अहम मुद्दों से जूझ रहे विपक्ष ने अब एक नया शिगूफा छेड़ा है। केंद्र सरकार ने कुछ दिन पहले जैसे ही राज्यों में राज्यपाल की नई नियुक्ति की, वैसे ही विपक्ष के नेताओं ने इस फैसले पर सवाल उठाने शुरू कर दिए। यहाँ तक कि आंध्र प्रदेश के राज्यपाल नियुक्त किए गए जस्टिस नज़ीर द्वारा सुनवाई किए गए मुकदमों को खोजना शुरू किया और जैसा जिसका सामर्थ्य बना उसने वैसी समीक्षा शुरू कर दी।
पहले हम बात करेंगे कि राजनीति से इतर संबंध रखने वाले बुद्धिजीवियों को ऐसे उच्च संवैधानिक पद पर बिठाने के पीछे केंद्र सरकार की क्या सोच हो सकती है।
शासन प्रशासन पर हर एक सरकार की सोच अलग होती है। हम जिसे ‘सिस्टम’ शब्द के नाम से भी जानते हैं, उसे चलाने को लेकर हर सरकार और उसके नेता की अपनी समझ होती है। यह समझ तब तक सही है जब तक संविधान का उल्लंघन नहीं होता। देश के स्वतंत्र होने के बाद के वर्षों में 75 प्रतिशत से अधिक अवधि तक कांग्रेस ने शासन किया। उन सरकारों की अपनी कार्यशैली थी और उसके अनुसार वे फैसले लेती थी। इस पर तब के विपक्ष के द्वारा भी शायद ही हस्तक्षेप किया जाता रहा हो। अभी फ़िलहाल हम उचित अनुचित की बहस में नहीं जाकर इन फैसलों के पीछे की सोच पर बात करेंगे।
देश, काल एवं परिस्थिति के अनुसार अगर कांग्रेस इन फैसलों को सही ठहराती है और तो क्या हमें वर्तमान परिस्थितियों पर विचार नहीं करना चाहिए? पिछले कुछ वर्षों में भारत और चीन के रिश्ते ख़राब रहे हैं। दोनों देशों के बीच सीमा पर कई इलाकों में विवाद है। पहले जो चीन सिर्फ अरुणाचल प्रदेश की सीमा पर सक्रियता से भारत से विवाद बढ़ाने का प्रयास करता था अब वही चीन ने भारत के दूसरे छोर यानी लद्दाख की सीमा को भी अपनी रणनीति का एक नया केंद्र बना दिया है।
ऐसे में लद्दाख जैसे राज्य में एक कुशल प्रशासक की आवश्यकता नज़र आ रही थी, न केवल अंतरराष्ट्रीय फ्रंट के लिए बल्कि 2.5 फ्रंट पर भी, जो हाल के लद्दाख आंदोलन में देखा गया कि कैसे अनुच्छेद 370 को वाजिब ठहराने मात्र के लिए एक आंदोलन ही खड़ा कर दिया गया। ऐसे में अरुणाचल प्रदेश के राज्यपाल रहे बीडी मिश्रा लद्दाख के एलजी बनाए गए हैं। ज्ञात हो कि ब्रिगेडियर बीडी मिश्रा भारतीय सेना के पूर्व ब्रिगेडियर हैं।
इसी प्रकार लेफ्टिनेंट जनरल कैवल्य त्रिविक्रम पटनायक को सीमावर्ती राज्य अरुणाचल में राज्यपाल के तौर पर नियुक्त किया गया है। अगर हम बात करें चीन की सीमा से लगे अगले राज्य उत्तराखण्ड की तो यहां भी राज्यपाल के पद पर एक पूर्व सैन्य अधिकारी गुरमीत सिंह हैं, जो कि लेफ्टिनेंट गवर्नर रह चुके हैं।
क्या ऐसे नियुक्तियों से फर्क पड़ता है ?
जिस प्रकार राजनीतिज्ञ राजनीति के क्षेत्र में विशिष्ट कौशल रखते हैं ठीक ऐसा ही लोकतंत्र के अन्य स्तंभ, न्यायपालिका एवं कार्यपालिका से जुड़े विशेषज्ञों की आवश्यकता देश को सुचारू रूप से आगे बढ़ाने का कार्य करती है। सरकारें विभिन्न विषयों पर निरंतर इन बुद्धिजीवियों से परामर्श मांगती रहती है इसलिए देश में तकनीकी विशेषज्ञता प्राप्त व्यक्तियों के लिए अलग पद भी सृजित किए जाते हैं। उप राज्यपाल एवं राज्यपाल जैसे उच्च संवैधानिक पदों पर राजनीतिज्ञों की नियुक्ति को अधिक महत्व न देकर केंद्र सरकार ने नई सकारात्मक परंपरा की शुरुआत तो कर दी है। हालाँकि जस्टिस नज़ीर को राज्यपाल बनाने पर अभी भी हंगामा जारी है।
न्यायपालिका से निकले व्यक्ति अन्य पदों पर पहली बार आसीन हो रहे हैं?
जस्टिस नज़ीर से पूर्व वर्ष 1992 में सुप्रीम कोर्ट से सेवानिवृत्त हुईं जस्टिस फ़ातिमा बीवी को वर्ष 1997 में तमिलनाडु का राज्यपाल नियुक्त किया गया था। हालाँकि वर्ष 2002 में उन्हें एक विवादित फैसले के चलते राज्यपाल पद से इस्तीफा देना पड़ा। उनसे भी पहले वर्ष 1952 में सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस रहे फ़ज़ल अली भी अपने कार्यकाल को ख़त्म करने के बाद ओडिशा के राज्यपाल बनाए गए थे।
ऐसे ही एक जस्टिस थे बहारुल इस्लाम जो वर्ष 1962 से वर्ष 1972 के बीच कांग्रेस के राज्यसभा सदस्य रहे। फिर उन्होंने राज्यसभा से इस्तीफा दे दिया और तत्कालीन असम-नागालैंड हाईकोर्ट के जज बनाए गए। इसके बाद वह वर्ष 1979 में गुवाहाटी हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस बने और मार्च 1980 में कार्यकाल पूरा कर सेवानिवृत हो गए।
आश्चर्यजनक घटनाक्रम तब सामने आया जब रिटायरमेंट के बाद भी वर्ष 1980 में उन्हें सुप्रीम कोर्ट के जज के तौर पर नियुक्त किया गया। न्यायिक व्यवस्था में अराजकता यहीं तक सीमित नहीं रही। वर्ष 1983 में असम से चुनाव लड़ने के लिए जस्टिस बहारूल इस्लाम ने जज के पद से इस्तीफा दे दिया। यह वही बाहरुल इस्लाम थे जिन्होंने अपने इस्तीफे से महज़ चार हफ्ते पहले फर्जीवाड़े का आरोप झेल रहे तत्कालीन बिहार के मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्रा को बरी किया था।
न्यायपालिका पर भले ही आज विपक्ष कितना ही मुखर रहे लेकिन ऐतिहासिक तथ्य यह है कि इंदिरा गांधी ने दो बार सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठतम न्यायाधीशों की जगह दूसरों को प्रोन्नति दी। इस कारण भारत के न्यायमूर्ति एचआर खन्ना मुख्य न्यायाधीश नहीं बन पाये। क्या राज्य की यह अपनी इच्छा अनुसार न्यायपालिका को ढालने की चाहत नहीं थी?