अफगानिस्तान की राजधानी काबुल में दश्त-ए-बारची इलाके में सितम्बर 30, 2022 को ‘काज उच्च शिक्षण संस्थान’ के महिला ब्लॉक में एक आत्मघाती हमलावर ने खुद को उड़ा दिया था।
इस हमले में शिया मुस्लिम अल्पसंख्यक हजारा समुदाय की छात्राओंं की मौत सबसे अधिक संख्या में हुई है। UNAMA ने बीते सोमवार को बताया कि मृतकों की संख्या बढ़कर अब 53 हो गई है। इसमें 46 लड़कियाँ शामिल हैं। घटना के बाद से ही अफगानिस्तान में हजारा समुदाय की महिलाओं ने विरोध-प्रदर्शन भी शुरू कर दिया है।
अफगानिस्तान के हेरात प्रान्त में महिलाएँ सड़कों पर उतरकर ‘शिक्षा के अधिकार’ और ‘हजारा समुदाय के नरसंहार’ को रोकने के लिए नारे लगा रही हैं। वहीं, तालिबान प्रशासन इन विरोध प्रदर्शन को दबाने के लिए बल प्रयोग कर रहा है।
विरोध प्रदर्शन को रोकने के लिए तालिबान प्रशासन ने काबुल विश्वविद्यालय के छात्रावास में रह रही छात्राओं के खाने में जहर तक मिला दिया। रिपोर्ट के अनुसार, 2 अक्टूबर को छात्रावास में रहने वाली 1,500 लड़कियों में से 1,000 लड़कियों को हॉस्टल प्रशासन ने जहरीला खाना परोसा, ताकि लडकियाँ विरोध प्रदर्शन में शामिल न हो सके।
ऐसा ही एक और मामला बल्ख प्रान्त से सामने आया है। यहाँ भी विरोध प्रदर्शन को रोकने के लिए छात्राओं को छात्रावास में ही कैद कर लिया गया। स्थानीय मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक प्रशासन ने छात्रावास के गेट पर ताला लगा दिया।
कौन है हजारा समुदाय?
हजारा समुदाय अफगानिस्तान के पख्तून और ताजिक समुदाय के बाद तीसरा बड़ा समुदाय है। फारसी भाषा में हजारा का अर्थ होता है, ‘हजार’ (1,000)। ऐसा माना जाता है कि चंगेज खान के समय मंगोल सेना के 1,000 सैनिकों की एक आदिवासी सैन्य इकाई थी। इन्हें हजारा के नाम से जाना जाने लगा।
हजारा समुदाय अफगानिस्तान के मध्य भाग में एक पहाड़ी क्षेत्र पर रहा करते थे, जिसे हजाराजात कहा जाता है। हजारा समुदाय शिया मुस्लिम हैं जो अफगानिस्तान के सुन्नी इस्लाम बहुल जनसंख्या के मुकाबले आधे से भी कम संख्या में है। यही सबसे बड़ा कारण है कि हजारा समुदाय आज राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से हाशिए पर खड़ा है।
अफगानिस्तान के अलावा पाकिस्तान में भी हजारा समुदाय हैं। इसके अलावा अमेरिका, ब्रिटेन जैसे देशों में भी प्रवासी के तौर पर हजारा समुदाय के लोग हैं। काबुल में साल 1973 में तख्तापलट और सोवियत संघ के कब्जे, फिर तालिबान का जन्म और अमेरिका के कब्जे से अनवरत चली आ रही हिंसा के कारण हजारा समुदाय पलायन करता गया।
तालिबान के निशाने पर हजारा समुदाय
अफगानिस्तान में हजारा समुदाय पर 90 के दशक से तालिबान लगातार हमले करता आया है। साल 1998 के मध्य में तालिबानी लड़ाकों ने अफगानिस्तान के बल्ख प्रान्त में शिया मस्जिद मजार-ए-शरीफ में सरेआम हजारा समुदाय के लोगों को गोलियों से भून दिया।
यह सिलसिला कई दिनों तक चला। हजारा समुदाय के हजारों लोगों को चुन-चुन कर मारा गया। दहशतगर्त तालिबान ने लाशें तक दफन नहीं करने दी। बल्ख प्रान्त के तत्कालीन तालिबान गवर्नर मुल्ला मन्नान नियाजी ने अपने एक भाषण में कहा भी था, ‘उज्बेक लोग उज्बेकिस्तान जाएँ, ताजिक, तजाकिस्तान चले जाएँ और हजारा या तो मुसलमान (माने सुन्नी) बन जाएँ या कब्रिस्तान जाएँ।’
अफगानिस्तान में तालिबान हो या फिर इस्लामिक स्टेट (IS) दोनों की नजर में हजारा काफिर हैं। कट्टरपंथी सुन्नी, हजारा समुदाय को मुसलमान ही नहीं मानते हैं। इसलिए वे हमेशा से निशाने पर रहे हैं।
इसी क्रम में तालिबान ने साल 1995 में हजारा नेता अब्दुल अली माजरी की हत्या कर दी थी। इसके बाद बामियान में मजारी की मूर्ति भी तोड़ी। ठीक उसी तरह जैसे भगवान बुद्ध की मूर्तियों को ध्वस्त कर दिया गया।
हजारा नेता माजरी की मूर्ति का सिर जमीन पर रख दिया गया। ताकि, माजरी की हत्या का सीन दोबारा बताया जा सके। इस दौरान भी हजारा समुदाय ने आज की ही भाँति खूब विरोध प्रदर्शन किया। हालाँकि, शातिर तालिबान ने तब कहा कि यह किसी अराजक तत्व का काम है।
आज भी तालिबान और इस्लामिक स्टेट खुरासन प्रान्त (ISIS-K) के आतंकवादी समय-समय पर हजारा समुदाय को निशाना बना रहे हैं।
इस साल की कुछ घटनाओं को देखें तो, 19 अप्रैल, 2022 को पश्चिमी काबुल में दश्त-ए-बारची, हजारा और शिया आबादी वाले क्षेत्र के ‘अब्दुल रहीम शाहिद हाई स्कूल’ में आत्मघाती हमले में 20 छात्रों और अन्य लोगों की मौत हो गई थी। इस हमले की जिम्मेदारी इस्लामिक स्टेट खुरासन प्रान्त (ISIS-K) ने ली थी।
हमले के ठीक 2 दिन बाद यानी 21 अप्रैल को शिया मस्जिद सेह दोकन पर आत्मघाती हुआ। इसमें 31 से ज्यादा लोग मारे गए। इसी महीने 27 अप्रैल को समांगन प्रान्त में देयर-सूफ कोयला खदान जा रहे हजारा समुदाय के 5 पुरुषों की हत्या कर दी गई। इसके अगले दिन यानी 28 अप्रैल को मजार-ए-शरीफ ले जा रही हजारा समुदाय की एक मिनी बस में बम विस्फोट हुआ, इसमें 9 लोगों की मौत हो गई। हजारा समुदाय पर सिलसिलेवार हमले की यह फहरिश्त बहुत लम्बी है।
तालिबान की दहशत का राजनीतिक और आर्थिक पहलू
तालिबान इस्लाम के पुराने आदर्शों को स्थापित करने के लिए बल प्रयोग कर रहा है। यह एक पहलू है। जबकि, दूसरा पहलू यह है कि तालिबान पंथ के नाम पर बेतहाशा हिंसा फैलाकर, पूरे अफगानिस्तान में डर का माहौल बनाकर अफीम के पूरे व्यापार पर अपना पूरा नियंत्रण चाहता है।
अफगानिस्तान दुनिया में पैदा की जाने वाली अफीम का एक बड़ा हिस्सा पैदा करता है। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार, वैश्विक अफीम और हेरोइन की आपूर्ति का 80% हिस्सा अफगानिस्तान से होने वाली अवैध तस्करी से आता है। एक अनुमान के मुताबिक तालिबान की 60% आय अवैध नशीले ड्रग्स से ही होती है। ऐसे में हजारा समुदाय दोहरी मार झेल रहा है।
हजारा समुदाय के नरसंहार का पहला कारण, हजारा समुदाय शिया मुसलमान हैं। उनकी परंपराएं, सुन्नी इस्लाम को चुनौती देने वाली हैं। क्योंकि, वे बहुवादी परंपरा और दूसरे पंथ को स्वीकार्यता देने में विश्वास रखने वाले लोग हैं।
दूसरा और बड़ा कारण यह है कि अफगानिस्तान में कई जनजाति समुदाय जिनमें पख्तून, ताजिक, हजारा, उज्बेक, तुर्कमेन और बलूच समेत अन्य समुदाय सत्ता के लिए संघर्षरत रहे हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि तालिबान लम्बे समय से चले आ रहे इस संघर्ष को आधार बनाते हुए, अशान्ति बनाए रखना चाहता है ताकि वह सत्ता में बना रहे।
अक्टूबर, 2021 में तालिबान के गृह मंत्रालय के प्रवक्ता सईद खोस्ती ने कहा था कि “वह एक जिम्मेदार सरकार के रूप में अफगानिस्तान के नागरिकों, खासतौर पर धार्मिक अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के लिए जिम्मेदारी लेंगे।” हालाँकि, बीते एक साल से अब तक हजारा समुदाय पर छोटे-बड़े दर्जनों हमले हो चुके हैं। शिया अल्पसंख्यक हजारा समुदाय अनवरत इन हमलों को झेल रहा है। परिणाम, अफगानिस्तान में 90 के दशक का वो खूनी खेल फिर लौट आया है।