गुजरात चुनाव के परिणाम आ चुके हैं। 27 वर्षों से जीतती चली आ रही भाजपा को प्रदेश के लोगों ने एक बार फिर से अगले 5 वर्षों के लिए चुन लिया है। पिछले चुनावों की तुलना में इस बार अन्तर यह है कि भाजपा ने दो रिकॉर्ड तोड़े हैं।
पहला, गुजरात विधानसभा चुनाव के इतिहास में सबसे अधिक सीटें हासिल करने का। जो अब तक कॉन्ग्रेस के नाम था। वर्ष 1985 में माधव सिंह सोलंकी के नेतृत्व में कॉन्ग्रेस ने गुजरात विधानसभा में 149 सीटें अपने नाम की थी।
दूसरा, इस आँकड़े को हासिल करने के बाद भाजपा ने 2002 विधानसभा चुनाव में अब तक की अधिकतम 127 सीटों का आँकड़ा भी पार कर दिया है।
इसी के साथ अब पश्चिम बंगाल के वाममोर्चा के किसी राज्य में सबसे लम्बे कार्यकाल का रिकॉर्ड भी टूट जाएगा। इस प्रचंड जीत ने एंटी इंकम्बेंसी जैसे पहलू को तो नकार ही दिया, साथ ही गुजरात की जनता ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी में एक बार फिर से विश्वास की मुहर लगाई है।
कमजोर विपक्ष फिर इतनी मेहनत क्यों?
चुनाव परिणामों में कॉन्ग्रेस की स्तिथि चुनाव प्रचार के मुताबिक ही है। राहुल गाँधी ने सिर्फ दो रैली की और प्रियंका वाड्रा ने तो गुजरात जाना ही उचित नहीं समझा। चुनाव प्रचार में विपक्ष बिल्कुल गायब था और जहाँ थोड़े बहुत नेता दिख भी रहे थे, वहाँ वे सब नेता अपने भरोसे पर थे और कॉन्ग्रेस से अधिक अपनी निजी छवि के लिए चिंतित थे। कॉन्ग्रेस 17 से 18 सीटों पर ही सिमट गई है, पर ऐसा लगता है कि ये सीटें भी पुरानी पार्टी के नाम के कारण मिल पाई हैं।
दूसरी ओर, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इस बार गुजरात चुनाव प्रचार में काफी सक्रिय दिखे। रोड शो और रैलियों के अलावा वोटर से उनका जुड़ाव और माध्यमों से दिखाई दिया। वहीं हर एक विधानसभा सीट पर टिकट स्वयं गृहमंत्री अमित शाह तय कर रहे थे। कमजोर विपक्ष के बावजूद भी मोदी शाह की जोड़ी गुजरात में 20 वर्ष पूर्व के तेवरों के साथ क्यों कार्य कर रही थी? भाजपा की मेहनत के पीछे की इस रणनीति के कुछ पहलुओं पर नज़र डालते हैं।
आम आदमी पार्टी की एंट्री
हर बार की तरह इस बार भी आम आदमी पार्टी ने जोर से कम और शोर के साथ अधिक चुनाव लड़ा और चुनावी परिणाम भी हर बार की तरह दल के सरकार बनाने के दावे के बिल्कुल उलट आए। दल दहाई का आँकड़ा भी नहीं छू सका। भाजपा जानती थी कि आम आदमी पार्टी का कोई जनाधार नहीं है, शायद एक वोट भी छिटक कर आम आदमी पार्टी की ओर जाना भाजपा को मंज़ूर नहीं था। ऐसा क्यों?
एक कारण शायद यह भी था कि आम आदमी पार्टी की गुजरात इकाई के नेता पहले आन्दोलन जीवियों के साथ देखे गए थे। वर्ष 2002 के दंगों को लेकर अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर प्रदेश की छवि को नुकसान पहुँचाने वाले और उन दंगों को आधार बनाकर वर्षों तक एक तरह का उद्योग और एनजीओ चलाने वाले व्यक्तियों और संस्थाओं के साथ उनके सम्बन्धों के कारण भाजपा ने यह प्रयास किया कि इनके विरुद्ध गम्भीर प्रचार करना आवश्यक है।
पंजाब में सरकार बनाना आम आदमी पार्टी के लिए दोधारी तलवार के समान है। जब से पंजाब में दल की सरकार बनी है, राज्य में कानून व्यवस्था की स्थिति खराब हुई है। पंजाब की भाँति ही गुजरात के साथ पकिस्तान की सीमा लगी है और आम आदमी पार्टी की सरकार बनने के बाद से आतंरिक सुरक्षा की दृष्टि से जो कुछ पंजाब में हो रहा है, उसका प्रभाव गुजरात के मतदाताओं पर भी पड़ा होगा। इसके साथ ही दल द्वारा शासित राज्यों में भ्रष्टाचार के मामलों की संख्या बढ़ी। ये ऐसे कारण रहे जिन्होंने भाजपा को एक गम्भीर चुनाव प्रचार के लिए प्रेरित किया।
राज्यसभा में बहुमत पर नजर
राज्यसभा में 11 सीटों पर गुजरात का प्रतिनिधत्व है, जिनमें से वर्तमान में 8 सीटें भाजपा और तीन सीटें कॉन्ग्रेस के पास है। इस प्रचंड जीत के बाद राज्यसभा में भाजपा का आँकड़ा फिर से शतक की ओर बढ़ेगा, जो अभी 92 है। साथ ही भाजपा अपने सहयोगी दलों के गठबंधन के साथ बहुमत के आँकड़े के और करीब होगा। हाल के वर्षों में राज्यसभा में बिल पारित करने के दौरान विपक्षी दलों के हंगामें में वृद्धि हुई है। बहुमत के करीब आने से भाजपा को इस चुनौती से निपटने में आसानी हो सकती है।
विपक्षी दलों का मानना है कि गुजरात चुनाव मोदी के नाम से लड़ा गया और यह राज्य की जनता ने वोट मोदी के नाम पर दिया। वहीं कुछ जानकार इसके पीछे गुजरात मॉडल को कारण बता रहे हैं और उनका मानना है कि गुजरात की जनता ने विकास के मुद्दे पर वोट दिया या शायद यह भी कहा जा सकता है कि गुजरात की जनता के लिए मोदी और विकास अलग नहीं हैं। उनके लिए मोदी मतलब विकास है
खैर, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के बारे में सभी दल जितनी भी चर्चा कर लें लेकिन तथ्य यह है कि उन्होंने हर राजनीतिक मोर्चे पर अच्छा प्रदर्शन किया है। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि वह इस अच्छी परफॉरमेंस को लम्बे समय से लगातार बनाए हुए हैं। वहीं मीडिया को समझना चाहिए कि चुनावों में पर्चों पर भविष्यवाणी कर रहे नेता टीआरपी ला सकते हैं, तो चुनाव परिणाम के बाद उन्ही नेताओं से उसी पर्चे पर हार लिखवाकर भी टीआरपी बरकरार रखी जा सकती है।