गुजरात और हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव के नतीजे आश्चर्यचकित करने वाले नहीं रहे। इन परिणामों ने 2024 लोकसभा चुनाव की तरफ बढ़ने वाली यात्रा आरंभ हो गई है। इस यात्रा में कुल दस राज्यों में विधानसभा चुनाव होंगे। इनमें से चार उत्तर पूर्व के राज्य हैं और उनके अलावा मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, कर्णाटक, तेलंगाना तथा जम्मू और कश्मीर हैं। वर्तमान में जो परिस्थितियां हैं, उनसे निकलने वाला संदेश ऐसा नहीं जिनमें किसी दल या गठबंधन को इन विधानसभा चुनावों का संभावित विजेता घोषित किया जा सके। अगले लगभग डेढ़ वर्ष में होने वाली संभावित राजनीतिक घटनाएं और उनके परिणामस्वरूप होने वाली राजनीतिक उथल-पुथल चुनावी राजनीति के लिए सामान्य बात लगेगी। यही चुनावी राजनीति का मूल चरित्र है।
देखा जाए तो गुजरात चुनाव के परिणाम ने काफी हद तक 2024 के लोकसभा चुनावों की राजनीतिक नींव रख दी है। हर बार की तरह इस इस बार भी गुजरात ने चुनावी राजनीति में नेता और जनता के बीच के सम्बन्ध के महत्व को फिर से दोहराया है। नरेंद्र मोदी और उनके गुजरात के बीच का सम्बन्ध न केवल विपक्ष ने बल्कि भारत भर ने न केवल देखा बल्कि उसे महसूस भी किया। महसूस करने की यही प्रक्रिया किसी दल या नेता की लंबी राजनीतिक यात्रा का आधार बनती है।
इस बार के गुजरात चुनाव ने एक काम और किया। जब लगभग सभी राजनीतिक दल, चुनाव विशेषज्ञ, नेता, मीडिया इस बात से आश्वस्त हो चुके हैं कि चुनाव प्रबंधन में राजनीतिक दल और नेताओं की अपेक्षा प्रोफेशनल्स कंसलटेंट की भूमिका अधिक है, नरेंद्र मोदी, अमित शाह, गुजरात के स्थानीय नेताओं और उनके दल ने यह साबित किया कि बाकी सबकी भूमिका अपनी जगह पर राजनीतिक दल, उनके नेताओं और जनता के बीच जो मूल सम्बन्ध है, उसका महत्व चुनावी राजनीति में अलग है। चुनावी राजनीति में लोकतान्त्रिक प्रक्रिया के लिहाज से यह अच्छी बात है क्योंकि पिछले कई दशकों में नेता और जनता के बीच की लंबी होती खाई चुनाव प्रबंधन में प्रोफेशनल कंसलटेंट के आने से और बढ़ने लगी थी।
Gujarat Election में BJP की रिकॉर्डतोड़ जीत, HP में OPS ने नहीं बदलने दिया रिवाज
परिणामों ने एक बार फिर से यह भी साबित किया कि चुनावी राजनीति में कोई भी व्यक्ति बिना लोकतांत्रिक प्रक्रिया से गुजरे नेता होने का भ्रम भले पाल ले पर नेता बन नहीं सकता। कहें तो यह पिछले कुछ वर्षों में लोकतांत्रिक विमर्श के केंद्र में राजनीति के बढ़ते महत्व और भारतीय लोकतंत्र के परिष्कृत होने का ही परिणाम है कि कोई भी राजनीतिक दल या उसके सहयोगी चाहे जितना बड़ा 3D प्रिंटर खरीद लें, नेता मैन्युफैक्चर नहीं कर सकते। देखना यह होगा कि अरविन्द केजरीवाल और उनके दल को गुजरात के वोटर ने जो संदेश दिया, वे उसे ग्रहण करते हैं या वोट के आधार पर दल के राष्ट्रीय दल बनने के बहाने अपनी जमीन कब्जाने का काम करते हैं? केजरीवाल चुनावी राजनीति की अपनी यात्रा नरेंद्र मोदी की तरह सीधे रास्ते पर चलकर तय करते हैं या जेलेंस्की की तरह लोकतांत्रिक पगडंडियों पर चलकर?
हाँ, इन दो राज्यों में हुए चुनावी राजनीतिक विमर्श ने अरविंद केजरीवाल के सामने ही नहीं, मीडिया और भारतीय जनता पार्टी के सामने भी प्रश्न खड़े किए हैं। अब यह इन पर निर्भर करता है कि ये इन प्रश्नों का उत्तर देने को अपनी जिम्मेदारी समझते हैं या नहीं। पारंपरिक हो या सोशल मीडिया, दोनों के सामने सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि क्या वह भविष्य में अरविंद केजरीवाल से बिना प्रश्न किए, वह सब कुछ मान लेगा जो वे कहते और तय करते हैं या उनसे प्रश्न भी पूछेगा? भारतीय जनता पार्टी के सामने प्रश्न यह है कि वह विधानसभा चुनावों में स्थानीय मुद्दों के महत्व को कब तक दरकिनार करती रहेगी? कब तक पार्टी अपना चुनावी बोझ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कंधों पर रखती रहेगी?