“जब झारखंडी अपनी चीजों पर उतर आएगा तो वो दिन दूर नहीं जब आप लोगों को यहाँ सर छुपाने का मौक़ा भी नहीं मिलेगा।”
प्रवर्तन निदेशालय के नोटिस का सार्वजनिक तौर पर जवाब झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने कुछ इस तरह दिया है। निदेशालय के नोटिस का जवाब अब मुख्यमंत्री या अन्य संवैधानिक पदों पर विराजमान लोग सड़कों पर खड़े होकर देने में विश्वास रखते हैं। निदेशालय जाकर जवाब देना शायद कठिन काम है। इसलिए, हर समस्या और हर मुद्दे का समाधान सड़क पर खड़े हो शोर मचाकर या तो खोजा जाता है या दिया जाता है।
सोरेन अकेले मुख्यमंत्री नहीं हैं। केंद्र सरकार की एजेंसियों द्वारा कानूनी कार्रवाई का जवाब पूर्व में पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी इसी तरह देने का प्रयास कर चुकी हैं। हाल में मनीष सिसोदिया ने भी सीबीआई के नोटिस का जवाब रैली निकाल ‘भगत सिंह’ बन कर दिया था।
पूर्व में भ्रष्टाचार के मामलों की जाँच को लेकर आँध्र प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने तो राज्य में सीबीआई के प्रवेश पर ही रोक लगा दी थी। यही काम महाराष्ट्र की महाअगाड़ी सरकार कर चुकी है। दिल्ली के मुख्यमंत्री यह काम कई वर्षों से कर रहे हैं।
कुछ नेता, मुख्यमंत्री, सांसद और संवैधानिक पदों पर बैठे अन्य लोगों के लिए राजनीतिक शोर अपने आप में हर समस्या का समाधान है। शासन और प्रशासन की समस्याओं के समाधान के तौर पर राजनीतिक शोर का इस्तेमाल इन नेताओं द्वारा इतने लंबे समय तक किया जा रहा है कि वे अब इसे गंभीरता से लेने लगे हैं और इसे ही स्टेटक्राफ़्ट का सबसे बड़ा हथियार मानने लगे हैं। हर मुद्दे का राजनीतिकरण अब इनकी आदत में शुमार है।
अब तक इन लोगों का विश्वास इस विधा पर इतना पुख़्ता हो चुका है कि वे इसे अत्यंत गंभीरता से लेते हैं। शायद ऐसा भी है कि वे चाह कर भी इस स्थिति से नहीं निकल सकते। क्योंकि, अपनी राजनीतिक यात्रा में इन्होंने और किसी विधा का विकास देखना ही नहीं चाहा।
पिछले कई वर्षों में भारतीय राजनीति में जो परिवर्तन आया है। उसकी वजह से ऐसा करते हुए ये नेतागण खुद को एक कमजोर शासक और प्रशासक के रूप में प्रस्तुत करते हैं। अपने राज्य के लोगों की भावनाओं को भड़का कर केंद्र सरकार के विरुद्ध उन्हें खड़ा कर देने का प्रयास हर समस्या का समाधान नहीं हो सकता। यदि हेमंत सोरेन पर व्यक्तिगत भ्रष्टाचार का आरोप लगा है तो, उसका समाधान जाँच में बाधा नहीं है बल्कि, उसका समाधान जाँच में सहयोग है।
जाँच में बाधा डालने के प्रयासों को राज्य के लोग नहीं पहचान सकेंगे, यह सोचना अपने ही राज्य के लोगों का अपमान है। ऐसा ही प्रयास एक समय ममता बनर्जी ने किया था। हालाँकि उन्हें वांछित फल नहीं मिले और आज जाँच में सहयोग के अलावा उनके पास विकल्प नहीं है।
हेमंत सोरेन और संवैधानिक पदों पर बैठे उनकी तरह वे तमाम नेतागण जिन पर भ्रष्टाचार के आरोप के तहत जाँच चल रही है, उन्हें राजनीतिक शोर-गुल छोड़ एक ज़िम्मेदार नेता के रूप में खुद को प्रस्तुत करने की आवश्यकता है। भारत यदि 1990 से आगे आ चुका है तो ये नेतागण 1990 में कैसे रह सकते हैं?
यह हमारे लोकतंत्र की परिपक्वता का परिणाम है कि शासन और प्रशासन में पिछले दो दशकों में न केवल पारदर्शिता आई है। बल्कि, उसका जनजीवन पर प्रभाव और उसे लेकर फैली जागरूकता के कारण धीरे-धीरे राजनीतिक शोर के लिए जगह कम होती जा रही है। इसे अस्वीकार करने में नहीं बल्कि इसे स्वीकार कर लेने में ही इन नेताओं का मोक्ष है।