दिल्ली में राजनीतिक नूराकुश्ती तेज हो गई है। यूँ तो यह उठा-पटक पिछले दस वर्षों से जारी है लेकिन दिल्ली के नए उप-राज्यपाल वीके सक्सेना की नियुक्ति के बाद स्थिति और भी उलझती दिख रही है। दिल्ली में महानगरपालिका (MCD) चुनाव संपन्न हुए। हालाँकि, अरविन्द केजरीवाल दिल्ली से दिल-लगी तोड़ गुजरात को प्रोपोज़ करने चले गए थे।
केजरीवाल गुजरात से दिलजले आशिक की भाँति अंत में लौटकर दिल्ली (एमसीडी चुनावों) में ही सच्चा प्यार मिल पाया। पंजाब की स्थिति पर बात फिर कभी की जाएगी।
एमसीडी चुनाव में आम आदमी पार्टी को बढ़त तो मिली लेकिन मामला एक बार फिर फंस गया है, दिल्ली के मेयर चुनाव को लेकर बदलाव यह दिखा है कि जिस आम आदमी पार्टी ने अनशन, धरना, मौन, विरोध प्रदर्शन जैसे हथकंडों के सहारे राजनीति शुरू की थी, आज उन्होंने फुल टाइम लठैतों को पाल रखा है। आए दिन इनसे हाथापाई की खबरें मिल ही जाती हैं।
दिल्ली में मेयर चुनाव के दौरान भी ये अपने बाहुबल का प्रदर्शन करने से पीछे नहीं रहे। कई सोचने को बाध्य हैं, राजनीति बदलने की स्कीम बेच कर सत्ता में तो आ गए लेकिन राजनीति को इस प्रकार बदलेंगे यह उम्मीद नहीं थी।
इसी बीच कल यानी शनिवार 15 जनवरी, 2023 को दिल्ली के उप-मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया के निवास पर केन्द्रीय जाँच एजेंसी सीबीआई द्वारा छापेमारी की गई। यह मामला है, दिल्ली में शराब घोटाले मामले का, जिसमें मनीष सिसोदिया मुख्य आरोपी हैं।
उप-राज्यपाल सक्सेना ने पद ग्रहण के बाद से ही केजरीवाल सरकार को निशाने पर लिया है। केजरीवाल सरकार के कार्यकाल के दौरान कई सरकारी योजनाओं में वित्तीय अनियमितता के लिए जांच के आदेश दिए हैं। इसके बाद से ही केजरीवाल, उसके मंत्री और पार्टी के अन्य नेता उप-राज्यपाल सक्सेना पर हमलावर हैं। जिसमें कई छिछले और निजी हमले भी शामिल हैं।
दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार बनते ही कार्यकारी शक्तियों को लेकर केंद्र और दिल्ली सरकार के बीच खींच-तान शुरू हो गई थी। मामला कई बार न्यायालय तक भी पहुँचा लेकिन अभी तक केंद्र और दिल्ली सरकार के बीच के अधिकारों और शक्तियों का उचित सीमांकन नहीं किया जा सका है।
भारतीय संघ में राज्यपाल की भूमिका
भारत राज्यों का संघ है। जिस प्रकार देश में विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच शक्तियों का विभाजन किया गया है, ठीक उसी प्रकार केंद्र और राज्यों के बीच भी शक्तियों का बंटवारा किया गया है। संविधान में केंद्र और राज्यों के बीच सहयोग और समन्वय के लिए भी अनेकों प्रावधान किए गए हैं।
जैसे केंद्र में राज्यसभा द्वारा राज्यों का प्रतिनिधित्व किया जाता है, उसी प्रकार से राज्यों में राज्यपाल द्वारा केंद्र का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित किया गया है। जिस प्रकार केंद्र द्वारा विधि-निर्माण हेतु राज्यसभा (परोक्ष रूप से राज्यों) से अनुमति आवश्यक होती है, ठीक उसी प्रकार राज्य/केंद्र शासित प्रदेश (विधानसभा वाले) द्वारा विधि-निर्माण को राज्यपाल /उप-राज्यपाल (केंद्र) की अनुमति आवश्यक होती है।
इस प्रक्रिया से समझा जा सकता है कि संविधान निर्माताओं ने भारत में संघीय प्रणाली को स्थापित करने और उसे अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए विशेष और ठोस व्यवस्था की है, साथ ही केंद्र अथवा राज्य द्वारा एक-दूसरे के अधिकारों का हनन ना हो, इसे भी सुनिश्चित किया गया है।
भारत के संघीय प्रणाली में राज्यपाल/उप-राज्यपाल केंद्र और राज्य में बीच एक दूत का कार्य करते हैं। हालाँकि, राज्यों को स्वायत्तता दी गई कि वे अपनी आवश्यकताओं के अनुसार विधि-निर्माण और निर्णय ले सकें, लेकिन यह दायित्व राज्यपाल का है कि वह सुनिश्चित करे कि राज्यों में शासन संविधान सम्मत हो।
अब यक्ष प्रश्न यह है कि जिस प्रकार राज्य (राज्यसभा द्वारा परोक्ष रूप से) केंद्र द्वारा लिए गए निर्णयों के लिए उससे जवाबदेही की उम्मीद रखता है, क्या ठीक उसी प्रकार केंद्र द्वारा (राज्यपाल के माध्यम से) राज्यों से जवाबदेही सुनिश्चित करने के प्रयासों को संघीय ढांचे पर चोट पहुंचना कैसे कह दिया जाता है? क्या यह तर्कपूर्ण लग रहा है?
हमने ऐसे दर्जनों विधेयक देखे हैं, जिसके लोकसभा में बहुमत से पारित होने के बाद भी वह राज्यों के निहित हितों को देखते हुए राज्यसभा से पारित नहीं हो पाते। दुर्भाग्यवश वह विधेयक कानून नहीं बन पाते। विधेयकों के अलावा लोकसभा में बहुमत वाले दल (केंद्र) द्वारा लिए गए कार्यकारी फैसलों पर भी राज्यसभा में स्पष्टीकरण दिया जाता है। ऐसे में यदि राज्य सरकार द्वारा लाये गए विधेयक अथवा कोई अन्य कार्यकारी निर्णय संविधान सम्मत न हों तो क्या केंद्र/राज्यपाल द्वारा उसे स्वीकृति ना देना संघीय ढांचे पर चोट पहुँचाना कहा जाना चाहिए?
संघीय ढांचे पर चोट के आरोपों का सच
केंद्र के ऊपर राज्यों की अपेक्षा ज्यादा दायित्व है तो स्वाभाविक है कि अधिकार भी अधिक दिए गए हैं। ऐसे में राज्यों द्वारा इसे नकारना और इस पर प्रश्न-चिन्ह लगाना अनुचित हो जाता है। केंद्र में बहुमत से एक ही दल की सरकार है, यह राज्यों में मनमाने ढंग से शासन कर रहे क्षेत्रीय दलों के लिए आदर्श स्थिति नहीं रही है।
केंद्र में पूर्ववर्ती सरकारें दशकों तक बहुमत से दूर रहीं थी। ऐसे में अन्य क्षेत्रीय दलों से गठबंधन कर केंद्र में शासन चलाया जाना स्वाभाविक बात थी। केंद्र में सरकार बचाने की जुगत में गठबंधन के दलों, जिनका राज्यों में शासन हुआ करता था, उनके फैसलों पर ज्यादा प्रश्न-चिन्ह नहीं लगाए जा रहे थे, जिससे राज्यों में सरकारें मनमाने तरीके से शासन करती जा रही थी।
जबकि पिछले दो लोकसभा चुनावों में इस प्रथा में बदलाव देखा जा रहा है। देश की जनता ने लगातार दो बार बहुमत से एक दल को सरकार के रूप में चुना है। ऐसे में केंद्र में सत्ता को बचाने हेतु राज्यों में मनमाने ढंग से शासन कर रहे दलों से समझौता करने की कोई विवशता भी नहीं बची।
पुन: केंद्र द्वारा स्वतंत्र रूप से राज्यों में हो रहे शासन, विधि और संविधान सम्मत हों, यह सुनिश्चित करना प्रारंभ कर दिया। यह राज्यों में वर्षों से बिना रोक-टोक के हो रहे शासन के आदी दलों को स्वीकार्य नहीं दिख रहा है।
अब राज्य सरकारों की मनमानियों को ना मानने के लिए राज्यपाल/केंद्र पर हमले किए जाते हैं। यह ट्रेंड 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद से शुरू हुआ है। सार्वजनिक रूप से टकराव की शुरूआती घटना दिल्ली और पश्चिम बंगाल में सामने आई थी। इसके बाद अन्य राज्यों में यह देखा जाने लगा, वर्तमान में तमिलनाडु, केरल, पश्चिम बंगाल, झारखण्ड सहित कई राज्यों में यह स्थिति देखी जा रही है।
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इन राज्यों में सरकारों द्वारा कार्यकारी और विधायी निर्णयों अथवा विधेयकों को यदि उन राज्यों के राज्यपालों द्वारा अनुचित पाए जाने पर अपनी सहमति नहीं दी जाती है तो राज्य सरकार द्वारा इसमें सुधार करने के बजाय, राज्यपाल पर ही हमलावर होते दिखते हैं।
अब देखने वाली बात यह है कि कैसे केंद्र और राज्यों के बीच के गतिरोध को दूर करते हुए यह सुनिश्चित किया जाए कि राज्यों में शासन संविधान सम्मत हो? सवाल यह भी उठता है कि राज्यपाल के ऊपर हमला कर, राज्य सरकारें, केंद्र को झुकने पर बाध्य कर पातीं है या नहीं?