गोवा आज अपना 61वाँ मुक्ति दिवस मना रहा है। देश का सबसे छोटा राज्य वर्ष में 2 बार स्वतंत्रता दिवस मनाता है। 15 अगस्त के दिन देशवासियों के साथ और दूसरा 19 दिसंबर को क्योंकि इस दिन गोवा को पुर्तगालियों से आजादी मिली थी। पुर्तगाली देश में आने वाले पहले और जाने वाले अंतिम औपनिवेशिक शासक थे।
ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में गोवा व्यापारिक दृष्टि से औपनिवेशिकों का केंद्र रह चुका है। गोवा की स्वतंत्रता भारत की संप्रभुता के लिए आवश्यक थी। देश ने सेना के अद्भुत शौर्य एवं प्रभावी कूटनीति के जरिए गोवा को पुनः भारतवर्ष का हिस्सा तो बनाया था पर यह आसान नहीं था।
पुर्तगाली गोवा को अपने अधिकार में क्यों रखना चाहते थे? इसके लिए गोवा की भौगोलिक एवं ऐतिहासिक स्थिति को समझना आवश्यक है। गोवा की भौगोलिक स्थिति वर्तमान में ही नहीं, इतिहास में भी आर्थिक संपन्नता को बढ़ावा देने वाली थी। यह पौराणिक भारत का महत्वपूर्ण व्यापारिक केंद्र था। यहाँ भारत के महान राजाओं द्वारा लंबे समय तक शासन किया गया था। मौर्य वंश का यहाँ 250 ईसा पूर्व तक राज था तो 300 से 600 ईसा पूर्व तक भोज वंश, सन् 960 से 1370 तक कदंब वंश, सन् 1370 से 1479 विजयनगर वंश और सन् 1479 से 1510 बहमनी राज का शासन रहा।
सन् 1510 में गोवा पर अल्फोंसो डी अल्बुकर्क द्वारा विजय प्राप्त करने पर इसका शासन पुर्तगाली उपनिवेश के हाथों में चला गया। पुर्तगाली गोवा पर नियंत्रण जरूरी मानते थे ये उनकी नौसैनिक शक्ति के लिए तो जरूरी था ही, साथ ही इसके और भी कई कारण थे।
ये सभी जानते हैं कि पुर्तगाली मिशनरी द्वारा मंतातरण का कार्य बड़े स्तर पर करवाया गया था। ईसाई धर्म को बढ़ावा देने के लिए गोवा की स्थिति पुर्तगाल वासियों के लिए आदर्श थी। तीसरा और सबसे मुख्य कारण समुद्री व्यापारिक मार्ग था।
उस समय देश का मालाबार कोस्ट व्यापारिक बंदरगाह के रूप में महत्वपूर्ण स्थान रखता था। हालाँकि, इस पर अरबों का स्वामित्व अधिक होने के कारण पुर्तगाली गोवा को व्यापार के दूसरे महत्वपूर्ण केंद्र के रूप में स्थापित करना चाहते थे। पुर्तगाली उपनिवेश के दौरान गोवा ने आर्थिक संपन्नता के शिखर को भी छुआ। ये इतना संपन्न राज्य था कि पुर्तगालियों ने इसे उनकी आर्थिक राजधानी के रूप में स्वीकार कर लिया।
गोवा को लेकर पुर्तगालियों के बीच एक कहावत प्रसिद्ध थी कि, He who has seen Goa need not see lisbon, अर्थात, जिसने गोवा देख लिया है उसे लिस्बन देखने की जरूरत नहीं। लिस्बन पुर्तगालियों की राजधानी थी।
गोवा पर पुर्तगालियों का राज था। इस दौरान भारत को अंग्रेजों से स्वतंत्रता मिल चुकी थी पर गोवा स्वतंत्र नहीं था। 1947 में अंग्रेज चले गए, फ्रांसीसी भी चले गए लेकिन पुर्तगाली नहीं। पुडुचेरी की आजादी के बाद लगा था कि पुर्तगाली भी चले जाएंगे लेकिन ऐसा हुआ नहीं।
भारत आजाद हो चुका था उसका एक भी हिस्सा परतंत्र हो ये कैसे हो सकता था। इसलिए जब भारत ने गोवा पर पुनः अपना अधिकार स्थापित करना चाहा तो वहाँ के पुर्तगाली शासक ने इसे अनैतिक और अवैध करार दे दिया। यहाँ तक की उन्होंने गोवा को पुर्तगाल का अखंड भाग बताते हुए ये तक कहा कि 1510 में उनके राज्य विलय के समय ‘भारत’ नाम का अस्तित्व ही नहीं था।
भारत में पुर्तगाली उपनिवेश के दायरे में गोवा, दमन और दीव एवं दादरा एवं नगर हवेली आते थे। 4000 वर्ग किमी में फैले क्षेत्र में 6 लाख की आबादी निवास करती थी। इनमें करीब 61% हिंदू तो 35% ईसाई एवं अन्य धर्म के लोग निवास करते थे।
देश में पुर्तगालियों के विरुद्ध अभियान की शुरुआत सन् 1928 से मानी जा सकती है जब एक फ्रेंच इंजीनियर ट्रिस्टाओ डी ब्रागांका कुन्हा ने गोवा में लोगों को पुर्तगालियों के विरुद्ध छपी पत्रिकाओं का वितरण किया, जिनमें उनके 400 वर्षों के दमन की कहानी अंकित थी। इसी इंजीनियर द्वारा गोवा कॉन्ग्रेस कमेटी की नींव रखी थी।
वर्ष 1938, में सुभाष चंद्र बोस की देखरेख में यहाँ भारतीय राष्ट्रीय कॉन्ग्रेस का मुख्यालय खोला गया था। इसके कुछ वर्षों बाद वर्ष 1946 में समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया ने यहाँ आकर लोगों से अहिंसा के जरिए सरकार से मुक्ति मांगने का आह्वान किया।
सरकार के दमन के खिलाफ लोग मोर्चा खोल चुके थे। इसे रोकने के लिए पुर्तगाली सरकार ने सार्वजनिक सभाओं, रैलियों आदि पर रोक लगा दी। इसके परिणामस्वरूप विरोध प्रदर्शन रुकने की बजाए और उग्र हो गए। गोवा की सरकार ने इन विरोध प्रदर्शनों के दमन के लिए आबादी पर कई अत्याचार किए। यहाँ तक की सरकारी योजनाओं जैसे, रेलवे, सड़कें और दूरसंचार के साधनों को नष्ट करने के प्रयास किए गए।
फिर वर्ष 1947 में देश आजाद तो हुआ लेकिन, गोवा का मसला अभी हल नहीं हुआ था। इसलिए वर्ष 1950 में भारत सरकार ने पुर्तगाली सरकार को वार्ता के लिए आमंत्रित किया था लेकिन पुर्तगाली प्रधानमंत्री एंटोनियो सालाजार ने साफ तौर पर नजरअंदाज करते हुए गोवा पर उनका अधिकार बताकर भारत से किसी भी तरह की वार्ता के रास्ते बंद कर दिए।
पुर्तगाली गोवा को छोड़ना क्यों नहीं चाहते थे? गोवा उनके लिए आदर्श बंदरगाह था। गोवा की भौगोलिक स्थिति से पुर्तगालियों के जहाज को सबसे अधिक फायदा पहुंच रहा था। मलय, पेनिस्विलना से ईस्ट पुर्तगाली राज्यों को जोड़ने की कड़ी में गोवा महत्वपूर्ण स्थान रखता था। गोवा में बसे ईसाईयों का हवाला देकर भी पुर्तगालियों ने यहाँ राज करना चाहा था। वो व्यापारिक क्षेत्र का फायदा उठाकर स्थानीय आबादी के अधिकारों का हनन कर रहे थे।
इससे तंग आकर भारत ने धीरे-धीरे दादरा और नगर हवेली में अपना अधिकार जमाना प्रारंभ कर दिया था। इस क्षेत्र में पुर्तगाल की सेना के बजाए कुछ पुलिस कर्मियों के हवाले ही प्रशासन का काम होता था। साथ ही, ये ऐसा क्षेत्र था जो चारों ओर से भारतीय भू-भाग से घिरा हुआ था। भारत ने कूटनीति का सहारा लेते हुए इस क्षेत्र में सभी प्रकार के प्रतिबंध और सेवाओं के आदान-प्रदान पर रोक लगा दी। इसके जरिए दमन एवं दीव और दादरा एवं नागर हवेली के बीच कोई संबंध नहीं रहे। इसी दौरान गोवा में भारतीय दलों ने विरोध प्रदर्शनों को नई दिशा प्रदान कर दी।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, आजाद गोमांतक दल, यूनाइटेड फ्रंट ऑफ गोवा, नेशनल मूवमेंट लिबरेशन यूनिट ने यहाँ स्थानीय लोगों का नेतृत्व कर पुर्तगाल सरकार के खिलाफ विद्रोह को और तेज कर दिया था। विद्रोह और प्रतिबंधों से घिरी पुर्तगाल सरकार ने भारत से प्रतिबंध हटाने को कहा लेकिन भारत सरकार ने साफ इंकार कर दिया। इसके बाद दादर और नागर हवेली तो पुर्तगालियों से स्वतंत्र हो चुका था और अब गोवा की बारी थी।
हालाँकि, विद्रोह के दमन का पुर्तगालियों को शायद एक ही तरीका पता था और वह था हत्या का। 15 अगस्त, 1955 को यहाँ स्थानीय लोगों द्वारा यहाँ एक लिबरेशन मार्च का आयोजन किया गया था इसे बंद करवाने के लिए पुर्तगाली सरकार ने इन पर अंधाधुंध गोलियां चलवा दी जिसमें निहत्थे 30 लोगों ने अपनी जान गंवा दी। इस घटना को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चा हुई और पुर्तगाल सरकार की आलोचना भी की गई। अब तक पुर्तगाल को अंतरराष्ट्रीय वर्ग का समर्थन प्राप्त था जो कि अब पूरी तरह खत्म तो नहीं हुआ लेकिन कम जरूर हो गया था।
गोवा को आजाद करवाने के संघर्ष में जनआंदोलन ही नहीं बल्कि, कूटनीतिक तरीकों की भी भूमिका रही है। कश्मीर हो या चीन या फिर पुर्तगाली शासक तत्कालीन प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री जवाहरलाल नेहरू ने गोवा का मसला अंतरराष्ट्रीय वर्ग के सामने रखा था। यहाँ तक कि इस सिलसिले में उन्होंने तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति ड्वाइट डेविड आइज़नहावर से बात भी की थी। हालांकि, सोवियत संघ को छोड़कर कोई भी देश भारत सरकार के पक्ष में नहीं खड़ा था।
तत्कालीन रक्षा मंत्री वीके मेनन ने संयुक्त राष्ट्र में भी गोवा का मामला उठाकर कहा था कि समय आने पर भारत सेना का सहारा भी ले सकता है। इस पूरे मामले के दौरान अमेरिका भारत सरकार को युद्ध की संभावनाओं को टालने पर जोर देता रहा था। अमेरिका में सरकार बदली। गोवा की परिस्थितियां बिगड़ती जा रही थी। इनका जिक्र पंडित नेहरू ने संसद में भी किया था।
नेहरू को लगा था अमेरिका की नई कैनेडी सरकार से उन्हें सैन्य कदम उठाने की अनुमति मिल जाएगी। हालाँकि अनुमति की क्या आवश्यकता थी? यहां तक की वर्ष 1960 में संयुक्त राष्ट्र ने एक संकल्प पत्र पास करके गोवा को एक गैर स्वशासी क्षेत्र घोषित किया था, जिसका विरोध पुर्तगाली सरकार ने किया।
परिस्थितियां बद से बदतर हो चुकी थी। पुर्तगाली सरकार के दमन से गोवा में विद्रोह छिड़ा हुआ था। गोवा में हो रहे अत्याचारों का जिक्र पंडित नेहरू ने संसद में भी किया। इसी के चलते वर्ष 1961 में ऑपरेशन विजय की शुरुआत की गई। 24 नवंबर, 1961 को एक यात्री जहाज अंजदिवा द्वीप से गुजर रहा था तब पुर्तगाली सेना द्वारा उसपर गोलीबारी की गई जिसमें एक व्यक्ति की मौत भी हो गई। इस घटना ने भारत सरकार को पुर्तगालियों द्वारा किए जा रहे दमन को शांत करने का एक कारण दे दिया था।
गोवा को पुर्तगाल वासियों और उनके दमन से हमेशा के लिए आजाद करने के लिए भारतीय थल, जल और वायु सेना के द्वारा संयुक्त मोर्चा खोला गया। लेकिन, पुर्तगाली प्रधानमंत्री ने सरेंडर करने के बजाए युद्ध का रास्ता चुना। 17 दिसंबर, 1961 को ऑपरेशन विजय की शुरुआत हुई। भारतीय सेना ने गोवा के उत्तर-पूर्वी क्षेत्र पर अधिकार स्थापित कर लिया था। 18 दिसंबर, 1961 तक गोवा के अधिकतर भाग पर भारतीय सेना का अधिकार हो चुका था। इस दौरान पुर्तगाली पीएम सालाजार ने अपनी सेना को ‘Scorched earth tactics’ का प्रयोग करने को कहा था जिसका अर्थ है कि सेना पीछे हटते हटते सारे संसाधनों को नष्ट करते हुए जाएगी।
इस दौरान भारतीय वायुसेना ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई जिसका पुर्तगाली सेना के पास कोई जवाब नहीं था। साथ ही भारतीय जल सेना ने अंजदिवा द्वीप पर आईएनएस मैसूर और आईएनएस त्रिशूल की तैनाती करके पुर्तगालियों से मुक्ति प्राप्त कर ली थी। मात्र 36 घंटे चले ऑपरेशन विजय के जरिए भारतीय सेनाओं ने अपने अदम्य शौर्य से गोवा को हमेशा के लिए एक बार फिर भारत का अखंड हिस्सा बना दिया।
450 वर्षों के लंबे अंतराल के बाद गोवा तो आजाद हो चुका था लेकिन पुर्तगाली पीएम सालाजार शांत नहीं रहे और गोवा की मुक्ति को अवैध रूप से अधिकृत संपत्ति बताया और हर अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत द्वारा चलाए सैन्य अभियान की जमकर आलोचना की। साथ ही, भारत के साथ कूटनीतिक संबंधों पर भी हर प्रकार से रोक लगा दी थी। आज 61 वर्षों बाद भी पुर्तगाल इसे गोवा की मुक्ति नहीं बल्कि गोवा का राज्य हरण मानता है।
बहरहाल, वर्तमान में गोवा भारत का अखंड हिस्सा है। गोवा सांस्कृतिक भारत का महत्वपूर्ण हिस्सा रह चुका है। आखिर गोवा नाम ही वैदिक काल की देन है। ये गोमांतक शब्द से लिया गया है, जिसका अर्थ है उपजाऊ भूमि। देश का सबसे छोटा राज्य होते हुए भी ये आर्थिक सम्पन्नता से परिपूर्ण है। प्राकृतिक और भौगोलिक दशाओं से ये पर्यटकों से गुलजार रहता है जिसका सीधा फायदा राज्य के आर्थिक विकास को मिलता है।
हालाँकि गोवा मुक्ति के इस सफर में भारत को पश्चिमी देशों से भारी विरोध का सामना करना पड़ा था लेकिन, सोवियत संघ ने खुल कर भारत का समर्थन किया था और यूएई, ट्यूनीशिया, मोरक्को ने भी भारत के कदम को जायज ठहराया था। बहरहाल, भारत ने वो ही वापस लिया जो उसका था।
इसमें कोई दो राय नहीं है। हालाँकि सैन्य अभियान को अन्याय बताने वाले मार्टिन लूथर किंग जूनियर के ये शब्द याद रखें- “Freedom is never given voluntarily by the oppressor; it must be demanded by the oppressed.” हिन्दी में इसका अर्थ है, “स्वतंत्रता शोषक द्वारा दी नहीं जाती, बल्कि यह शोषितों द्वारा छीनी जानी चाहिए।”