कुछ वर्ष पहले तक, जब टीवी पर रामायण आया करता था, तब के दौर के प्रचार याद हैं? उस ज़माने में “कोलगेट” टूथ पेस्ट का एक प्रचार भी आता था। उसमें शुरू में एक पहलवान दिखाते थे जो खूब वर्जिश कर रहा होता है, अखाड़े में मुग्दर घुमाता हुआ। जैसे ही वो कसरत के बाद, दाँतों से एक अखरोट तोड़ने की कोशिश करता है, वैसे ही वो दर्द के मारे जबड़ा पकड़ लेता है। फ़ौरन एक दूसरा आदमी पूछता है दांत कैसे साफ़ करते हो ? जवाब में जब पहलवान कोयला दिखता है तो दूसरा आदमी पूछता है, क्या पहलवान बदन के लिए इतना कुछ और दांतों के लिए कोयला
समय बदला और किसी ज़माने में जो कोयले के बदले टूथपेस्ट नाम के अभिजात्य वर्ग के प्रोडक्ट को बेचने का प्रयास था, वो भी बदल गया। अब जरा अभी के उसी कोलगेट टूथ पेस्ट के प्रचार को देखिये। चारकोल वाले सिर्फ टूथपेस्ट का ऐड ही नहीं आता। और भी कई सौन्दर्य प्रसाधन होते हैं, जिनमें चारकोल होने का दावा ठोका जाता है। एक्टिव चारकोल कैसे आपको फायदा पहुंचाता है, अब ये बताया जाता है। सीधे-सपाट शब्दों में कहें तो हम लोग अब कई किस्म के भ्रामक प्रचार देख चुके हैं। कुछ वर्ष वनस्पति घी को दूध से बने घी से बेहतर बताया गया। अब आप जानते हैं कि कुछ “गुड कोलेस्ट्रोल, बैड कोलेस्ट्रोल” जैसी चीज होती है। हर बार कोलेस्ट्रोल भी बुरा ही नहीं होता।
ऐसे ही दूसरे जो भ्रामक प्रचार थे, उन्हें भी बंद करने की कवायद भारत सरकार लम्बे समय से करती आ रही है। किसी दौर में बच्चों के “फ़ूड सप्लीमेंट” पर प्रचार काफी जोर देते थे। जैसे ही ये समझ में आने लगा कि विदेशी कंपनियां अपने उत्पाद बेचने के लिए, नए बाजारों में घुसने के लिए ऐसा कर रही हैं, उन पर भी पाबन्दी लगी। आज पढ़े-लिखे लोगों का एक बड़ा वर्ग, ये जानता है कि छह महीने की आयु तक बच्चे को केवल माँ का दूध देना ही ठीक है। किसी डब्बा-बंद उत्पाद से कहीं बेहतर घर का बना खाना होता है। पौष्टिक आहार का मतलब महंगा आहार हो, ये जरूरी नहीं होता। इनके साथ ही एक तथ्य ये भी है कि जब तक सच अपने जूते पहनता है, तब तक झूठ आधी दुनिया का का चक्कर लगा चुका होता है।
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वर्षों तक सरकार की काम करने की गति, बाजार की गति से काफी धीमी रही है। किसी चीज को नियंत्रित करना होगा, ये सरकार की जब तक समझ में आता है, तब तक अक्सर काफी देर हो चुकी होती है। इसका उल्टा भी होता है, कई बार नियंत्रण की वजह से नुकसान पहले हो जाता है, बाजार बन ही नहीं पाता। सोशल मीडिया के आने से “सोशल मीडिया इन्फ्लूएन्सर्स” आयेंगे, ये कुछ वर्ष पहले सोचना मुश्किल था। आज की बात करें तो 2022 में भारत में सोशल मीडिया इन्फ्लूएन्सर्स का बाजार करीब 1275 करोड़ रुपये का था। वर्ष 2025 तक इसके दोगुने से भी अधिक करीब 19-20 प्रतिशत की “कंपाउंड एनुअल ग्रोथ” से बढ़कर करीब 2800 करोड़ हो जाने की संभावना है। अच्छी संख्या में जिनके फ़ॉलोअर हों, भारत में ऐसे सोशल मीडिया इन्फ्लूएन्सर्स की संख्या एक लाख से अधिक है, ऐसा उपभोक्ता मामलों के सचिव रोहित कुमार सिंह का कहना है।
इतनी बड़ी संख्या में सोशल मीडिया इन्फ्लूएन्सर्स के होने के बाद भी भारत में इनके नियमन के कोई नियम ढंग से लागू नहीं किये गए थे। उपभोक्ता मामलों के विभाग ने अब इस पर विशेष ध्यान दिया है और नए दिशा निर्देश जारी किये हैं। “इंडोर्समेंट नो होव्स” नाम से सोशल मीडिया के माध्यमों के लिए ये दिशा निर्देश जारी किये गए हैं जो केवल सेलेब्रिटी पर ही नहीं, बल्कि उनके “आर्टिफीसियल इंटेलिजेंस” के जरिये बने “अवतार” पर भी लागू होंगे। इन दिशानिर्देशों के उल्लंघन पर “कंज्यूमर प्रोटेक्शन एक्ट 2019” के अंतर्गत सजाओं का भी प्रावधान किया गया है। इन दिशा निर्देशों को जारी करते हुए उपभोक्ता मामलों के विभाग ने उपभोक्ताओं को ये समझाने का भी प्रयास किया कि गलत या अनैतिक तरीके से व्यापार करने और भ्रामक विज्ञापनों से आम आदमी को बचाने की ये उनकी एक कोशिश है।
जहाँ तक कंपनियों का सवाल है, ये दिशानिर्देश उनके मार्केटिंग के विभाग के लिए एक नयी चुनौती लेकर आता है। अब उन्हें ये ध्यान रखना पड़ेगा कि वो ऐसे ही सेलेब्रिटी इंडोर्समेंट नहीं कर सकते। अपने उत्पादों के प्रचार के लिए उन्हें जिम्मेदार व्यक्तियों का चुनाव करना होगा। केन्द्रीय उपभोक्ता संरक्षण प्राधिकरण (सीसीपीए) के पास अब भ्रामक विज्ञापनों या एंडोर्सर के जरिये गलत प्रचार करने पर उत्पादक, प्रचार बनाने-देने वाले और सोशल मीडिया इन्फ्लूएन्सर्स/एंडोर्सर पर दस लाख रुपये तक का जुर्माना करने का अधिकार भी आ गया है। बार-बार ऐसी हरकत दोहराने वालों पर ये जुर्माना बढ़ाकर पचास लाख रुपये तक किया जा सकता है। इसके अलावा एंडोर्सर जो ऐसे भ्रामक प्रचारों में लिप्त रहा हो, उसे एक वर्ष के लिए कोई एंडोर्समेंट लेने से प्रतिबंधित किया जा सकता है। बार-बार धोखाधड़ी करने वाले एंडोर्सर को तीन वर्षों तक के लिए प्रतिबंधित किया जा सकता है।
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उम्मीद है बदलते दौर में ऐसी बातों पर उपभोक्ता, जो कि भारत का आम नागरिक है, वो भी चर्चा करेगा। ऐसे कई मुद्दे हैं जो अभी चर्चा के दायरे में आये ही नहीं। उदाहरण के तौर पर, सोशल मीडिया एंडोर्समेंट या सेलेब्रिटी एंडोर्समेंट केवल उत्पादों और कंपनियों को नहीं मिलता। राजनैतिक दलों को भी चुनावी दौर में इसका फायदा उठाते देखा जा सकता है। पिछले ही लोकसभा चुनावों में बिहार के बेगुसराय में एक युवा नेता के पक्ष में कई सेलेब्रिटी एंडोर्सर उतरे थे। चुनावों के बाद जनता से किये वादों का क्या होता है, क्या उसके बारे में सोचा जायेगा? क्या समय नहीं आया कि इस बारे में भी सोचा जाए? जो भी हो, देर आये दुरुस्त आये की तर्ज पर ये तो कहा ही जा सकता है कि सोशल मीडिया एंडोर्समेंट का उपभोक्ता कानूनों के दायरे में आना एक अच्छी शुरुआत है। आगे ये कहाँ तक जाएगा, ये तो जनता के दबाव पर ही निर्भर करता है।