समकालीन इतिहास में इजराइल के भीतर घुस कर हमास के आतंकवादियों का हमला अप्रत्याशित और अविस्मरणीय घटना है। यह मुंबई पर पाकिस्तान प्रायोजित हमले से भी ज्यादा खूंखार घटना थी। इस्लामिक स्टेट की तर्ज़ पर इस पूरे हमले की हमास द्वारा वीडियोग्राफी की गयी ताकि पूरी दुनिया इस खूनखराबे को देख सके। इंटरनेट के माध्यम से किसी दूसरे व्यक्ति या समाज की दुर्दशा न केवल इन इस्लामिक आतंकवादी गुटों की अमानवीय मनोवृत्ति प्रदर्शित करती है बल्कि देखने वाले के मन में या तो इन गुटों के प्रति असीम घृणा पैदा करती है या अल्लाह पर असीम आस्था। और इस प्रकार दुनिया की आबादी को ध्रुवीकृत करती है, जिसमें किसी प्रकार के वार्तालाप या समझौते की गुंजाइश समाप्त हो जाती है।
शनिवार, 7 अक्टूबर की सुबह दक्षिण इसराइल के एक शहर पर हवा, जमीन और समुद्र से आतंकवादियों के एक बड़े समूह ने धावा बोला और सामान्य नागरिकों, जिनमें औरतें और बच्चे भी शामिल थे, की हत्या की और कई दर्जन लोगों को अपहृत कर गाज़ा के इलाके में ले गए। यह हमला जिस प्रकार हुआ उससे पता चलता है कि हमास सालों से इस हमले की तैयारी कर रहा था और इसमें उसको बाहरी ताकतों से मदद मिल रही थी। इस हमले में ड्रोन इस्तेमाल किये गए, पैराग्लाइडर का उपयोग किया गया, समुद्री नौकाएं उपयोग की गयीं, जिनके उपयोग की तैयारी तत्काल कुछ महीनों में कतई नहीं की जा सकती। तैयारी के लिहाज़ से हमास इस तरह का हमला प्लान करने में कितना सक्षम था, यह एक खुला प्रश्न है और आने वाले समय में इसपर बहस जारी रहेगी लेकिन ये तय बात है कि बिना किसी प्रशिक्षित मिलिट्री के सहयोग से लोगों को ग्लाइडर्स के माध्यम से जमीन पर कतई नहीं उतरा जा सकता और न ही इस स्केल पर योजना को कार्यान्वित किया जा सकता है।
इस सन्दर्भ में शक की सुई सीधे ईरान की तरफ जाती है और ईरान पर शक तब और गहरा हो जाता है जब समकालीन ईरान-इसराइल संबंधों को देखा जाये। जिस तरह से ईरान हमास के आतंकवादी हमले का समर्थन करने के लिए सामने आया, वह इस संभावना को बल देता है कि इस सुनियोजित षड़यंत्र में ईरान की सेना का हाथ हो सकता है। हमास के प्रतिनिधि ने भी ट्विटर पर शेयर किये गए अपने बयान में खुलेआम ईरान से हथियार और प्रशिक्षण मिलने का दावा किया है और इसके पहले भी हमास के प्रतिनिधि इसराइल पर हमला करने की तरफ इशारा कर चुके हैं।
आतंकवादी घटना को खुले राजनीतिक समर्थन के बाद हालाँकि ईरान ने इस आतंकी हमले की साजिश में शामिल होने से इंकार किया है लेकिन विगत कई वर्षों से ईरान का इसराइल के साथ जैसा सम्बन्ध रहा है, शायद ही कोई मना कर पाए कि ईरान के पास अपनी सेना के माध्यम से हमास को ऐसी ट्रेनिंग दिलवाने के स्पष्ट उद्देश्य नहीं थे या नहीं हैं। जिस तरह से कुछ वर्ष पहले इसराइल की खुफिया एजेंसी ने ईरान के परमाणु कार्यक्रम को क्षति पहुँचाई उसका बदला ईरान ने इसराइल पर इस हमले के माध्यम से ले लिया।
हालाँकि, इस हमले को केवल ईरान-इसराइल जैसे क्षेत्रीय विवाद के चश्मे से देखना पर्याप्त नहीं है और इस लेख में हम हमास की इस आतंकवादी कार्यवाही के दूरगामी और तात्कालिक परिणामों पर एक दृष्टि डालने का प्रयास करेंगे।
क्या विश्व के देश अच्छे आतंकी और बुरे आतंकी में फर्क करते रहेंगे?
हमास द्वारा इसराइल पर किया गया सुनियोजित हमला इस्लामिक विचारधारा के आतंकियों के लिए कोई नयी बात नहीं है। विगत में भारत लगातार पाकिस्तान समर्थित और प्रशिक्षित आतंकी संगठनों के हमले झेलता रहा है और वैश्विक मंचो पर आतंकवाद प्रायोजित करने वाले देशों के खिलाफ अपनी आवाज़ उठाता रहा है। अमेरिका और रूस दोनों खुद इस्लामिक आतंकवाद के शिकार रहे हैं। इसके बाद भी आतंकवाद को लेकर वैश्विक समुदाय लगातार अवसरवादी रवैया अपनाता रहा है। इस्लामिक आतंकी संगठनों द्वारा इस प्रकार के सुनियोजित हमले यह दिखाते हैं कि इस्लामिक आतंकवादी संगठनों को मुख्यधारा में शामिल करने का विचार सिर्फ कागज़ों पर अच्छा दिखता है, वास्तविकता में ऐसे इस्लामिक संगठन तब भी नहीं मानते जब वो राज्य पर कब्ज़ा कर लेते हैं और सार्वभौमिक शक्ति हो जाते हैं या उनकी मांगे मान ली जाती हैं। तालिबान इसका सबसे बढ़िया उदहारण है जो अफ़ग़ान राज्य पर कब्ज़ा करने के बाद से ही अपने शासन का अस्तित्व बनाये रखने के लिए पाकिस्तान के साथ युद्ध के लिए उतारू है और साथ ही साथ पूरी दुनिया से अपने शासन के अनुमोदन की इच्छा भी जता रहा है, लेकिन अपनी शर्तों पर, जिनमें एक आदिम कालीन इस्लामिक नियम कानून स्थापित करना शामिल है।
तालिबान जैसे संगठन ये भूल जाते हैं कि वो जिन राष्ट्रों से अनुमोदन चाहते है उनमें अधिकांश वही विधर्मी राष्ट्र हैं जिनके नागरिकों के खिलाफ वो दशकों से लड़ रहे हैं। इस तथ्य को भूल भी जाया जाये तो दुनिया औरतों को कोड़े से पिटवाने और उनको एक वस्तु की तरह उपयोग करने का अनुमोदन किस नैतिकता के आधार पर करेगी और इसके आने वाले समय में परिणाम क्या होंगे? इसीलिए इस्लामिक आतंकी संगठनों से किसी भी प्रकार के सम्बन्ध और सहानुभूति सभ्य राष्ट्रों के लिए मूर्खतापूर्ण साबित होते हैं जबकि सहानुभूति से आतंकी संगठनों को वैधानिकता मिलती है। ऐसे इस्लामिक आतंकी संगठनों से निपटने का एकमात्र उपयुक्त विकल्प यही है कि संवैधानिक राज्य आतंकी संगठनों से आखिरी आतंकवादी के खात्मे तक लड़ते रहें और वैश्विक स्तर पर ऐसे संगठनों को प्रश्रय देने वालों के राजनीतिक, आर्थिक और मानव अधिकारों को नकार दें।
जिस भी भूभाग में आतंकवाद को प्रश्रय मिल रहा है, वहां के नागरिकों के मानवाधिकार को स्वीकृति देना इन संगठनों को परोक्ष स्वीकृति देने जैसा है और सभ्य समाज के बीच इनकी उपस्थिति को अनुमोदित करना है। जो देश और समाज इजराइल पर हमास के हमले के बाद दोनों देशों से संयम दिखाने की अपील कर रहे हैं वो आतंकियों को पोषित कर रहे हैं। इस बर्बर आतंकी हमले में कोई दो पक्ष नहीं हैं, सिर्फ एक नैतिक पक्ष है जिसको किसी अदालत या वैश्विक मंच पर नैतिकता की कसौटी पर जिम्मेदार ठहराया जा सकता है, तो वो पक्ष केवल इसराइल है। आतंकी संगठनों और किसी विधिक मान्यताप्राप्त राष्ट्र में वही फर्क है जो माफिया और पुलिस में होता है। हमास के आतंकवादियों को दूसरा पक्ष मानना आतंकवादियों के साथ खड़े होना है।
गाज़ा और इस्लामिक दुनिया के लोगों ने हमास को प्रश्रय देकर और उनके फैलाये आतंकवाद का विरोध न करके आतंकवाद फ़ैलाने में सहायता दी है, जो इसराइल के लोगों के विरुद्ध युद्ध में परोक्ष रूप से शामिल होने जैसा है। आखिर जो लोग इसराइल पर हमले का जश्न मना रहे थे उनके साथ सहनुभूति कैसे दिखाई जा सकती है? एक तरफ आतंकी संगठनों को प्रश्रय देने वाली जनता के मानव अधिकारों की चिंता करना और दूसरी तरफ आतंकवाद से पीड़ित लोगों से ये उम्मीद करना कि वो अपने राज्य को आतंकवादियों के खिलाफ कार्यवाही से मानव अधिकारों के नाम पर रोकेंगे, मूर्खता की पराकाष्ठा है।
विश्व के अग्रणी देशों के ढुलमुल रवैये के कारण ही पिछले कई दशकों में विद्वानों और चिंतकों की एक फौज तैयार हुई है जो राज्य के नागरिकों और राज्य के बीच विभेद उत्पन्न करके एक ग्रे एरिया बनाये रखना चाहती है ताकि मानव अधिकार संगठनों की दुकान चलती रह सके। यह आतंकवाद के पीड़ितों के खिलाफ एक बौद्धिक साज़िश है। मानव अधिकारों के नाम पर आतंकवादियों का बचाव करने वाले ऐसे विद्वानों को बड़े मीडिया संस्थानों द्वारा प्रश्रय मिलता है और इस प्रकार हमास जैसे संगठनों का अस्तित्व बनाये रखा जाता है। कैसे विशेषज्ञों की यह जमात मीडिया के माध्यम से काम करती है यह इसराइल पर हुए इस हमले में दोहा इंस्टिट्यूट फॉर ग्रेजुएट स्टडीज के हेड के वक्तव्य में देखा जा सकता है –
Tamer Qarmout, head of the Public Administration programme at the Doha Institute for Graduate Studies, says that while Hamas is popular in Gaza, it is unclear if all Palestinians in the enclave support its tactics.
यदि आतंकवाद को खत्म करना है तो आतंकवाद को प्रश्रय देने वाले राज्य और राज्य के नागरिकों को अलग अलग करके देखने की प्रवृत्ति छोड़नी होगी क्योकि नागरिकों के समर्थन के बिना राज्य पर नियंत्रण बनाये नहीं रखा जा सकता। यूरोप और अमेरिका में भी हमास समर्थित भीड़ फिलिस्तीन के नाम का झंडा लिए घूम रही है जो नागरिक आतंकवाद के प्रसार को रेखांकित करने के लिए पर्याप्त है। बहस इस बात पर होनी चाहिए कि ऐसे प्रतिदिन के नागरिक आतंकवाद से कैसे निपटा जाये। ये ख़त्म होना चाहिए और इसको ख़त्म करने के लिए आतंकियों को मानव अधिकारों की आड़ देने वाले विशेषज्ञों और इनको आवाज़ देने वाले मीडिया संस्थानों से किनारा करना प्राथमिक आवश्यकता है।
वास्तव में आतंकी और आतंकवादियों के मानव अधिकारों को लेकर चिंतित विशेषज्ञ दुनिया के देशों में फैले बौद्धिक भ्रम का फायदा उठा कर ही इस घटना को अंजाम देने तक पहुंचे हैं। इस घटना में भी यूरोपियन यूनियन का भ्रम साफ़ दिखाई देता है। एक दिन पहले ही यूरोपियन यूनियन ने फिलिस्तीन को दी जाने वाली सारी आर्थिक सहायता रोकने की घोषणा की जो एक सही दिशा में लिया कदम था, लेकिन थोड़ी ही देर में यूरोपियन यूनियन के एक अन्य अधिकारी ने इस पर प्रश्नचिन्ह खड़े कर दिए।
अब देशों को यह समझ लेना चाहिए कि आतंकवाद एक वैश्विक प्रदूषण है जिसका ख़ात्मा वैश्विक प्रयास से ही संभव है। आतंकवाद गरीबी, भुखमरी और पिछड़ेपन जैसी समस्याओं की समाप्ति की लागत को बढ़ा कर वैश्विक असमानता को या तो बनाये रखने या बढ़ाने में ही मदद करता है, जो वैश्विक सम्पोषित विकास के लक्ष्यों की प्राप्ति के प्रसार में बाधा है।
इसराइल पर हमले का अंतराष्ट्रीय राजनीति पर प्रभाव
सवाल ये उठता है कि हमास ने इसराइल पर हमले के लिए यही समय क्यों चुना? इस सवाल का थोड़ा-थोड़ा जवाब इसराइल के भूगोल, मध्य पूर्व में और विश्व राजनीति में हो रहे परिवर्तनों में छिपा है। सबसे पहले सऊदी अरब और इसराइल के बीच सामान्य होते संबंधों के संभावित परिणामों की तरफ देखना उचित होगा। पिछले कुछ समय से इसराइल और सऊदी अरब के बीच सम्बन्ध तेज़ी से सामान्य हुए हैं और अब दोनों राष्ट्र रणनीतिक भागीदारी बनाने के करीब आ चुके थे। अरब-इसराइल गठजोड़ से सीधे ईरान को तकलीफ है क्योकि ईरान इस्लामिक दुनिया में सऊदी अरब का प्रतिद्वंदी है और ईरान और सऊदी अरब के बीच इस्लामिक दुनिया का नेता बनने की लड़ाई दशकों पुरानी है। तात्कालिकता में देखा जाये तो ईरान के सर्वोच्च नेता अयातुल्लाह खोमैनी ने अरब इसराइल संबंधों को सामान्य करने के प्रयासों पर पहले ही घोषणा कर रखी थी कि ऐसा करने वाले बड़ा जोखिम उठा रहे हैं।
हमास ने इसराइल पर हमला करके यह दिखा दिया है कि यहूदी राज्य इसराइल को अग्रणी मुस्लिम राष्ट्रों के साथ सम्बन्ध बनाने की कीमत चुकानी पड़ेगी। यहूदी राज्य को इसलिए भी निशाना बनाया गया है क्योकि सऊदी अरब जैसे मुस्लिम राज्य को निशाना बनाने पर दुनिआ के मुस्लिमों की सहानुभूति हमास को नहीं मिलती। इस हमले का एक राजनीतिक उद्देश्य फिलिस्तीन की आड़ में हमास के आतंकी कृत्य के लिए सहानुभूति पैदा करके इस्लामिक दुनिया में एकता स्थापित करने का प्रयास करना है। ऐसा नहीं है कि इससे इसराइल और सऊदी अरब के बीच बढ़ते संबंधों की गाड़ी पटरी से उतर जाएगी, लेकिन इस हमले ने दोनों देशों के मध्य बढ़ते सम्बन्ध को निश्चित रूप से कुछ समय के लिए सुसुप्तावस्था में भेज दिया है।
सऊदी अरब के लिए भी इस हमले में सन्देश छिपा है कि इसराइल के साथ बढ़ते सम्बन्ध उसको इस्लामिक दुनिया में अलग थलग कर सकते हैं और उसके प्रतिद्वंदी ईरान को इस्लामिक दुनिया का एकतरफा नेता बना सकते हैं। टर्की यूरोप का एक और देश है, जो इस्लामिक दुनिया में नेता बनने का सपना देख रहा है, और इसलिए वो भी लम्बे समय तक इसराइल की गाज़ा में कार्यवाही को नहीं देख सकता। हमास के इस हमले ने रूस-यूक्रैन विवाद को भी ठन्डे बस्ते में डाल दिया और पुतिन को कुछ समय के लिए मौका दे दिया।
यह हमला अमेरिका और यूरोप की राजनीति को भी प्रभावित करेगा। पूर्वी यूरोप के देश पहले से यूरोपियन संघ के शरणार्थी कार्यक्रमों का विरोध कर रहे हैं और इस हमले के बाद तो यूरोपीय संघ का शरणार्थी कार्यक्रम लम्बे समय तक ठन्डे बस्ते में चला गया लगता है। रूस-यूक्रैन युद्ध में यूक्रैन को आर्थिक और सामरिक संसाधनों से सहायता मुहैया करा रहे पश्चिमी देशों के सामने एक और युद्ध को वित्तीय सहायता देने की चुनौती आ खड़ी हुई है। क्या अमेरिका और बाकी पश्चिमी देश एक और मोर्चे पर युद्ध को वित्तीय और सामरिक सहायता देने की हालत में हैं? ये एक बड़ा प्रश्न है जिसका जवाब आने वाले दिनों में ही मिलेगा। अगले वर्ष होने वाले अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव में भी यह घटना बड़ा मुद्दा बनने वाली है क्योकि यहूदी संगठन अमेरिकी चुनाव में धन मुहैया करने के मामले में बड़े अंशदाता हैं और कोई भी अमेरिकी राष्ट्रपति उनको नज़रअंदाज़ नहीं कर सकता। इसके अतिरिक्त विश्व के देश हमास के इस आतंकी हमले में हुई अपने नागरिकों की हत्या से मुँह नहीं मोड़ सकते, खास कर के वो देश जहाँ लोकतान्त्रिक शासन प्रणाली है। इस सन्दर्भ में भी पश्चिमी यूरोप और अमेरिका इसराइल की हमास के विरुद्ध कार्यवाही को समर्थन करने के लिए बाध्य तो हैं, लेकिन क्या वो एक और लम्बे युद्ध को सहायता दे सकते हैं, ये बड़ा प्रश्न है।
अगर युद्ध का दायरा बढ़ता है तो क्या होगा?
हमास के आतंकी कृत्य के भू-रणनैतिक प्रभाव तात्कालिक और दूरगामी, दोनों होने वाले हैं। हमास की यह हरकत पूरे मध्य-पूर्व को युद्ध में झोंकने के लिए पर्याप्त है, और यह एक प्रतिबंधित संगठन द्वारा अंजाम दी गयी घटना है. जिसके उद्देश्य आतंकवाद के माध्यम से संवैधानिक राज्यों पर नियंत्रण स्थापित करना और अपने कार्यक्रमों के लिए वैश्विक स्वीकृति प्राप्त करना है। ऐसे किसी भी संगठन के साथ समझौता करना इस संगठन को मान्यता देने
जैसा होगा। पश्चिमी दुनिया अगर अब कोई कड़ा निर्णय नहीं लेती तो गाज़ा के रणनीतिक क्षेत्र में एक और दावेदार खड़ा हो जायेगा, जो सिर्फ अपनी शर्तों पर समझौता चाहता है और जो अपनी शर्तें मनवाने के लिए कभी भी आतंकी वारदात कर सकता है। हमास ईरान के नियंत्रण में है और हमास को समझौता वार्ता करके यदि बढ़ावा दिया जाता है तो ईरान की हिज़्बुल्लाह के बाद हमास के मार्फ़त इसराइल को घेरने की कोशिश सफल हो जाएगी। तत्काल समझौता होने की दशा में ईरान समर्थित आतंकी संगठनों से घिरे इसराइल की भू रणनीतिक शक्ति सीमित हो जाएगी इसलिए इसराइल के लिए यह अपने अस्तित्व और प्रभाव को बचाने की लड़ाई है।
अब यहाँ पर इसराइल की भौगोलिक स्थिति के रणनीतिक महत्व को समझना भी जरूरी हो जाता है। इसराइल स्वेज नहर के यूरोपीय मुहाने पर सबसे बड़ी सैन्य ताकत है और अगर इसराइल हमास की करतूतों के साथ समझौतावादी रवैया अपनाता है तो कल को हमास को नियंत्रित करने वाली ताकतें पूरे भूमध्य सागर से होने वाले व्यापार को हमास के माध्यम से नियंत्रित करेंगी और अंत में इसराइल का अस्तित्व ही खतरे में आ जायेगा।
इसराइल ने लेबनान सीमा पर अपने लड़ाकू विमान भेजने शुरू कर दिए हैं और अपने निवासियों को लेबनान से सटी सीमा वाले इलाके खाली करने का आदेश दिया है। ईरान समर्थित हेज़बोल्ला के लड़ाके भी इसराइल का जवाब देने के लिए तैयार बैठे हैं। यह इस युद्ध के फैलने का संकेत है। लेबनान के ऊपर इसराइल का हमला या गाज़ा में इसराइल की सैन्य कार्यवाही का लम्बा खिंचना परिस्थिति को और पेचीदा बना देगा, लेकिन सारे संकेत घटनाक्रम के इसी दिशा में जाने का इशारा करते दिख रहे हैं।
चीन की भूमिका
आज की कोई भी भू रणनीतिक कहानी चीन के बिना पूरी नहीं है, इसलिए इस हमले के परिणामों को और व्यापक कर के देखते हैं। आज जब दुनिया में चीन एक नए ध्रुव होने की तरफ बढ़ रहा है तो वो मध्य एशिया के व्यापारिक मार्गों को अपने नियंत्रण में रखना चाहता है और ईरान दशकों से पश्चिमी दुनिया द्वारा प्रतिबंधित होने के नाते इस कार्य के लिए उसका उपयुक्त सहयोगी है। अभी तक चीन ने हमास के हमले की आलोचना करना तो दूर रहा, बल्कि अपने बयानों के माध्यम से इस प्रकार का संकेत दिया है कि इसराइल को समझौते के लिए बैठना चाहिए। चीन के इस प्रकार के रुख का इसराइल-चीन संबंधों पर भविष्य में क्या असर पड़ेगा, ये आने वाले समय में पता चलेगा लेकिन इतना तय है कि चीन की भूमिका को देखते हुए आपसी सम्बन्ध पहले जैसे नहीं रह पाएंगे। चीन अपने बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव के तहत ईरान और टर्की में तेज़ी से पैर पसार रहा है और अगर ये कहा जाये कि इन देशों की चीन के ऊपर निर्भरता बढ़ती ही जा रही है तो गलत नहीं होगा। हालाँकि यह सोचना भी गलत होगा कि ईरान और रूस जैसे देश अपनी दीर्घकालिक स्वायत्तता को चीन के हाथ में जाने देंगे लेकिन दोनों देश मध्य पूर्व में अमेरिका के प्रभुत्व का खात्मा चाहते हैं और ऐसा इसराइल को चुनौती देकर किया जा सकता है।
इसराइल के ऊपर हुए इस आतंकी हमले में ईरान का खुला या छिपा सहयोग नए अंतरराष्ट्रीय ध्रुवीकरण के संकेत भी देता है। ईरान लगातार रूस को यूक्रैन के विरुद्ध युद्ध में ड्रोन और अन्य हथियार मुहैया करा रहा है और चीन के साथ अपने सम्बन्ध प्रगाढ़ कर रहा है। ईरान को रूस और चीन के साथ प्रगाढ़ होते संबंधों में अवसर दिख रहा है, जहाँ वह खुद को इस्लामिक दुनिया में सर्वमान्य नेता के तौर पर स्थापित कर सकता है और पश्चिमी देशों पर दबाव डाल सकता है। अभी अभी सीरिया के राष्ट्रपति, जिन पर पश्चिमी देशों ने अनेक प्रतिबन्ध लगा रखे हैं, चीन की यात्रा से लौटे हैं, जहाँ उनका गर्मजोशी से स्वागत किया गया। इसके पहले चीन ईरान और सऊदी अरब के बीच समझौते की पहल भी कर चुका है। एशिया के लगभग सभी देश चीन के प्रभाव में हैं, जिसमें भारत भी है जो चीन का दीर्घकालिक प्रतियोगी है, तो चीन का हित एक तरफ तो मध्य एशिया के देशों को सुरक्षा और आर्थिक मामलों में खुद पर निर्भर बनाये रखना है और दूसरी तरफ भारत और पश्चिमी दुनिया के बढ़ते संबंधों की गति कम करके भारत के विकास की गति को कुंद करना है।
भारत पर प्रभाव
अभी-अभी संपन्न हुए जी २० सम्मलेन में भारत-अरब-यूरोप व्यापारिक मार्ग की घोषणा चीन के बेल्ट एंड रोड प्रोजेक्ट की प्रतियोगी मानी जा रही है, जो चीन के लिए बड़ी समस्या है। यह योजना भारत और यूरोप के बीच की दूरी कम करके भारतीय आयात और निर्यात दोनों को कहीं ज्यादा प्रतियोगी बना देगी और भारत की निर्भरता मध्य एशिया में ईरान जैसे देशों में समाप्त कर देने की क्षमता रखती है। यह ध्यान रहे कि भारत पहले से ईरान और रूस से होकर यूरोप के बाज़ार में पहुंचने के मार्ग पर काम कर रहा है, जिसे उत्तर दक्षिण कॉरिडोर का नाम दिया जा रहा था। इस कॉरिडोर का ड्राई रन भी भारत ने पूरा कर लिया था लेकिन यह कॉरिडोर भारत के यूरोपीय व्यापार की ईरान के ऊपर निर्भरता बढ़ा देता, इसलिए यह भारत के व्यापारिक और रणनीतिक हित में है कि वह अन्य वैकल्पिक मार्गों पर भी काम करता रहे। यह ज्ञात रहे कि यूरोप पहुंचने के लिए भारत के पास स्वेज़ नहर के रूप में एक व्यवस्था हमेशा से है लेकिन नए व्यापारिक मार्ग आवागमन के विकल्पों को बढाकर ज्यादा कूटनीतिक स्वतंत्रता प्रदान करते हैं। यह पहले ही बताया जा चूका है कि हमास के इसराइल के ऊपर हमले ने स्वेज़ नहर से होने वाले व्यापर पर खतरा कैसे बढ़ा दिया है। इसका संकेत इस बात से मिलता है कि इसराइल के युद्ध घोषणा के बाद सोमवार को कच्चे तेल की कीमतें बढ़ गयीं।
अरब देशों से होकर यूरोप पहुंचने वाला कोई भी मार्ग नार्थ साउथ कॉरिडोर की समाप्ति नहीं भी होगी तो यह नया कॉरिडोर भारत की ईरान और स्वेज़ नहर के ऊपर निर्भरता जरूर कम करेगी । भारत जो एशिया में चीन के प्रतिद्वंदी के रूप में लगातार उभर रहा है, एशिया में चीन के नेतृत्व और वर्चस्व के लिए अगले दशक तक बड़ा खतरा बन कर उभर सकता है। लगभग सभी आर्थिक संस्थाएं यह मान रहीं हैं कि वर्तमान परिस्थितियों के अनुसार भी भारत का जीडीपी २०३५ तक १० से १२ ट्रिलियन डॉलर हो जायेगा जबकि चीन की जीडीपी वृद्धि दर लगातार कम हो रही है। इसका मतलब है भारत अब अपने और चीन के मध्य अंतर को कम करने की तरफ बढ़ चला है। इसी तरह ईरान का हित भी भारत को अपने ऊपर निर्भर बनाये रखने में है क्योकि भारत की अरब सागर क्षेत्र में बढ़ती ताकत इस क्षेत्र में ईरान के प्रभाव को कम करती है खास कर के तब जब भारत, सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात और इसराइल के व्यापारिक और रणनीतिक हित समान हो जाएं जिसके इस नए प्रस्तावित कॉरिडोर के बाद हो जाने की सम्भावना है। इसलिए चीन, ईरान और रूस में से कोई भी भारत को अरब के रास्ते यूरोप में प्रवेश करते नहीं देखना चाहता। इस प्रकार एशिया में उभरते नए ब्लॉक की सबसे कमजोर कड़ी अरब-इसराइल सम्बन्ध पर हमला करके इस नए ब्लॉक को समाप्त करने का प्रयास उन ताकतों द्वारा किया गया है जो ऐसे किसी ब्लॉक की उत्पत्ति में अपने लिए खतरा देखती हैं।
इसराइल का समझौतावादी रवैया रणनीतिक रूप से स्वेज़ नहर को हमेशा के लिए असुरक्षित बना देगा और भारत के यूरोप को जाने वाले व्यापारिक मार्गों को ईरान के पूर्ण प्रत्यक्ष या परोक्ष नियंत्रण में ले जायेगा और क्योकि ईरान को अब चीन और रूस का समर्थन है इसलिए भारत की मजबूरी हो जाएगी की वह इस गुट को हरसंभव संतुष्ट रखे। यह एक तरह से इस गुट का हिस्सा बनने जैसा होगा जो भारत की रणनीतिक स्वायत्तता के लिए ठीक नहीं है। इस संघर्ष के परिणाम चाहे जो भी हों लेकिन अब भारत को भी हरमुज की खाड़ी और स्वेज नहर क्षेत्र में अपने हित सुरक्षित करने के लिए अंडमान निकोबार द्वीपसमूह का तेज़ी से सैन्यीकरण करना होगा ताकि मलक्का जलडमरूमध्य से होने वाले व्यापार को भारत नियंत्रित करके दबाव बना सके। हालाँकि यह इतना आसान नहीं है क्योकि बंगाल की खाड़ी में मलक्का के आस पास का समुद्री क्षेत्र में भारत के अतिरिक्त इण्डोनेशिआ का भी स्वामित्व है। इसके अतिरिक्त अब भारत को चार देशों के संगठन जिसमें भारत एक सदस्य है, क्वाड का सैन्यीकरण करने के लिए भी आगे बढ़ना होगा। ज्ञात हो कि क्वाड के सैन्यीकरण का भारत प्रतिरोध करता रहा है।
भारत के लिए इस हमले के आतंकवाद से जुड़े निहितार्थ भी हैं। हमास का यह हमला इस्लामिक दुनिया में एकता लाने का प्रयास है। ईरान की क्रन्तिकारी सरकार पिछले कुछ वर्षों से लगातार आंतरिक संकट का सामना कर रही थी और आंतरिक संकट से बाहर निकलने का सबसे बढ़िया तरीका बाहर एक शत्रु ढूंढना है और इसराइल से बढ़िया निशाना कुछ हो ही नहीं सकता था। इसी तरह पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान के बीच डुरंड लाइन को लेकर रोजाना गोलीबारी की खबरें आ रही थीं। अभी कुछ दिन पहले ही पाकिस्तान ने अफ़ग़ान शरणार्थियों को एक महीने के अंदर देश छोड़ने का आदेश दे दिया था। यह बता ही दिया गया है कि सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात बाकी इस्लामिक देशों से अलग राह लेने की दिशा में आगे बढ़ रहे थे। ऐसी दशा में ईरान समर्थित हमास का यह आतंकी कृत्य इस्लाम के नाम पर दुनिया के मुसलमानों के लिए एक होने का सन्देश है।
यहाँ यह बताना आवश्यक है कि १९७० के दशक के अंत में हुई ईरानी क्रांति ने ही रूस के खिलाफ अफ़ग़ान जिहाद और कश्मीर में पाकिस्तान समर्थित जिहाद का रास्ता खोला। आज ईरान उसी इतिहास को दोहराने की कोशिश कर रहा है और अगर ईरान सफल रहता है तो भारत को देश के भीतर बैठे और बाहर से प्रायोजित आतंकवाद का सामना करने के लिए भी तैयार रहना होगा।
जहाँ तक भारत की अंदरूनी राजनीति का प्रश्न है तो कांग्रेस ने एक घिसीपिटी लाइन पकड़ कर अपने उद्देश्य स्पष्ट कर दिए हैं कि वह भारत के आर्थिक और रणनीतिक हितों के ऊपर तुष्टिकरण की राजनीति को तरजीह देती है। कांग्रेस का एकमात्र स्थिर वोट बैंक मुस्लिम हैं जिनको कांग्रेस किसी भी दशा में खोना नहीं चाहती। इस निर्णय के बाद पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद के सम्मुख भी कांग्रेस क्या स्टैंड लेगी, यह कांग्रेस ने स्पष्ट कर दिया है। भले ही कांग्रेस इस बात को खुल कर न बोले लेकिन यह समझ में आ रहा है कि इस्लामिक आतंकवाद से निपटने के मुद्दे पर कांग्रेस की विदेश नीति वही रहने वाली है जो २०१४ के पहले थी। जाहिर है भारत का बहुसंख्यक समाज कांग्रेस के इस रवैये को स्वीकार नहीं करने वाला और यह तथ्य २०२४ के चुनाव परिणामों की दिशा स्पष्ट कर देता है। इस वैश्विक उथलपुथल में भारत की नाव भाजपा के हाथों में ही रहना लगभग तय है।
बदलती दुनिया का चेहरा कैसा होगा?
इस विश्लेषण से पांच मुख्य बातें सामने आती हैं – एक, दुनिया में चीन और अमेरिका के बीच वर्चस्व की लड़ाई तेज़ होती जा रही है और इसराइल के खिलाफ हमास की कार्यवाही वैश्विक युद्ध की तरफ ले जा सकती है क्योकि दोनों पक्षों के पास समझौता करने के लिए गुंजाइश बहुत कम है। दो, जिस तरह से पश्चिमी देश और अमेरिका विगत दशकों में इस्लामिक आतंकवाद को प्रश्रय देते आये थे, वैसे ही चीन भी इस्लामिक आतंकवादी संगठनों को प्रश्रय देने की नीति पर चल चुका है। तीन, रूस, चीन और ईरान एशिया में एक गुट बना चुके हैं और उनको बाकियों पर इस मामले में स्पष्ट बढ़त है। चीन, रूस और ईरान की इस बढ़त की सबसे बड़ी वजह पश्चिमी देशों का आतंकवाद पर भ्रमित रवैया है। चार, इस्लामिक दुनिया का आतंकवाद के नाम पर एक होना भारत के लिए अच्छी खबर नहीं है और अगर ईरान सफल होता है तो भारत के लिए आतंकवाद के मोर्चे पर चुनौतियाँ बढ़ जाएँगी। पांच, दुनिया में आ रहे बदलावों के संकेत मिलने के बावजूद भारत की आंतरिक राजनीति में फिलिस्तीन के साथ खड़े होकर कांग्रेस भविष्य में होने वाली किसी भी इस्लामिक आतंकवादी घटना की जिम्मेदारी लेने का काम किया है। कांग्रेस के लिए इस निर्णय के दूरगामी परिणाम होंगे।