हिमाचल प्रदेश में आगामी 12 नवम्बर को विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं। वर्ष 1985 के बाद यह पहली बार है, जब ‘राजा वीरभद्र सिंह’ के बिना कॉन्ग्रेस, राज्य में विधानसभा चुनाव लड़ रही है।
हालाँकि, कॉन्ग्रेस आज भी दिवंगत मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह के भरोसे है। प्रदेश कॉन्ग्रेस अध्यक्षा और राजा वीरभद्र सिंह की पत्नी प्रतिभा सिंह का यह बयान कि ‘प्रदेश की जनता चुनाव अभियान में वीरभद्र सिंह की तस्वीर देखना चाहती है और कॉन्ग्रेस पार्टी को सत्ता में वापस लाना चाहती है’, यह बात इस ओर संकेत करती है कि कॉन्ग्रेस राज्य में राजा वीरभद्र सिंह की छवि के सहारे चुनावी मैदान में उतरेगी।
क्या पार्टी के लिए वीरभद्र की छवि काफ़ी रहेगी? पार्टी का दावा है कि उसके पास नेताओं की कमी नहीं है और राज्य के लोग इस बार उसे ही सत्ता में लाएँगे। हालाँकि, वर्तमान परिस्थितियों में, जब पार्टी को नया अध्यक्ष चुनाव से लगभग तीन सप्ताह पहले ही मिला है और जब राहुल गाँधी खुद चुनाव में प्रचार से बचते हुए भारत जोड़ो यात्रा में व्यस्त है, यह कितना आसान होगा?
प्रदेश अध्यक्षा प्रतिभा सिंह कहती हैं, “हमारे पास नेताओं की कोई कमी नहीं है। हम विधानसभा चुनाव में जरूरत के हिसाब से सभी नेताओं को प्रचार के लिए यहाँ लाएँगे। हम उनके (वीरभद्र सिंह) के बिना चुनाव में जाएँगे। वह अकेले नेता थे, जो सभी को एक साथ लेकर चलते थे। हम भी यह कोशिश करेंगे और उनकी विरासत को आगे बढ़ाएँगे। हम निश्चित रूप से राज्य का चुनाव जीतेंगे और सरकार बनाएंगे।”
ऐसे दावे उत्साह में अधिक और विश्वास में कम प्रतीत होते हैं। यूँ तो पार्टी का एक स्थाई वोट बैंक है, लेकिन पिछले कई वर्षों में राज्य की राजनीति में जिस तरह से भाजपा का वर्चस्व और ठोस हुआ है, कॉन्ग्रेस पार्टी के लिए यह आसान नही होगा।
वीरभद्र सिंह के जिस विरासत की बात कॉन्ग्रेस कर रही है, उसका प्रभाव ऊपरी हिमाचल के कुछ जिलों जिनमें शिमला, किन्नौर, सोलन और कुछ हद तक मण्डी के कुछ हिस्सों पर रहा है। राजा वीरभद्र सिंह लोकप्रिय थे पर वे संपूर्ण हिमाचल के सर्वमान्य नेता कभी नहीं रहे।
वीरभद्र सिंह हिमाचल प्रदेश की राजनीति में एक तरह के स्थानीय वर्चस्व और लगाव को लेकर चलते थे और इसलिए केंद्रीय नेतृत्व, ख़ासकर सोनिया और राहुल गाँधी से उनके सम्बन्ध खास नहीं थे।
एक स्वाभिमानी क्षत्रप के तौर पर उन्होंने अपनी शर्तों पर राज किया। इसी का परिणाम था कि हिमाचल प्रदेश में उनकी सरकार ने साल 2006 में ‘मतान्तरण विरोधी कानून’ बनाया था। हिमाचल पूरे भारत में पहला कॉन्ग्रेस शासित राज्य था, जिसने जबरन मतान्तरण पर सजा और जुर्माने का प्रावधान किया।
कॉन्ग्रेस ने इस बार नहीं बनाया है मुख्यमंत्री का चेहरा
कॉन्ग्रेस पार्टी में वीरभद्र सिंह की कमी और कॉन्ग्रेस में नेतृत्व की अक्षमता का अन्दाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि कॉन्ग्रेस बिना मुख्यमंत्री के चेहरे के यह चुनाव लड़ रही है। इससे पहले तक खासतौर पर साल 1985 के बाद से वीरभद्र सिंह मुख्यमंत्री का चेहरा रहते थे।
वीरभद्र सिंह के निधन को 1 साल से भी अधिक समय हो गया है। इसके बावजूद पार्टी में सर्वमान्य नेता की कमी अब तक पूरी नहीं हो पाई है। पार्टी यह चुनाव वीरभद्र सिंह की विरासत पर ही लड़ रही है। प्रदेश अध्यक्षा प्रतिभा सिंह पहले ही यह स्पष्ट कर चुकी है कि अगर पार्टी जीतती है तो विधायक मुख्यमंत्री चुनेंगे। इसका अर्थ यह हुआ कि जिस धडे़ के जितने ज्यादा विधायक होंगे मुख्यमंत्री उसी धड़े से बनेगा।
पार्टी का अन्दरूनी कलह
प्रदेश में कॉन्ग्रेस पार्टी में अन्दरूनी कलह और गुटबाजी का इतिहास रहा है। वर्तमान में प्रचार समिति के अध्यक्ष सुखविन्दर सिंह सुक्खू और वीरभद्र सिंह का 36 का आँकड़ा था। वीरभद्र सिंह ने सुखविन्दर सिंह सुक्खू को एक बार कहा भी था कि सुक्खू ने कॉन्ग्रेस डूबो दी है। हालाँकि, तमाम कलह को राजा वीरभद्र सिंह येन-केन-प्रकारेण सम्भाल लेते थे।
कई धड़ो में बँटी कॉन्ग्रेस को संभालना इस बार आसान नहीं है। इसकी शुरूआत भी हो चुकी है। पार्टी के कई नेता नाराज चल रहे हैं। युवा कॉन्ग्रेस के नेताओं को तो टिकट ही नहीं मिले। सबसे ज्यादा टिकट प्रदेश अध्यक्षा प्रतिभा सिंह के खेमे के लोगों को मिला है।
कॉन्ग्रेस के ये कई धड़े क्या एक साथ आ पाएँगे, या फिर वीरभद्र सिंह और उनकी विरासत को आगे बढ़ाने के दावे मात्र दावे बनकर रह जाएँगे? इसका उत्तर 8 दिसम्बर को ही मिल पाएगा।