गणतंत्र दिवस पर तमिलनाडु सरकार में सत्ताधारी दल और उसके साथी दलों ने राज्यपाल द्वारा दी जाने वाली परंपरागत चाय पार्टी का बहिष्कार किया। तेलंगाना सरकार के मुख्यमंत्री ने गणतंत्र दिवस आयोजन का ही बहिष्कार कर डाला। केरल के सत्ताधारी दल और उसके नेताओं का वहाँ के राज्यपाल के साथ जो संबंध हैं, वे हाल के वर्षों में सार्वजनिक मंचों तक पर दिखाई देते रहे हैं। गणतंत्र दिवस आयोजन के बाद तेलंगाना की राज्यपाल ने अपने वक्तव्य में राज्य सरकार के साथ मतभेद पर जो कहा, वह अब सार्वजनिक है।
पश्चिम बंगाल के पूर्व राज्यपाल के नाम की घोषणा जब तक उप राष्ट्रपति के पद के लिए नहीं हुई थी, तब तक उनके साथ पश्चिम बंगाल की सत्ताधारी पार्टी और उसके नेताओं ने कैसा व्यवहार किया, यह जगजाहिर है। उनके मामले में तो तृणमूल कांग्रेस के सांसदों ने पूरे राज्य में केस फाइल करने के लिए राज्य के लोगों को उकसाया। यह कह कर कि जब तक ये राज्यपाल हैं, तब तक तो इनके साथ हम कुछ नहीं कर सकते पर अभी से केस फाइल करके रखो ताकि जिस दिन ये राज्यपाल का पद छोड़ें, इन्हें जेल में ठूंसा जा सके। कुछ वर्ष पूर्व ही महाराष्ट्र के राज्यपाल के साथ वहाँ की महा अघाड़ी सरकार ने कैसा व्यवहार किया, यह भी सार्वजनिक है।
राज्यपाल और संघीय ढांचे पर हमले की आड़ में कुंठा दिखा रहा विपक्ष?
राज्य सरकारें और उसमें बैठे सत्ताधारी दल यह सब देश के संघीय ढाँचे की रक्षा के नाम पर कर रहे हैं। इतिहास देखें तो पाएंगे कि राज्यपालों के साथ राज्य सरकारों के संबंध हमेशा शांतिपूर्ण नहीं रहे पर यह भी सच है कि अधिकतर शांतिपूर्ण रहे हैं। पूर्व में केंद्र की कांग्रेस सरकारों ने राज्यपालों का इस्तेमाल कैसे और किस बात के लिए किया, उसका एक सिलसिलेवार इतिहास रहा है। यह तब था जब कांग्रेस पार्टी और उसके नेताओं को यह लगता था कि केंद्र हो या राज्य, केवल वही एक पार्टी है जो सरकार बनाने और चलाने लायक है। संविधान के अनुच्छेद 356 का सहारा लेकर केंद्र की कांग्रेस सरकारों ने कितनी बार राज्य सरकारें गिरायी, यह अब इतिहास का हिस्सा है। केंद्र में कांग्रेस की सरकारों का ऐसा आचरण तब के भारत में लोकतंत्र की गुणवत्ता का भी आभास कराता है।
पर वर्तमान में ऐसा क्या हो रहा है जो राज्य सरकारें राज्यपालों के साथ इस तरह का व्यवहार कर रही हैं? वह भी संघीय ढाँचे की रक्षा के नाम पर? पिछले आठ वर्षों में मोदी सरकार ने किस राज्य को गिराने की धमकी दी या फिर 356 प्रयोग किया?
पिछले आठ वर्षों में पश्चिम बंगाल कई बार राष्ट्रपति शासन के सबके करीब पहुँचा। इस राज्य में राजनीतिक घटनाओं का दस्तावेज केवल अखबारों के आर्काइव और तृणमूल कांग्रेस के नेताओं के आचरण तक ही सीमित नहीं रहा बल्कि न्यायालय की टिप्पणियों में भी दिखाई देता है। पूर्व राज्यपाल जगदीप धनकर के साथ राज्य के सत्ताधारी दल के आचरण को देखते हुए यह प्रश्न लाजिमी है कि पिछले लगभग चार दशकों में पश्चिम बंगाल में राजनीतिक हिंसा की जो संस्कृति पनपी और जो कम होने की जगह लगातार बढ़ती जा रही है, उससे कोई भी राज्यपाल मुंह कैसे मोड़ सकता है? यह कैसे हो सकता है कि लोकतंत्र के प्रति सजग व्यक्ति ऐसी भीषण राजनीतिक हिंसा पर टिप्पणी न करे? कोई भी सत्ताधारी दल राज्यपाल को मूकदर्शक बने रहने की आशा कैसे कर सकता है?
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आखिर ऐसा क्यों है कि नब्बे के दशक के चुनाव सुधारों का असर उत्तर प्रदेश, बिहार, पंजाब के साथ देश के अधिकतर राज्यों में देखने को मिला पर पश्चिम बंगाल में इन सुधारों का असर नहीं हुआ? ऐसे में क्या राज्य के दलों को राज्यपाल का विरोध करने की जगह आत्मविश्लेषण की आवश्यकता नहीं है? ठीक इसी तरह तमिलनाडु में जब से डीएमके ने सत्ता में वापसी की है, मंदिरों का टूटना हो, मंत्रियों का हिंदू विरोध हो या फिर मुख्यमंत्री द्वारा तमिल राष्ट्रीयता को हवा देने की राजनीति, इन सब को देखकर कोई भी राज्यपाल चुपचाप कैसे बैठ सकता हो? तेलंगाना में के चंद्रशेखर राव का आचरण केंद्र सरकार और उसकी नीतियों को लेकर क्या रहा है, यह लंबे समय से दिखाई दे रहा है।
दरअसल इन राज्यों में सत्ताधारी राजनीतिक दलों की समस्या यह है कि उन्होंने लोकतांत्रिक ढांचे और लोकतांत्रिक प्रक्रिया की रक्षा के लिए आवश्यक सरकार और सत्ताधारी दल को अलग रखने के सिद्धांत को न तो कभी समझा और न ही उस पर चलने की कोशिश की। ऐसे राजनीतिक आचरण के मूल में सोच यह है कि सरकार और पार्टी एक ही हैं और इन्हें अलग रखकर देखने की आवश्यकता नहीं है। यही कारण है कि ये सरकारें इस बात में में विश्वास कर ही पाती कि राज्यपाल की जिम्मेदारी संघीय ढाँचे के प्रति है और वह अपना काम करेगा।
सबसे दिलचस्प बात यह है कि राज्यपालों से उन्हीं दलों को अधिक शिकायत है जो परिवार द्वारा चलाये जा रहे हैं क्योंकि इन दलों का लोकतंत्र और लोकतांत्रिक प्रक्रिया में विश्वास सबसे कम है। या फिर ऐसा तो नहीं कि इन राज्य में सत्ताधारी दलों के आचरण के पीछे कारण यह है कि पिछले कुछ समय में इन राज्यों में भारतीय जनता पार्टी का विस्तार आशा से अधिक हुआ है और वर्षों पुराने मजबूत राजनीतिक विमर्श के किले में दरार पड़ रही है? इससे कोई इंकार नहीं कर सकता कि पश्चिम बंगाल हो या तेलंगाना, भारतीय जनता पार्टी की लोकप्रियता बढ़ी है और दल का विस्तार भी हुआ है। वहीं, तमिलनाडु की मजबूत द्रविड़ राजनीति के आगे भारतीय जनता पार्टी खड़ी दिखाई दे रही क्योंकि उसे एक नेता मिल गया जो लोकप्रिय भी हो रहा है और धीरे-धीरे राजनीतिक तौर पर उसे काबिल भी माना जा रहा है।
यदि इन राज्यों में सत्ताधारी दलों, नेताओं और उनकी सरकारों को भारतीय जनता पार्टी के विस्तार से शिकायत है तो उनका विरोध संवैधानिक पद पर बैठे राज्यपालों के विरुद्ध न होकर भारतीय जनता पार्टी और उसकी राज्य इकाई के विरुद्ध दिखाई देना चाहिए। पर शायद इन दलों के लिए यह एक कठिन काम है क्योंकि दीर्घकालीन राजनीति के लिए आवश्यक लोकतांत्रिक प्रक्रिया में विश्वास इन राजनीतिक दलों के आचरण में फिट नहीं बैठता।