ल्हासा, तिब्बत: तिब्बती इतिहास में तिब्बत में बौद्ध धर्म की स्थापना का श्रेय भारत के गुरु पद्मसंभव और आचार्य शांतरक्षित को दिया गया है। बौद्ध गुरु पद्मसम्भव भारत के नालंदा विश्वविद्यालय के प्रसिद्ध सत्रह असाधारण विद्वानों में से एक थे, नालंदा विश्वविद्यालय में देश विदेश से हज़ारों छात्र पढ़ने आया करते थे।
8वीं शताब्दी के महान भारतीय तांत्रिक गुरु, गुरु पद्मसंभव बौद्ध धर्म में एक बहुत बड़े महापुरुष माने जाते हैं। तिब्बत और भूटान में वज्रयान बौद्ध धर्म की स्थापना में उनका महत्वपूर्ण योगदान था, यह बौद्ध सम्प्रदाय तंत्र पर आधारित था। तिब्बत और भूटान में पद्मसंभव को गुरु रिनपोछे के नाम से जाना जाता है, जिसका अर्थ है अनुयायियों के बीच अमूल्य गुरु।
तिब्बती इतिहास के अनुसार एक बार तिब्बत के राजा दिसोंग देत्सान एक मठ का निर्माण कर रहे थे, तब कुछ शक्तिशाली राक्षसी शक्तियाँ मठ के निर्माण में बार बार व्यवधान पैदा कर रही थीं, इससे परेशान होकर, राजा दिसोंग ने नकारात्मक शक्तियों को वश में करने के लिए तन्त्र में निपुण भारतीय विद्वानआचार्य शांतरक्षित और आचार्य पद्मसंभव को तिब्बत में आमंत्रित किया।
बाद में, राजा दिसोंग देत्सान, आचार्य शांतरक्षित और गुरु पद्मसंभव ने मिलकर तिब्बत में ‘सम्ये लिंग’ नाम से तिब्बत का पहला बौद्ध मठ बनाया, जहां सात तिब्बतियों को पहली बार भिक्षु दीक्षा देने का कार्यक्रम आयोजित किया गया। इसके अलावा, ‘सम्ये लिंग’ मठ में संस्कृत अध्ययन के लिए एक विद्यालय की भी स्थापना की गयी जहाँ बड़ी संख्या में प्राचीन बौद्ध संस्कृत ग्रंथों का तिब्बती भाषा में अनुवाद किया गया।
तिब्बत में गुरु पद्मसंभव के आगमन और उनकी शिक्षाओं से तिब्बती बौद्ध धर्म की ‘न्यिंग्मा’ परंपरा की शुरुआत हुई। तिब्बती भाषा में न्यिंग्मा शब्द का अर्थ है ‘पुराना’, प्राचीनतम तिब्बती बौद्ध परंपरा होने के कारण इसे न्यिंग्मा कहा जाने लगा।
गुरु पद्मसंभव ने तिब्बत में मुख्य रूप से तांत्रिक शिक्षाओं का प्रचार किया। पद्मसंभव ने तिब्बत क्षेत्र में भविष्य में होने वाले आध्यात्मिक बौद्ध संतों के लिए ‘टर्मस’ नाम के रहस्यों का ज्ञान दिया, उनके और उनके अनुयायियों द्वारा उन रहस्यों को भविष्य के ‘टेर्टन्स’ (प्रबुद्ध भिक्षुओं) द्वारा खोजने के लिए छुपा दिया गया ताकि कोई उनका दुरूपयोग न कर सके।
मान्यता है कि कुछ प्रबुद्ध लोग ‘टर्मस’ को खोजने के लिए ही संसार में आएँगे। वज्रयान बौद्ध धर्म में, ‘टर्मस’ पृथ्वी, झीलों या आकाश में छिपी हुई दृश्य या अदृश्य वस्तुएं हो सकती हैं, और उनका रहस्योद्घाटन ‘टेर्टन्स’ द्वारा किया जाता है।
गुरु पद्मसंभव के जन्म के संबंध में पौराणिक और एतिहासिक दोनों तरह की कहानियां हैं। पौराणिक कथा के अनुसार गुरु पद्मसंभव उड्डीयान की भूमि में दानकोष झील में चमत्कारिक रूप से एक खिलते हुए कमल के फूल से आठ वर्ष के बालक के रूप में पैदा हुए थे।
पद्मसम्भव शब्द का अर्थ है जिसकी उत्पत्ति पद्म यानि कमल से हुई हो, कमल तन्त्र मार्ग में एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण प्रतीक माना जाता है। उनका तिब्बती नाम पद्म जुंगने है, इस शब्द का स्रोत है संस्कृत नाम पद्माकर, जिसका अर्थ है “कमल से उत्पन्न।” इस प्रकार उनका नाम धार्मिक कथाओं में बताए गए उनके जन्म के आधार पर रखा गया है।
गुरु पद्मसंभव की एक मूर्ति
उनकी पत्नी येशे त्सोग्याल द्वारा लिखित उनकी जीवनी ‘द लोटस बॉर्न: द लाइफ स्टोरी ऑफ पद्मसंभव’ पुस्तक में बताया गया है कि पद्मसंभव उड्डीयान के राजा महूसिता के पुत्र थे और उनका प्रारम्भिक नाम दानरक्षित था, बाद में उन्होंने दीक्षा ली और शाक्य सेंगे नाम से जाने गए। हालाँकि, उड्डीयान वास्तविक रूप से कहाँ पर है बहस का विषय है; कुछ विद्वान भारत के ओडिशा राज्य को ही उड्डीयान मानते हैं जबकि एक अन्य मत के अनुसार यह तत्कालीन अविभाजित भारत और आधुनिक पाकिस्तान के स्वात घाटी क्षेत्र में है।
कहा जाता है कि 8वीं शताब्दी की शुरुआत में, भूटान में बुमथांग के राजा सिंधुराज के आमन्त्रण पर गुरु पद्मसंभव ने भूटान का दौरा किया था। यहाँ भी उन्होंने अनियंत्रित नकारात्मक शक्तियों को वश में किया था, जो बौद्ध धर्म के प्रसार के रास्ते में बाधा उत्पन्न कर रहे थे। आज, भूटानी बौद्ध धर्म पर में मुख्य रूप से गुरु पद्मसंभव की पूजा की जाती है। भूटान के बुमथांग और पारो में स्थित दो सबसे पवित्र बौद्ध तीर्थ स्थल उन्हें समर्पित हैं।
अपने जीवनकाल के दौरान, गुरु पद्मसंभव ने तिब्बत, भूटान, नेपाल और भारत के विभिन्न हिमालयी क्षेत्रों की यात्रा की थी, और इन सभी जगह उन्होंने तिब्बती बौद्ध धर्म की ‘निंग्मा परंपरा’ का प्रचार किया। आज, इन हिमालयी देशों में गुरु पद्मसंभव की आध्यात्मिक और धार्मिक गतिविधियों से जुड़े स्मृति चिह्न इन देशों में स्मारकों, मन्दिरों, अवशेषों और लोककथाओं के रूप में मौजूद हैं।
उनके अनुयायियों में, उन्हें एक प्रबुद्ध शक्ति और गुरु के रूप में माना जाता है, जो जन्म और मृत्यु से परे हैं व अभी भी मौजूद हैं और मार्गदर्शन करते हैं। गुरु पद्मसंभव के शिष्यों द्वारा उनकी शिक्षाएं दूर-दूर तक फैली हैं, और उनका प्रभाव हिमालयी क्षेत्रों से बढ़कर दुनिया के अन्य हिस्सों तक पहुंच चुका है, जिसमें दक्षिण पूर्वी एशियाई देश भी शामिल हैं।
लद्दाख में गुरु पद्मसंभव की जयंती के रूप में हर वर्ष हेमिस महोत्सव मनाया जाता है। इसी तरह, भूटान में, गुरु पद्मसंभव की याद में भूटानी चंद्र कैलेंडर में महीने के दसवें दिन वार्षिक त्सेशु उत्सव मनाया जाता है, यह महीना हर साल बदलता रहता है।