“लाग हरैला, लाग बग्वाली
जी रया, जागि रया
अगास बराबर उच्च, धरती बराबर चौड है जया
स्यावक जैसी बुद्धि, स्योंक जस प्राण है जो
हिमाल म ह्युं छन तक, गंगज्यू म पाणि छन तक
यो दिन, यो मास भेटने रया”
उत्तराखंड की कुमाऊँनी बोली की इन पंक्तियों का हिंदी अर्थ कुछ इस तरह से है – “तुम जीते रहो और जागरूक बने रहो। हरेला का ये दिन बार आता-जाता रहे, वंश-परिवार दूब की तरह पनपता रहे, धरती जैसा विस्तार मिले आकाश की तरह ऊँचाई प्राप्त हो, शेर जैसी ताकत और सियार जैसी बुद्धि मिले, हिमालय में हिम रहने और गंगा जमुना में पानी बहने तक इस संसार में तुम बने रहो”।
पहाड़ों के आशीर्वाद से भरा और प्रकृति के प्रेम से भरे इस त्योहार को हरेला कहा जाता है जिसे समूचे उत्तराखंड और विशेष तौर से कुमाऊँ क्षेत्र में बड़े ही ख़ास तरह से मनाया जाता है।
देवभूमि उत्तराखंड में प्रकृति प्रेम शुरुआत से ही देखा गया है। यहाँ प्रकृति के प्रति प्रेम कुछ यूँ है कि देवभूमि के लोगों ने प्रकृति के संरक्षण के लिए लड़ाई भी लड़ी और आवाज़ भी उठाई। इसी प्रेम का आधार है कि उत्तराखण्ड में प्रकृति के प्रति अपने प्रेम को बयां करता त्योहार हरेला मनाया जाता है। जो परिवार की खुशहाली के साथ साथ देवभूमि की मिट्टी हरियाली और समृद्धि का भी आभास कराती है।
इस दिन लोग हरेला से इस त्योहार को मनाते हैं। इस ख़ास पर्व से दस दिन पहले एक टोकरी में पांच से सात प्रकार के अनाज जैसे भट, गेहूं, जौ, सरसों आदि के बीज बोते हैं। और जब ये बीज पौधे बनकर बाहर निकलते है तब घर की बुज़ुर्ग महिला द्वारा इन्हे कटवाकर सबसे पहले देवताओं को चढ़ाया जाता है और उसके बाद घर के हर सदस्य के सर पर चढ़ाते है।
केवल इतना ही नहीं, अगर घर का कोई भी सदस्य घर से बाहर कहीं दूर रहता हो तो उसे चिठ्ठी द्वारा ये हरेला भेजा जाता है। बरसों से परदेश में रहने वाले लोग चिट्ठी से मिले इस प्रकृति देवी के आशीर्वाद के महत्व को जानते हैं ।
हरेला को लेकर ऐसी मान्यता है की यह जितना बड़ा होता है फसल को भी उतना ही लाभ मिलता है। और क्योंकि हरेला के पर्व पर ही उत्तराखंड में सावन माह की शुरुआत होती है तो इस दिन भगवान शिव और पार्वती माता की भी पूजा की जाती है। किसान इस दिन भगवान से अच्छी फसल के लिए प्रार्थना करते हैं।
हरेला को मनाने का मुख्य उद्देश्य केवल खुशहाली और समृद्धि ही नहीं बल्कि पर्यावरण को संरक्षित करना भी है। आज जिस तरह देश के विभिन्न राज्य बाढ़ से जूझ रहे हैं उसे देखते हुए ये त्यौहार देशभर में पर्यावरण से प्रेम और संरक्षण का संदेश देता है ये पर्व हमें बताता है कि प्रकृति और पर्यावरण पूजनीय है।
इस दिन लोग पीपल, वट, आम आदि के पौधों का किसी न किसी रूप में पूजन करते हैं जो पर्यावरण संरक्षण का संदेश देते हैं। वहीं ऋग्वेद में यह लिखा गया है कि इस त्यौहार से समाज कल्याण की भावना विकसित होती है। आज का युवा जिस तरह से पुराने त्यौहार भूलता ही जा रहा है उसी बीच हरेला त्यौहार की प्रसिद्धी आज भी युवा पीढ़ी को अपनी जड़ों से जोड़ने का काम कर रही है।
उत्तराखंड में युवाओं के बीच इस पर्व की जागरूकता एवं पर्यावरण के संरक्षण के लिए स्कूल और कॉलेजों में युवाओं को पौधे लगाने के माध्यम से जागरूक किया जा रहा है। जिस मौसम में हमारे चारों ओर हरियाली बिछी नज़र आती है, तब हमें हरेला का पर्व याद दिलाता है कि शांति एवं सरलता ही प्रकृति का मूल है और हमारा कर्तव्य है इसे बनाए रखना।
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