प्रातः कलेवा करने के पश्चात किशोरावस्था की पहली सीढ़ी पर खड़े उस बालक ने जब अपने द्वार पर मित्रों के झुंड को अनुपस्थित देखा तो उसके होंठ एक ओर खिंच से गए, बाईं आँख तनिक मुँद सी गई।
‘क्या बात हो गई? आज सारे मित्र किधर गए? क्या उन्होंने किसी अन्य बालक को अपना सरदार चुन लिया? पर मैंने तो ऐसा कुछ किया नहीं कि सब मुझसे चिढ़ जाएँ। बड़े विचित्र हैं यहाँ के लोग। बताओ, स्त्रियाँ और लड़कियाँ तो चिढ़ती ही थी, अब ये लड़के भी चिढ़ने लगे! भाड़ में जाएँ सब, मुझे किसी मनुष्य की आवश्यकता नहीं। मेरे लिए तो ये वन, मेरी गौवें, कदम्ब के वृक्ष और यमुना का जल ही पर्याप्त है।’
ऐसा विचार कर वह उछलते हुए घर से बाहर तो निकला, पर बिना विचारे ही उसके पग बड़ी माँ के घर की ओर बढ़ गए। वो अपने बड़े भैया के बिना तो कहीं जा ही नहीं सकता था। भैया कोई अन्य व्यक्ति थोड़ी थे, वे तो इस साँवले लड़के की परछाई थे। पर वहाँ बड़े भैया भी नहीं मिले।
अब तो बड़ी समस्या आन पड़ी। भाई के बिना क्या नदी, क्या कदम्ब। बिना उनकी रोकटोक के जीवन में कोई रस ही नहीं। हारकर वह पैर घिसटते हुए नदी की ओर बढ़ा, और उसके आश्चर्य का ठिकाना न रहा। वहाँ तो सारा गाँव ही इकट्ठा था। पुरुष भागदौड़ कर सामान जमा कर रहे थे, स्त्रियाँ भूमि लेप रही थी, ब्राह्मण वेदी बना रहे थे, बालक उधम मचा रहे थे। कृष्ण का सारा संसार वहाँ एकत्रित था।
पहले तो उसने सोचा कि जाकर अपने मित्रों के साथ उधम मचाने में उनको अपना सहयोग करे, पर उसकी जिज्ञासु प्रवृत्ति उसे बाबा के पास ले गई। बाबा जो गाँव के मुखिया भी थे, ब्राह्मणों और प्रतिष्ठित पुरुषों के साथ वेदी के निर्माण में व्यस्त थे।
“बाबा!”
ये लड़का इतना निकट आकर इस प्रकार चीखता क्यों है, यह सोचते हुए नन्द पलटे और मृदुवाणी में बोले, “हाँ कान्हा! क्या है?”
“ये क्या हो रहा है?”
“यज्ञ की तैयारी?”
“यज्ञ? आप कौन से राजा-महाराजा हो जो यज्ञ करने लगे?”
हँसी आ गई नन्द को, “अरे पगले, कोई राजसूय, वाजपेय या अश्वमेध यज्ञ थोड़ी कर रहा हूँ कि मेरा राजा होना आवश्यक हो? यह यज्ञ तो हम इंद्र को प्रसन्न करने के लिए कर रहे हैं।”
“इंद्र को प्रसन्न? क्यों? क्या वे आपसे क्रोधित हैं?”
“नहीं, क्रोधित तो नहीं हैं। पर बेटा, यह तो परम्परा है। इंद्र मेघों के स्वामी हैं। हम यज्ञ करते हैं, उन्हें प्रसन्न करते हैं, फिर वे प्रसन्न होकर वर्षा करते हैं। वर्षा होगी, तो वन और कृषिभूमि उर्वरा होगी।”
“अच्छा! अर्थात आप इस यज्ञ से उन्हें उत्कोच दे रहे हैं कि ले भाई इंद्र, तुझे इतना घी चढ़ा दिया, इतना अन्न चढ़ा दिया, अब तू वर्षा कर?”
तनिक क्रोधित हो उठे बाबा, “कैसी बात कर रहा है दुष्ट? देवताओं के सम्बंध में इस प्रकार नहीं बोलना चाहिए। कहीं वे क्रोधित हो उठे, तो अनर्थ हो जाएगा?”
“अच्छा, देवता नाराज हो जाएगा? प्रश्न पूछने से देवता नाराज हो जाते हैं? फिर देवता और दानवों में क्या अंतर रहा?”
“बालक, अपनी सीमा में रह। जा, जाकर अपने मित्रों के साथ क्रीड़ा कर। बड़ों को उनका कार्य करने दे।”
“जाता हूँ। बस एक प्रश्न का उत्तर दे दीजिए। आप तो पिता हैं, गुरु हैं। क्या आप मुझसे इसलिए प्रेम करते हैं, इसलिए मेरा ध्यान रखते हैं कि मैं आपकी पूजा करता हूँ? क्या अपनी माता की रसोई से रोटी पाने के लिए मुझे पहले उन्हें प्रसन्न रखना आवश्यक है?”
“नहीं। माता-पिता होने के कारण यह हमारा कर्तव्य है कि हम तेरा ध्यान रखें।”
“अर्थात आप अपना कर्तव्य निभाते हैं, ततपश्चात मेरे मन में आपके लिए पूज्यभाव उत्पन्न होता है। एक सामान्य व्यापारी भी पहले सामान देता है, फिर मूल्य लेता है। सूर्यदेव प्रकट होते हैं, तब उन्हें जल चढ़ाते हैं। राजा रंजन करता हैं, रक्षण करता है, न्याय करता है, तब उसे कर मिलता है। कर्मचारी पूरे माह सेवा करता है, तब उसे वेतन दिया जाता है। ब्राह्मण अनुष्ठान करवाता है, तब उसे दक्षिणा मिलती है। गुरु शिक्षा देता है, तब उसे गुरुदक्षिणा मिलती है। इसी प्रकार देवता भी अपना कर्तव्य निभाए, ततपश्चात ही उसे मनुष्यों की पूजा प्राप्त होती है। यह क्या बात हुई कि पहले पूजा करो, फिर मैं अपना कर्तव्य निभाऊंगा? यह इंद्रदेव क्या संसार से भिन्न हैं, सकल सृष्टि के नियमों से परे हैं?”
नन्द आश्चर्य से अपने पुत्र का मुख देखने लगे। यज्ञ की तैयारी में लगे लोगों के हाथ रुक गए। बात तो इस छोरे ने सही ही कही थी। सबको इस प्रकार अपनी ओर देखते हुए कृष्ण बोले, “यह संसार कर्म से ही संचालित होता है। प्रत्येक मनुष्य, पशु, पक्षी, पर्वत, नदी, देवता, यहाँ तक कि ईश्वर भी कर्म के अधीन है। कर्म करना ही धर्म है। बिना कर्म किये किसी भी फल की प्राप्ति की आशा करना मूर्खता है। यदि इंद्र है, वह मेघों का स्वामी है तो उसका कर्तव्य है कि वह वर्षा करे। यदि वह इस कार्य को करने से पहले ही मूल्य की आशा रखता है तो वह पूजनीय नहीं हो सकता।”
अबकी जब कृष्ण बोला तो जैसे स्वयं सच्चिदानंद वासुदेव बोल रहे थे, “बन्द कीजिये यह यज्ञ। इंद्र तब तक पूजा के अधिकारी नहीं, जब तक वे अपना कर्तव्य पूर्ण न कर लें। समुचित वर्षा, न कम, न अधिक वर्षा के पश्चात ही उन्हें धन्यवाद कहना चाहिए। आपको पूजा ही करनी है तो इस प्रकृति की कीजिए। इस गोवर्द्धन पर्वत की पूजा कीजिए, जो आपकी पूजा की अभिलाषा नहीं रखता। कभी आपने इसकी आराधना नहीं की, फिर भी यह अपना कर्तव्य निभाता चला जा रहा है। इसके वन हमारी रसोइयों के लिए ईंधन देते हैं, घर बनाने के लिए लकड़ी और पत्थर देते हैं। हमारी पूरी अर्थव्यवस्था गायों पर टिकी है। यह हमारे पशुधन को निःशुल्क चारा देता है।
“क्या आपको नहीं लगता कि हमारी प्रथमपूजा का अधिकारी कोई है तो यह गोवर्धन है?”
यह लेख अजीत प्रताप सिंह द्वारा लिखा गया है