मानवीय मामलों के समन्वय हेतु संयुक्त राष्ट्र कार्यालय (UNOCHA), रेड क्रॉस एंड रेड क्रिसेंट सोसायटी के अंतरराष्ट्रीय संघ (IFRCRCS) और रेड क्रॉस रेड क्रिसेंट जलवायु केंद्र (RCRCCC) ने मिलकर एक रिपोर्ट छापी है। “अतिशय गर्मीः भविष्य की गर्म हवाओं की तैयारी” नाम की यह रपट हमारा ध्यान पूरी दुनिया में मानव समाज पर गर्म हवाओं (हीटवेव) के दुष्परिणामों को बताती है और बेहद जल्दी अनुकूलन की योजना के लिए कहती है।
प्रकाशित वैज्ञानिक अध्ययनों के सर्वेक्षण पर आधारित यह रपट हीटवेव की बढ़ती गंभीरता और बारंबारता की संभावना जताती है। साथ ही, गर्मी की असमान उपस्थिति और वितरण से देशों, क्षेत्रों, जनसंख्या और व्यक्तियों पर भी प्रभाव पड़ेगा। रपट में यह भी चेतावनी दी गई है कि गर्म हवाओं का मानव जीवन पर बुरा प्रभाव पड़ेगा, क्योंकि मानवेतर जीवों को भी खतरा बढ़ेगा और वे सारी व्यवस्थाएँ प्रभावित होंगी, जो लोगों को स्वस्थ और जीवित रखती हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात रपट में यह है कि जलवायु की दूसरी अतिशयताओं से गर्म हवाओं का दुष्प्रभाव और बढ़ेगा।
इसी संदर्भ में भारत का उदाहरण दिया गया है, जहां हीटवेव की घटनाएं पिछले 60 वर्षों में काफी बढ़ी हैं, साथ ही मौसमी अकाल भी लगातार पड़ रहे है हैं।
हीटवेव की घटनाएं असमानता बढ़ाती हैं
रपट में बताया गया है कि दुनिया के गरीब देश जो दक्षिणी गोलार्द्ध में हैं और जिन्होंने जलवायु-परिवर्तन की रोकथाम के लिए बहुत कम किया है, वे हीटवेव्स के अधिक घातक परिणाम झेलेंगे। इस संदर्भ में रपट 21वीं सदी के बड़े खतरों के तौर पर हीटवेव को रेखांकित करती है। उनके प्रभाव केवल जलवायु-परिवर्तन पर निर्भर नहीं करेंगे, बल्कि सरकारें और राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय गठबंधन साथ मिलकर किस तरह इस संकट का पूर्वानुमान, निबटने की तैयारी और प्रतिक्रिया देते हैं।
वैश्विक तौर पर दक्षिण के राष्ट्र जलवायु-परिवर्तन के प्रति अधिक संवेदनशील हैं। इसका कारण केवल यह नहीं कि इन देशों में ‘माध्यमिक तापमान’ आंशिक तौर पर अधिक है,जिसकी वजह से मानवीय गतिविधियाँ थोड़ी कठिन हो जाती हैं। इसके साथ ही इन देशों की सरकारों के पास पर्याप्त संसाधन नहीं है, ताकि जलवायु-परिवर्तन को ट्रैक कर वैसी घटनाओं पर तुरंत प्रतिक्रिया दे सकें।
जहाँ तक व्यक्तियों पर हीटवेव के प्रभाव का सवाल है, रपट अकादमिक साहित्य के हवाले से बताती है कि समाज के सबसे नाजुक लोग, जैसे बच्चे, बूढ़े, स्तनपान करानेवाली महिलाएँ और विकलांग या पहले से कुछ मेडिकल दिक्कतों वाले लोग अधिक प्रभावित होनेवाले समूह हैं। इसकी वजह यह है कि उनके पास इसके प्रभाव को कम करने के साधन नहीं होते हैं। रपट में यूनिसेफ ने 2021 में पहली बार बच्चों का जलवायु-परिवर्तन इनडेक्स छापा है और इसके मुताबिक जलवायु परिवर्तन से 3 करोड़ बच्चे प्रभावित होंगे। इसके आधार पर यूनिसेफ ने जलवायु-परिवर्तन को बाल-अधिकार संकट के तौर पर घोषित किया है।
रपट इसके आधार पर उन असमानताओं को मैप करने की बात करता है, जो हीटवेव की वजह से होती है। ये असमानता संसर्ग (एक्सपोजर) की वजह से हो सकती हैं। जैसे, बाहर काम करने वाले श्रमिक हीटवेव का अधिक शिकार होते हैं। दूसरी तरह की असमानता इसलिए होती है कि अलग व्यक्तियों की अतिशय गर्मी को लेकर अलग संवेदनशीलता होती है। उदाहरण के लिए, बच्चे, महिलाएँ और बच्चे मौसम की अतिशयता जैसे हीटवेव के प्रति अधिक संवेदनशील होते हैं। अंततः असमानता होती है, क्योंकि अलग तरह के लोगों के पास गैर-बराबर संसाधन होते हैं। सांस्कृतिक कारक भी हीटवेव के देशों, इलाकों लोगों और व्यक्तियों पर प्रभाव को नियंत्रित करते हैं। हीटवेव के असमान प्रभाव केवल विकासशील देशों तक सीमित नहीं है, इसे प्रकाशित करने के लिए रपट पेरिस में 2003 के हीटवेव का उदाहरण देती है, जिसमें मृत्यु दर कम गरीब इलाकों की तुलना में अधिक गरीब इलाकों में लगभग दोगुनी थी।
हीटवेव की घटनाओं के लिए विशिष्ट अनुकूलन योजना की आवश्यकता है
रपट उन असमानताओं पर प्रकाश डालती है, जो असल में हीटवेव की घटनाओं की कम रिपोर्टिंग या गरीबों के इलाके में हुए नुकसान की होती हैं। उचित और समयानुकूल प्रतिक्रिया के लिए उन इलाकों में मौसम स्टेशन जरूर बनाने चाहिए, जहाँ गरीब रहते हैं। साथ ही शहरी इलाकों में हीटवेव की घटनाओं के प्रति नाजुकता अधिक दिखाई देती है। रपट जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल (IPCC) का हवाला देते हुए बताती है कि विकासशील देशों में तीव्र शहरीकरण और जलवायु-परिवर्तन के कारण शहरी इलाकों में हीटवेव का खतरा बढ़ सकता है।
दुनिया के कुछ इलाकों में जहाँ हीटवेव के खिलाफ कार्ययोजना शुरू हो गई है, भौगोलिक असंतुलन और राष्ट्रीय नीति में गर्मी पर कार्ययोजना न होने से चुनौती अभी भी बनी हुई है, जिसके लिए काफी प्रयास करने होंगे। अनुकूलन के संदर्भ में रपट कहती है कि सामाजिक सुरक्षा योजनाएं, जैसे सामाजिक सहायता, सामाजिक बीमा और श्रमिक बाजार में हस्तक्षेप से तबाहियों के खिलाफ प्रतिरोध विकसित हो सकता है। खासकर, वैसी तबाहियाँ जो जलवायु परिवर्तन से संबद्ध हैं। साफ तौर पर, रपट राष्ट्रीय और क्षेत्रीय सरकारों की महती भूमिका जलवायु-परिवर्तन से जुड़ी घटनाओं से निबटने में देखती है। साथ ही, रपट स्थानीय ज्ञान, प्रथा और तकनीकों की भूमिका को भी मानती है, जो लोगों और समुदायों को उनके वातावरण को समझने में, खतरनाक मौसम की भविष्यवाणी और खुद को बचाने में उनकी मदद करते हैं।
हीटवेव के खिलाफ भारत का संस्थागत प्रारूप
वैसे तो हीटवेव (लू या गरम हवा) संदर्भ के हिसाब से पारिभाषित होती है, इसे हम असामान्य गरमी के लंबे दौर से समझ सकते हैं, जो मानव के स्वास्थ्य और सुरक्षा के लिए खतरनाक है। अतिशय मौसम के तौर पर हीटवेव भारत में हाल ही में आपदा-प्रबंधन के लिए एक चिंता का विषय बन गया है, क्योंकि इसका पर्यावरण और स्वास्थ्य पर बुरा और काफी दूर तक प्रभाव पड़ रहा है। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन संस्थान (NIDM) के मुताबिक HFA (जापान में 2005 में हुआ ह्योगो फ्रेमवर्क फॉर एक्शन) के बाद हीटवेव की घटनाएँ 20 प्रतिशत तक बढ़ी हैं।
भारत के पास एक विकसित संस्थागत प्रारूप है, ताकि आपदाओं का सामना किया जा सके। प्रतिक्रिया का प्रारूप योकोहोमा रणनीति (1994) और HFA के मुताबिक था। HFA जापान के कोबे में 2005 में आपदाओं में कमी पर हुए वैश्विक कान्फ्रेंस के बाद ही आया था।
योकोहामा रणनीति के मुताबिक भारत सरकार ने एक केंद्रीय स्तर की योजना बनाई जिसके तहत हरेक राज्य और केंद्रशासित प्रदेश के प्रशासनिक प्रशिक्षण संस्थानों में आपदा प्रबंधन केंद्र (DMCs) बनाए गए। केंद्रीय कृषि मंत्रालय के तहत एक राष्ट्रीय आपदा प्रबंध केंद्र (NCDM) बना। इसके साथ ही, एक उच्च-अधिकार प्राप्त समिति (HPC) आपदा प्रबंधन पर बनी और इसकी रिपोर्ट 2000 में पेश हुई। इससे देश में आपदा प्रबंधन के लिए नए संस्थागत, कानूनी, वित्तीय और तकनीकी प्रारूप बनाने में आसानी हुई।
HPC की सिफारिशों के आधार पर राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन केंद्र को और भी बेहतर कर 2003 में राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन संस्थान (NIDM) बना दिया गया। इसी दौरान ‘आपदा के बाद राहत’ वाला रवैया भी बदला और ‘तैयार रहने का रवैया’ अब हावी हो गया। नतीजे के तौर पर राज्य आपदा प्रबंधन संस्थान (SDMA) खुले और आपदा प्रबंधन की योजनाएं राज्य एवं जिले स्तर पर इसी अवधि में बनने लगीं।
भारत सरकार और संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (UNDP) के बीच 2002-2008 के बीच चली संयुक्त परियोजना भी इसी अवधि में शुरू हुई और 17 राज्यों के 169 स्थानों पर प्राकृतिक आपदा जोखिम प्रबंधन (NDRM) भी शुरू हुआ जो, बहु-अपघात संभावना (मल्टी-हजार्डस-प्रोन) वाले जिलों में थे। इसके तहत आपदा प्रबंधन की योजना बनाई गई, जिनका केंद्रबिंदु समुदाय आधारित आपदा की तैयारी (CBDP) पर था।
ह्योगो अवधि (2005-2015) के दौरान ही, 2005 में आपदा प्रबंधन एक्ट भी लागू किया गया, जो पर्यावरण को नुकसान को भी आपदा की परिभाषा के तहत देखता था। आपदा प्रबंधन एक्ट के बाद, एक संस्थागत प्रारूप सभी राज्यों में बनाया गया, जिसका तैयारी और शमन पर जोर था।
पूरे देश में राज्य व जिला आपदा प्रबंधन संस्थान बनाए गए और राज्य व जिला आपदा प्रबंधन योजनाएँ भी अधिकांश राज्यों ने बना लीं। गुजरात, छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश जैसे कुछ राज्यों ने आपदा प्रबंधन के लिए राज्यस्तरीय संस्थान बनाए गए। 2009 में भारत की राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन नीति जारी की गई और 2005-2010 के बीच राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन निर्देशों की पूरी शृंखला ही जारी की गई।
ह्योगो के बाद की अवधि में ही आपदा प्रबंधन नीति में दूसरा बदलाव दिखा, जहां पर्यावरण-आपदा के सूत्र जलवायु परिवर्तन से जुड़े हैं, यह माना गया। आपदा-प्रबंधन में जलवायु-अनुकूलन और प्रतिरोध का महत्व भी समझा गया।
भारत सरकार और यूएनडीपी के आपदा जोखिम प्रबंधन कार्यक्रम के बाद एक ‘आपदा का जोखिम कम करना’ (DRR) कार्यक्रम भी 2009-2013 तक चला। इसका क्रियान्वयन 26 राज्यों के 78 जिलों और 56 शहरों में हुआ, जिसका उद्देश्य राज्य तथा जिला आपदा प्रबंधन अधिकारियों और शहरी निकायों (प्रशासनों) को DRR की गतिविधियाँ लागू करने लायक बनाना था। उनको ये काम DM एक्ट 2005 और राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन नीति 2009 के तहत करने थे।
इसके साथ ही, भारत सरकार और यूएनडीपी का “आपदा व जलवायु परिवर्तन के लिए संस्थागत और समुदायगत प्रतिरोध बढ़ाने (2013-2017)” का कार्यक्रम भी लागू किया गया, ताकि सरकारों, समुदायों और संस्थानों को योजनागत प्रारूप शीघ्रता से लागू करने में मदद मिले।
ह्योगो के बाद DRR के लिए सेंदई प्रारूप सबसे एकीकृत और विस्तृत प्रारूप है, जिसका जोर जोखिम घटाने और फिर से बनाने पर है। समावेशी और जलवायु से जुड़ा DRR और विकास इस प्रारूप की मुख्य कुंजियाँ हैं। SFDRR (सेंदई फ्रेमवर्क फॉर डिजैस्टर रिस्क रिडक्शन) के आधार पर 2016 में राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन योजना लागू की गई। केंद्रीय मंत्रालय भी उनके आपदा प्रबंधन योजना के साथ सामने आए, जो राष्ट्रीय योजना के अनुरूप था। PDNA (यानी आपदा के बाद जरूरतों का आकलन- पोस्ट डिजैस्टर नीड असेसमेंट) क्रियाविधि को 2019 में भारत सरकार ने अपनाया। NDMIS (नेशनल लेवल डिजैस्टर मैनेजमेंट इनफॉरमेशन सिस्टम यानी राष्ट्रीय स्तर आपदा प्रबंधन सूचना व्यवस्था) SFDRR के लक्ष्यों का मूल्यांकन UNDRR और UNDP की मदद से करता है। नुकसान और हानि के लिए एक समर्पित ईकाई के साथ इसका आकलन MHA-NDMA करता है।
अहमदाबाद हीट एक्शन प्लान (AHAP), 2013
भारत में पहली बार हीटवेव के प्रबंधन के लिए पहला व्यवस्थित प्रयास अहमदाबाद, गुजरात में 2013 ईस्वी में हुआ। AHAP की चार स्तरीय रणनीति हैः
1. स्थानीय भाषा में हीटवेव के खतरों पर सामूहिक तौर पर पहुँचना और कार्यक्रमों के जरिए जागरूकता फैलाना
2.गरमी से जुड़ी मौतों और बीमारियों को शुरुआत में ही पकड़ने के लिए एक व्यवस्था बनाना
3. आर्थिक रूप से निर्बल और सरकारी संगठनों का गठबंधन ताकि नागरिकों को संभावित अतिशय गरमी के बारे में बताया जा सके, और
4. शहरी अधिकारियों और स्वास्थ्यकर्मियों का क्षमता-संवर्द्धन करना ताकि वे गरमी से संबंधित बीमारी को पहचान सकें, प्रतिक्रिया दे सकें
यह प्रारूप महाराष्ट्र और ओडिशा में लागू किया गया है।
दूसरी जो एक और बताने लायक शुरुआत है, उनमें जलवायु परिवर्तन और मानव स्वास्थ्य पर विज्ञान व तकनीक मंत्रालय द्वारा शुरू किया गया राष्ट्रीय ज्ञान संजाल कार्यक्रम (यानी, नेशनल नॉलेज नेटवर्क प्रोग्राम) है। इसे 2011 में शुरू किया गया, जिसने हीटवेव को समझने में मदद की है। इसी तरह IMD (भारतीय मौसम विभाग यानी इंडियन मेटोरोलॉजिकल डिपार्टमेंट) ने गरमी की स्थिति पर भी लगातार संभावना बतानी शुरू कर दी है, जैसा वह 100 शहरों के लिए बारिश और चक्रवात के लिए बता रहे हैं।
संक्षेप में कहें, तो भारत की रणनीति हीटवेव के खिलाफ तभी सधेगी, जब विभिन्न सरकारी विभाग और स्थानीय समुदाय क्षैतिज और रैखिक स्तर पर समन्वय करें।
– डॉ अमरेन्द्र प्रताप सिंह
निदेशक, फाउंडेशन फॉर डेवलपमेंट एंड डेमोक्रेसी रिसर्च