इसे खेलने के लिए बच्चे खेत में खेल के हिसाब से हिस्सा नाप लेते और साथ ही खेत के बीच में एक बड़ा ‘होल’ बनाया जाता है। अब इस गेंद को गोल्फ़ की ही तरह निशाना बना कर ‘होल’ में डालना होता है या फिर एक बनाई गई सीमा से बाहर फेंकना होता। अगर स्टिक हाथ में लिए खिलाड़ी ऐसा करने में कामयाब होता तो सारी टीम उछलकर कहती थी ‘ होल्या’! दो टीम बारी-बारी से गेंद को निशाना बनाती हैं। आख़िर में जो टीम सबसे अधिक बार ‘होल्या’ करने में सफल रहती, उसकी ही जीत मानी जाती।
तो पहाड़ो में कुछ इस तरह खेला जाता है हिंगोड़/टुआ/होल्या। हिंगोड़ हॉकी से ही नहीं बल्कि गोल्फ और पोलो से भी कुछ हद तक मिलता-जुलता खेल है। पोलो और हिंगोड़ में अंतर इतना ही है कि पोलो को घोड़े में बैठ क़र खेला जाता और हिंगोड़ ऊबड़-खाबड़ पहाड़ी खेतों में।
अब हिंगोड़ को लोग भूल चुके हैं। जिन्होंने इसे खेला, वो लोग अब महानगरों में हैं। खेतों में कँटीली झाड़ियों के सिवाय अब शायद ही उत्तराखंड के गाँव में कुछ मिलता हो। इस सबके बीच हिंगोड़ की कुछ यादें हैं जो बाक़ी हैं।