उत्तराखंड के हल्द्वानी में रेलवे की जमीन से अवैध कब्ज़ा हटाने पर जमकर बवाल मचा रहा। मामले में सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद फिलहाल ठहराव आ गया है। नैनीताल जिले के हल्द्वानी क्षेत्र के बनभूलपुरा और गफूर बस्ती में रेलवे की जमीन से अवैध कब्जा हटाने को लेकर बृहस्पतिवार को सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हुई। सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के उस आदेश पर स्टे लगा दिया है जिसमें उत्तराखंड हाईकोर्ट ने रेलवे को 7 दिन में अतिक्रमण हटाने का आदेश दिया था।
क्या था पूरा मामला
साल 2007 में उत्तराखंड उच्च न्यायालय बार एसोसिएशन के एक सदस्य, जो इलाहाबाद (अब प्रयागराज) से हल्द्वानी आए थे, उनकी मांग थी कि उत्तर प्रदेश के लोगों के लिए काठगोदाम और इलाहाबाद के बीच एक ट्रेन सेवा शुरू की जाए।
उनकी इस मांग को ठुकरा दिया गया। बताया गया कि हल्द्वानी रेलवे स्टेशन के पास नई ट्रेन चलाने के लिए अधिक जगह नहीं है। तब सबसे पहले यह अतिक्रमण का मुद्दा उठा था। आरोप सामने आए कि हल्द्वानी स्टेशन के पास रेलवे की 29 एकड़ जमीन पर कब्जा है।
साल 2007 में रेलवे ने बड़े हिस्से में अतिक्रमण के विरुद्ध अभियान चलाया था। उस दौरान स्थिति तनावपूर्ण बन गई थी
रेलवे ने इसी वर्ष उत्तराखंड हाईकोर्ट में एक हलफनामा दायर किया जिसमें कहा गया कि रेलवे ने अतिक्रमणकारियों से कुछ हिस्से को मुक्त करवा दिया है लेकिन पूरी तरह से नहीं, रेलवे ने हाईकोर्ट में अपील की कि उत्तराखंड हाईकोर्ट रेलवे की जमीन वापस हासिल करने के लिए राज्य के अधिकारियों को निर्देशित करे।
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यह मुद्दा साल 2013 में फिर से सामने आया जब हल्द्वानी निवासी रविशंकर जोशी ने हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका (पीआईएल) दायर की, जिसमें 9.40 करोड़ रुपये की लागत से गौला नदी पर बने एक पुल के ढहने की जांच का आदेश देने की प्रार्थना की गई।
एडवोकेट कमिश्नर ने इस क्षेत्र का दौरा किया और 26 जून, 2015 को एक रिपोर्ट सौंपी। रिपोर्ट में बताया गया कि हल्द्वानी स्टेशन के पास रेलवे ट्रैक के नज़दीक रहने वाले अतिक्रमणकारियों के अवैध खनन में लिप्त होने के कारण पुल गिर गया।
रिपोर्ट के बाद, हाईकोर्ट ने रेलवे को तलब किया जिसमें रेलवे ने फिर दोहराया कि उनकी जमीन पर कब्ज़ा हुआ है।
अदालत ने 9 नवंबर, 2016 को एक अंतरिम आदेश पारित किया, जिसमें अधिकारियों को कथित अतिक्रमण को हटाने का निर्देश दिया गया। दावा है कि हाईकोर्ट ने रेलवे को पार्टी बनाकर इलाका खाली कराने के लिए कहा।
मामले में हरीश रावत सरकार की एंट्री
उत्तराखंड की तत्कालीन हरीश रावत सरकार ने बाद में हाईकोर्ट से अपील की और अंतरिम आदेश की समीक्षा करने की मांग की।
हरीश रावत सरकार ने कहा कि अतिक्रमणियों को हटाया नहीं जा सका क्योंकि रेलवे संपत्ति का कोई सीमांकन नहीं था। इस सरकार ने एक जवाबी हलफनामा भी दायर किया, जिसमें कहा गया कि भूमि राजस्व विभाग की है।
10 जनवरी, 2017 को हाईकोर्ट ने एक बार फिर राज्य सरकार को अतिक्रमण हटाने को सुनिश्चित करने का निर्देश दिया।
जन सहयोग सेवा समिति ने मामले में शामिल पार्टियों (कब्जाधारियों) का प्रतिनिधित्व करते हुए राज्य सरकार के साथ सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया और सुप्रीम कोर्ट को सूचित किया
कि “हाईकोर्ट की याचिकाओं में भी कभी भी अनधिकृत कब्जेदारों की बात नहीं की गई। यह भी स्पष्ट नहीं है कि विचाराधीन भूमि रेलवे की है या नहीं। 29 एकड़ का कोई सीमांकन नहीं है।”
याचिकाकर्ताओं ने आगे कहा कि पूरे क्षेत्र में स्थायी संरचनाएं हैं – जिनमें स्कूल, कॉलेज, स्वास्थ्य केंद्र,घर, मस्जिद आदि शामिल हैं।
अदालत को बताया गया कि याचिकाकर्ताओं का कब्जा कई दशकों से है और हाईकोर्ट के आदेश से कम से कम 50,000 लोग प्रभावित होंगे।
इन प्रस्तुतियों पर विचार करते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने 18 जनवरी, 2017 को अतिक्रमणकारियों को निर्देश दिया कि वे हाईकोर्ट का रुख करें और अपने आदेश को वापस लेने या संशोधित करने के लिए अलग-अलग आवेदन दायर करें।
इसके अलावा, सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट को 13 फरवरी, 2017 से प्रभावी तीन महीने की अवधि के भीतर ऐसे सभी आवेदनों को निपटाने का निर्देश दिया गया था। साथ ही हाईकोर्ट द्वारा जारी निर्देश तीन महीने की अवधि के लिए रोके गए।
सुप्रीम कोर्ट के आदेशों का पालन करते हुए, हाईकोर्ट ने रेलवे को निर्देश दिया कि वह 31 मार्च 2020 तक भूमि के कानूनी मालिक का पता लगाने के लिए एक अधिकारी नियुक्त करे।
हाईकोर्ट ने रेलवे को पीपी अधिनियम की धारा 4 के तहत विवादित भूमि के कानूनी मालिक का पता लगाने, प्रत्येक व्यक्ति को नोटिस जारी करने और योग्यता के आधार पर उनकी आपत्तियों को सुनने के लिए एक अधिकारी नियुक्त करने का निर्देश दिया।
रेलवे ने गहनता से जांच के बाद अपनी रिपोर्ट जारी की। रेलवे की रिपोर्ट के मुताबिक, अतिक्रमण की जद में आए 4365 वादों की रेलवे प्राधिकरण में सुनवाई हुई। जिसमें वादों का निस्तारण हो चुका है। लेकिन अतिक्रमणकारी कब्जे को लेकर कोई ठोस सबूत नहीं दिखा पाए।
वर्ष 2022 में इस क्षेत्र में रेलवे की जमीन पर किए गए अतिक्रमण को हटाने में देरी होने की बात कहते हुए पुन: रिट याचिका दायर की गई। इस मामले की सुनवाई करते हुए हाईकोर्ट ने वर्ष 2022 की शुरुआत में नैनीताल जिला प्रशासन को रेलवे अधिकारियों के साथ मिलकर अतिक्रमण हटाने की योजना तैयार करने का निर्देश दिया था।
रेलवे अधिकारियों और नैनीताल जिला प्रशासन ने अप्रैल 2022 में एक बैठक की, जिसके बाद रेलवे ने अतिक्रमण हटाने के संबंध में हाईकोर्ट में एक विस्तृत योजना दायर की, जिसके बाद हाईकोर्ट ने अतिक्रमण हटाने का आदेश दिया।
20 दिसंबर 2022 को उत्तराखंड हाई कोर्ट ने रेलवे और स्थानीय अधिकारियों को गफूर बस्ती और बनभूलपूरा में रेलवे की जमीन पर हुए अतिक्रमण को एक हफ्ते के भीतर हटाने का आदेश दिया।
हाईकोर्ट ने बताया था रेलवे की संपत्ति
न्यायालय ने यह कहते हुए आदेश दिया कि विवादित क्षेत्र रेलवे की संपत्ति है, नजूल भूमि नहीं। (जैसा कि निवासियों ने दावा किया है)
हाईकोर्ट ने अपने फैसले में कहा:
“तत्काल जरूरतों को पूरा करने के लिए अतिक्रमण हटाने की आवश्यकता है, इसके लिए सक्षम अधिकारी द्वारा किया जाना आवश्यक है जिनसे सार्वजनिक परिसरों पर अतिक्रमण के कार्य पर निरंतर निगरानी बनाए रखने की अपेक्षा की जाती है”
हाईकोर्ट ने कहा “विशेष रूप से रेलवे अधिनियम की धारा 147 के संदर्भ में तत्काल हटाने की आवश्यकता का सहारा लिया जा सकता है”
अपने 176 पन्नों के आदेश में, अदालत ने कब्जाधारियों/अतिक्रमणकर्ताओं के इस तर्क को अनिवार्य रूप से खारिज कर दिया कि अतिक्रमित क्षेत्र नजूल भूमि है और वे अपने संबंधित पट्टों के आधार पर नजूल भूमि के धारक हैं।
अतिक्रमणकारियों ने यह दावा नगरपालिका विभाग के दिनांक 17 मई, 1907 के कार्यालय ज्ञापन के आधार पर किया गया था।
इस कार्यालय ज्ञापन का अवलोकन करते हुए, हाईकोर्ट ने कहा कि यह एक सरकारी आदेश नहीं था और यह अतिक्रमणकारियों/प्रतिवादी को कोई अधिकार प्रदान नहीं करता क्योंकि यह दस्तावेज़ केवल नजूल नियमों के अनुसार संपत्ति के प्रबंधन के उद्देश्य से निष्पादित किया गया था।
हाईकोर्ट ने आगे कहा कि चूंकि उक्त ज्ञापन स्वयं नजूल संपत्ति की बिक्री या पट्टे के किसी भी विलेख के निष्पादन को रोकता है। इस हिसाब से प्रतिवादियों के अपने मामले के अनुसार सभी पट्टा विलेख, 17 मई, 1907 के कार्यालय ज्ञापन के उल्लंघन में ही होंगे।
न्यायालय ने पाया कि ऐसे अतिक्रमणकारियों के पास कानून के अनुसार कोई अधिकार और भूमि स्वामित्व निहित नहीं था और इसलिए उन्हें सभी व्यावहारिक उद्देश्यों के लिए अनधिकृत कब्जेदार माना जाएगा।
हाईकोर्ट द्वारा अपने आदेश में इसे “बढ़ती सार्वजनिक जरूरतों को पूरा करने के उद्देश्य से रेलवे परियोजनाओं के विकास की आवश्यकता” से भी जोड़ा गया।
हाईकोर्ट ने कहा, “किसी की भी निजी आवश्यकता पब्लिक वेलफेयर से ऊपर नहीं हो सकती है वह भी उस संपत्ति पर, जो रेलवे के पास निहित है। जिला प्रशासन के समन्वय से रेलवे प्राधिकरण एक हफ्ते के भीतर रेलवे भूमि पर कब्जेदारों को एक सप्ताह का नोटिस देने के तुरंत बाद अतिक्रमण खाली करवाए और यदि आवश्यक हो, तो किसी भी अन्य अर्धसैनिक बलों की मदद ली जा सकती है।”
“यदि कब्जाधारी/अतिक्रमणकारी रेलवे के विवाद में परिसर एवं भूमि को खाली करने में असफल रहते हैं तो रेलवे प्राधिकारियों के लिए यह विकल्प खुला रहेगा कि वे स्थानीय पुलिस, जिलाधिकारी, वरिष्ठ अधीक्षक 174 के संयुक्त समन्वय से पुलिस और अन्य अर्धसैनिक बल, जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है, तत्काल कार्रवाई शुरू करेंगे और ऐसे कब्जाधारियों/अतिक्रमणकर्ताओं से कब्जा की गई भूमि पर बलपूर्वक कब्ज़ा करेंगे।”
20 दिसंबर के अपने आदेश में हाईकोर्ट की सबसे मुख्य टिप्पणी:
हाईकोर्ट ने तत्कालीन हरीश रावत सरकार की पुनर्विचार याचिका को राजनीतिक ढाल बताया और कहा कि “तत्कालीन सत्ताधारी दल द्वारा अपने राजनीतिक लाभ के लिए अनाधिकृत कब्जाधारियों को राजनीतिक ढाल प्रदान की गई”
हाईकोर्ट के इस आदेश के बाद रेलवे प्रशासन ने अतिक्रमण को मुक्त करने के लिए मुनादी करवाई और काबिज लोगों को नोटिस दिया जिसमें उल्लेखित था कि अतिक्रमणकारी रेलवे की जमीन 10 जनवरी तक स्वयं खाली कर दें, इसके बाद ध्वस्तीकरण की कार्रवाई की जाएगी।
28 दिसंबर को प्रशासन की तरफ से जमीन की पिलर बंदी शुरू हुई, जिसके बाद अतिक्रमणकारी लोग सड़कों पर आ गये और इसने विरोध प्रदर्शन का रूप ले लिया
सोमवार 2 जनवरी, 2023 को हाईकोर्ट के आदेश को चुनौती देने के लिए सुप्रीम कोर्ट में हल्द्वानी के शराफत खान समेत 11 लोगों की याचिका वरिष्ठ अधिवक्ता सलमान खुर्शीद की ओर से दाखिल की गई और 5 जनवरी को इस मामले की सुनवाई तय हुई
5 जनवरी: सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट के आदेश पर रोक लगाई और अब मामले की अगली सुनवाई 7 फरवरी को होगी
इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस संजय किशन कौल और एएस ओका की बेंच ने रेलवे द्वारा अतिक्रमण हटाने के तरीके को अस्वीकार किया
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि उत्तराखंड सरकार का स्टैंड क्या है इस मामले में? शीर्ष अदालत ने पूछा कि जिन लोगों ने नीलामी में जमीन खरीदी है, उसे आप कैसे डील करेंगे? लोग 50/60 वर्षों से वहां रह रहे हैं। उनके पुनर्वास की कोई योजना तो होनी चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट ने नोटिस भेजते हुए उत्तराखंड सरकार ओर रेलवे से इस मामले पर जवाब भी मांगा है। कोर्ट ने कहा कि रातों रात आप 50 हजार लोगों को नहीं हटा सकते। यह एक मानवीय मामला है।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हमें कोई व्यावहारिक समाधान ढूंढना होगा। इन्हें हटाने के लिए केवल एक सप्ताह का समय काफी कम है। पहले उनके पुनर्वास पर विचार होना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि उस जमीन पर आगे कोई निर्माण नहीं होगा। पुनर्वास योजना को ध्यान में रखा जाना चाहिए। ऐसे स्कूल, कॉलेज और अन्य ठोस ढांचे हैं जिन्हें इस तरह नहीं गिराया जा सकता है।
अब सभी की निगाह इस विस्थापन पर लगी हुई है। सबसे बड़ा सवाल, जो चोरी छिपे हल्द्वानी में भी लोग एक-दूसरे से पूछ रहे हैं कि क्या अवैध रूप से बसे हुए अतिक्रमणकारियों को वैध करने के लिए सरकार दोबारा कहीं ज़मीन देने वाली है या फिर वक़्फ़ जैसी संस्थाओं के माध्यम से इस मामले का निपटारा किया जाएगा?
हल्द्वानी से ही कुछ लोगों ने नाम ना छापने की शर्त पर कहा है कि अतिक्रमणकारी ख़ुद जानते हैं कि उनका इस भूमि पर कोई अधिकार नहीं है, वे उत्तर प्रदेश के सीमावर्ती इलाक़ों से घुस कर यहाँ पर डेरा डाले हुए हैं, लेकिन अब इस दोबारा बसावट की बात पर वे भी हैरान हैं कि आख़िर उनका भविष्य क्या होगा।