हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने महाराष्ट्र सरकार को यह सुनिश्चित करने के लिए कहा कि मुंबई में होने वाली हिंदू जन-आक्रोश मोर्चा की रैली में कोई हेट स्पीच न हो। महाराष्ट्र के कार्यक्रम को लेकर केरल के एक व्यक्ति की पीआईएल स्वीकार करना और फिर सरकार को ऐसे निर्देश देना यह बताता है कि न्यायालय का पूर्वानुमान है कि हिंदू रैली है तो वहां हेट स्पीच की संभावना हो सकती है। हालांकि, इसके लिए सर्वोच्च न्यायालय ने किन आंकड़ों का सहारा लिया गया है उसकी जानकारी नहीं है।
बीते साल मार्च, 2022 में सुप्रीम कोर्ट ने हिंदू सेना नामक संगठन द्वारा दाखिल चुनावी रेवड़ियों पर याचिका यह कहकर खारिज कर दिया था कि वह याचिका किसी पूर्व निर्धारित राजनीतिक उद्देश्य से प्रेरित थी और याचिकाकर्ता का इसमें कोई छिपा एजेंडा था। नूपुर शर्मा द्वारा अपने विरुद्ध याचिकाओं की क्लबिंग की याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी कैसी थी, यह भारत भर को याद होगा।
प्रश्न यह भी है कि देश में अल्पसंख्यक समुदाय द्वारा आयोजित रैलियों और उनमें दिए जाने वाली हेट स्पीच का संज्ञान कभी लिया? वह भी तब जेब ऐसी रैलियों का एक पूरा इतिहास रहा है। महाराष्ट्र के मुंबई में ही आज़ाद मैदान की रैली किसे याद न होगी? उसके बाद भी देश में होने वाली अन्य रैलियों को लेकर सर्वोच्च न्यायालय क्या तभी कुछ बोलेगा जब कोई हिंदू जनहित याचिका लेकर न्यायालय जाएगा? क्या सर्वोच्च न्यायालय को यह समझने की आवश्यकता नहीं है कि रैली आयोजित करना सबका अधिकार है?
भाषणों को लेकर न्यायालय ने राज्य सरकारों के ऊपर क्या ऐसे कोई प्रतिबंध पहले कभी लगाए? आखिर ऐसे कौन से मानक हैं जो माननीय कोर्ट को हेट स्पीच और वास्तविकता से दूर रखे हुए हैं। हेट स्पीच और आलोचना के बीच महीन सी दूरी है पर इसे तय कौन करेगा। आखिर न्यायपालिका ने खुद अभी तक हेट स्पीच को ही परिभाषित नहीं किया है। शायद इसलिए न्यायालय में दाखिल होने वाले हजारों मामलों में से किसी-किसी में हेट स्पीच नजर आती है तो किसी में एजेंडा।
बहरहाल, मुंबई में हुई ये रैली लव जिहाद के विषय में थी। जाहिर है, मामले की संवेदनशीलता को देखते हुए कोर्ट ने इस पर संज्ञान लिया हो पर रैली में प्रत्यक्ष रूप से आलोचना हुई है या द्वेषपूर्ण भाषण ये तय कौन करेगा? ‘लव जिहाद’ या सामान्यतः जबरन धर्मांतरण का मुद्दा बीते कुछ समय में मुखरता से सामने आया है।
बढ़ते मामलों के साथ हो रही हिंसा और अंतरराष्ट्रीय प्रभाव को देखते हुए कुछ राज्यों की सरकारों द्वारा कड़े कदम भी उठाए गए हैं। उत्तर भारत में जबरन धर्मांतरण के मामलों पर बात जरूर की गई है, विरोध भी हुआ है और कानून भी बने हैं। पर इसका असर दक्षिण भारत में भी व्यापक रूप से देखने को मिला है जहाँ कई क्षेत्रों में तो डेमोग्राफिक बदलाव सामने आए हैं। ऐसे में यदि एक समाज इसे लेकर रैली करता है तो जाहिर है उसमें अपनी बात रखने के लिए ही रैली कर रहा है।
राज्यों के अधिकार क्षेत्र में है समान नागरिक संहिता लाना: सुप्रीम कोर्ट
प्रश्न यह है कि ऐसे मामलों पर सुप्रीम कोर्ट की ओर से क्या संज्ञान लिया गया है? आखिर देखा जाए तो लव जिहाद की बात पहली बार न्यायपालिका से उठी जब केरल हाईकोर्ट ने इस पर टिप्पणी की थी। इस बात को भी बहुत समय हो गया। ऐसे में न्यायालय ने हिंदू समाज की रैली में हेट स्पीच का पूर्वानुमान लगाकर क्या समाज के अधिकार को कटघरे में खड़ा नहीं कर दिया है? क्या इसे कोर्ट की सांस्कृतिक निरक्षरता न मानी जाए?
इससे कौन इंकार कर सकता है कि लव जिहाद और जबरन धर्मांतरण के मामले तेजी से बढ़ रहे हैं? इन पर खुल कर बात हो, यह हर समाज के लिए आवश्यक है। धर्मनिरपेक्ष देश है तो फिर जबरन धर्मांतरण या मात्र एक समाज के खिलाफ ऐसे अपराध क्यों? ऐसे कृत्यों की आलोचना को कोई भी हेट स्पीच बता दे और देश का सर्वोच्च न्यायालय उसे मान ले, यह कहाँ तक तार्किक लगता है?
यह भी पढ़ें- विमर्श: भारतीय न्यायालयों की कार्यशैली में क्यों है उपनिवेशवाद की छाप
लव जिहाद या जबरन मतांतरण, जिस पर बात करने को हेट स्पीच माना जा रहा है, उसके आंकड़ों पर नजर डालें तो केरल में 2006 से 2012 के बीच 2500 से अधिक हिंदू महिलाओं द्वारा इस्लाम धर्म अपनाने की बात सामने आई हैं। बात अकेले केरल और इस्लाम धर्म की नहीं है। दक्षिण भारत में ईसाई मिशनरियों द्वारा बड़ी संख्या में मंतातरण करवाया गया है और इसमें अधिकतम लक्ष्य हिंदुओं को बनाया जाता है।
प्यू रिसर्च सेंटर के एक सर्वे के अनुसार भारत में हिंदू धर्म में सबसे ज्यादा धर्मांतरण देखा गया है। देश में ईसाई धर्म में परिवर्तित होने वाले तीन चौथाई (74%) हिंदू अकेले दक्षिण भारतीय राज्यों से हैं। यही वजह है कि दक्षिण भारत के राज्यों में क्रिश्चियन आबादी में इजाफा भी हुआ है। धर्म तटस्थ देश में धर्मांतरण कार्य अपराध नहीं है, पर यह देखना आवश्यक है कि इसके पीछे के कारण क्या है और किस प्रकार से यह हो रहा है, उसे देखना भी पीड़ित समाज का अधिकार है।
एक और सर्वे की बात करें तो दक्षिण भारत में 77 प्रतिशत लोग जिन्होंने हिंदू धर्म छोड़कर इस्लाम धर्म अपना लिया में महिलाएं 63 प्रतिशत थी। तो आंकड़ों के अनुसार धर्म परिवर्तन मामलों में या तो हिंदुओं को निशाना बनाया गया है या महिलाओं को और इनमें हिंसा, झूठ और लव जिहाद जैसे मामले देखने को भी मिले हैं। यहाँ तक की जबरन धर्मांतरण के मामलों में आतंकवादी संगठनों के नाम भी सामने आए हैं।
हालाँकि, जिस स्तर पर जबरन धर्मांतरण के मामले सामने आए हैं उस स्तर पर न तो कार्रवाई की गई है, न ही इसपर खुल के बात की जा रही है। शायद इसका कारण मामले की स्वनिर्मित संवेदनशीलता भी है जिसके अंतर्गत होने वाली घटनाओं की तरफ इशारा किसी की भावनाओं को चोट पहुँचा सकता है। इनपर बात करना कभी-कभी हेट स्पीच यानी द्वेषपूर्ण भाषण की श्रेणी में रख दिए जाते हैं।
देखा जाए तो 2014 के बाद से ही देश में हेट स्पीच के मामलों में 500 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई है। वैसे हेट स्पीच का नाम सुनते ही जेहन में धर्म से जुड़े मामले सामने आते हैं लेकिन ये संख्या हर तरह की हेट स्पीच का प्रतिनिधित्व करती है। बिलकुल प्रचार के विपरीत हेट स्पीच में मात्र हिंदू-मुस्लिम धर्म का मुद्दा नहीं है। इसमें देश, राष्ट्रवाद, रंग या किसी की पसंद नापसंद पर टिप्पणी भी शामिल हैं।
देश में ऐसे कई मुद्दे हैं जिन पर खुलकर बात होना आवश्यक है। स्वस्थ आलोचना से इन समस्याओं के हल मिलने की संभावनाएं भी बढ़ जाती है। इस पर बात नहीं की गई तो वो संभव है कि कई पहलुओं को नजरअंदाज कर दिया जाए और ऐसी उपेक्षा समाज, देश और संस्कृति को हानि पहुंचा सकती है।
कोर्ट द्वारा हेट स्पीच का संदर्भ जिस मामले में दिया गया वह संवेदनशील है पर उसकी पृष्ठभूमि समझते हुए माननीय कोर्ट से यह अपेक्षा की जा सकती है कि वो पूर्वानुमानों के आधार पर याचिका का निस्तारण न करके मामले की गंभीरता एवं उसके पीछे के कारणों पर भी नजर रखने के लिए सरकार को निर्देश जारी करेगी।