विश्व भर में बहुत सी संस्थाएं ऐसी हैं जो कि अलग-अलग देशों को उनके लोकतंत्र होने का प्रमाण-पत्र बांटते घूमती हैं। हाल ही में आई कुछ रिपोर्टों में भारत के लोकतंत्र को खतरे में या इसके चुनावी निरंकुश राज्य में बदल जाने की बात कही गई है।
इन रिपोर्टों की विश्वसनीयता पर संदेह जताते हुए प्रख्यात अमेरिकी समाजशास्त्री सल्वाटोर बबोंस ने ‘इंडियन डेमोक्रेसी एट 75: हू आर दी बार्बारियन्स एट दी गेट’ (Indian Democracy At 75: Who Are Barbarians At The Gate) शीर्षक से लिखे एक लेख में बताया है कि ऐसी रिपोर्टें कुछ देशों के प्रति पूर्वाग्रह रख कर तैयार की जाती हैं जिनमे से भारत एक है। उन्होंने इन रिपोर्ट में दिए गए तर्कों तथा आंकड़ों पर भी संशय जताया है।
भारत के विषय में बताते हुए वह कहते हैं कि यह विश्व की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक व्यवस्था तब की बनी हुई है जब विश्व में मात्र एक दर्जन से कम देश ही पूर्णतया लोकतंत्र का पालन करते थे। इसके अतिरिक्त कम आय वाले देशों में भारत ही एक देश है जहाँ लोकतंत्र इतना फल-फूल सका है।
भारत के प्रति पूर्वाग्रह से ग्रस्त हैं रिपोर्ट
बबोंस लिखते है कि आज लोकतंत्र की रैंकिंग देना एक बाजार में तब्दील हो चुका है जहाँ दर्जनों ऐसी संस्थाएं हैं जो विश्व की मीडिया का ध्यान आकर्षित करने के लिए आतुर रहती हैं। बबोंस लिखते हैं कि विश्व की तीन सबसे ज्यादा प्रभाव वाली संस्थाएं- ईआईयू, वी-डेम और फ्रीडम हाउस हमेशा से ही भारतीय जनता पार्टी की सरकार के प्रति पूर्वाग्रह रखती आई हैं।
इनके द्वारा भाजपा के द्वारा भारतीय राजनीति में लिए गए निर्णयों की आलोचना लम्बे समय से की जाती रही है।
वहीं इन संस्थाओं के द्वारा ऐसी घटनाओं को अपनी रिपोर्ट में उदाहरण के तौर पर पेश किया जाता है, जो भारतीय जनता पार्टी द्वारा चलाई जा रही सरकार की छवि को ठेस पहुंचाए।
समाजशास्त्री बबोंस लिखते हैं कि कुछ समस्याएं भारत में हो सकती हैं पर इन रिपोर्टों में भारत के खिलाफ पक्षपात का पुट ज्यादा दिखाई पड़ता है। इन रिपोर्टों में दिए गए कारण काफी अतार्किक हैं, साथ ही साथ जहाँ पर विशेषज्ञों की राय की बात है तो ऐसे ही लोगो को अधिकतर शामिल किया गया हैं जो कि अधिकतर कम्युनिस्ट अथवा वाम दलों से जुड़े हुए रहे हैं।
और हास्यास्पद बात यह है कि रिपोर्ट में भारत को श्रीलंका, आर्मेनिया अर्जेंटीना और दक्षिण अफ्रीका से भी कम लोकतांत्रिक बताया गया है। बबोंस लिखते हैं कि यह रिपोर्ट गलत आंकड़ो पर आधारित होने के साथ-साथ ही फर्जी आन्दोलनजीवियों के आरोपों पर ज्यादा आधारित होती हैं।
प्रमुख तीन संस्थाओं का कच्चा चिट्ठा
समाजशास्त्री बबोंस अपने लेख में इन संस्थाओं के काम करने के तरीके, उनके पैसे के स्त्रोत और उनके द्वारा बनाई गई रिपोर्टों पर काफी जानकारी देते हैं ।
1. इकॉनोमिक इंटेलीजेंस यूनिट
सबसे पहले वह इकॉनमिस्ट मैगजीन के द्वारा चलाई जा रही संस्था इकोनोमिक इंटेलिजेंस यूनिट के बारे में बताते हुए लिखते हैं कि इस संस्था ने लगातार ही ऐसी खबरों को जगह दी है जो भारत की नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली भाजपा सरकार के खिलाफ रही हों।
उन्होंने इस संस्था के द्वारा छपे इसे ही एक लेख का जो कि भारत के CAA नागरिकता कानून जिसके अंतर्गत पड़ोसी देशों से धार्मिक तौर पर प्रताड़ित गैर-मुस्लिमों को नागरिकता देने का प्रावधान है, के विषय में लिखा गया था। इस मैगजीन ने मोदी सरकार पर मुसलमानों के खिलाफ नीति-निर्माण का आरोप लगाया था।
हालाँकि, ऐसा कहीं भी नहीं सिद्ध हो सका है कि यह कानून मुसलमानों के खिलाफ था या उनसे किसी भी तरह का पक्षपात करता है। इस कानून का मकसद पड़ोसी मुस्लिम बहुलता वाले देशों से पीड़ित अल्पसंख्यकों को आसानी से नागरिकता उपलब्ध कराना था।
वहीं इस मैगजीन ने प्रधानमंत्री मोदी के अयोध्या में भूमिपूजन में भी भाग लेने को लेकर प्रश्न उठाए थे, जबकि साफ तौर से यह मुद्दा न्यायिक कार्यवाही के अंतर्गत था। सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद ही प्रधानमंत्री मोदी ने उस स्थान पर जाकर भूमिपूजन किया था जो कि संविधान या लोकतंत्र को किसी भी तरीके से नुकसान नहीं पहुंचाता।
इसी के साथ ही इस संस्था ने कृषि कानूनों के खिलाफ होने वाले प्रदर्शनों को लोकतंत्र में सुधार की तरह बताया है, वह बात अलग है कि इन कानूनों को भारत की लोकतांत्रिक तरीके से चुनी हुई संसद के दोनों सदनों में पास किया जा चुका था।
2. वैरायटीज ऑफ फ्रीडम इंडेक्स
इसके बाद वैरायटीज ऑफ फ्रीडम इंडेक्स (वी-डेम) के बारे में बताते हुए समाजशास्त्री लिखते हैं कि इसको खाद-पानी यानी फंडिंग अमेरिका और यूरोप से होती है।
इस संस्था ने भारत को ऐसा राष्ट्र बताया है जहाँ लोकतंत्र अपनी समाप्ति के कगार पर है, इसने भारत को एक निर्वाचित निरंकुशता वाला देश बताया और अपनी रैंकिंग में इस समय की लोकतांत्रिक स्थिति को
1975-77 के समय के भारत के बराबर रख दिया।
उस दौरान इंदिरा गांधी की अगुवाई वाली कांग्रेस सरकार ने भारत में अघोषित तानाशाही के रूप में आपातकाल लागू कर दिया था, जबकि आज के भारत के समक्ष ऐसी कोई स्थिति नहीं है। ना ही प्रेस पर छापे पड़ रहे हैं, ना ही विपक्ष के नेताओं को जबरन जेलों में ठूंसा जा रहा है, ना ही लोगों की नसबंदी जबरन की जा रही है।
इस संस्था ने भारत को निर्वाचित निरंकुशता वाले देश के रूप में घोषित करने के पीछे यह तर्क दिया है कि इस दौरान भारत के चुनाव आयोग की स्वायत्तता में कमी आई है, और इसके पीछे के कोई भी कारण नहीं बताए।
इसी के साथ ही यह रिपोर्ट भारत की मोदी सरकार पर सामाजिक संस्थाओं पर FCRA कानून जो कि भारत में बाहर के देशों से आने वाली किसी भी प्रकार की फंडिंग को नियमित करता है, के माध्यम से दमन का आरोप लगाती है जबकि यह कानून 2010 में पास किए गए थे जब भाजपा सत्ता में ही नहीं थी।
भाजपा ने इन कानूनों में मात्र संशोधन किया था। कई और देश जैसे ऑस्ट्रेलिया भी ऐसे फंड की काफी कड़ी निगरानी करते हैं क्योंकि इनके दुरुपयोग की संभावना काफी अधिक होती है। ऐसे में भारत का बाहर से आने वाली धनराशि को नियमित करना लोकतंत्र के खिलाफ होना किस प्रकार से है, यह रिपोर्ट नहीं बताती।
3. फ्रीडम हाउस
मुख्यतः अमेरिकी सरकार के द्वारा पोषित यह संगठन वर्ष 1973 से ही विश्व भर में लोकतंत्र के सूचकांक की रिपोर्ट ‘फ्रीडम इन दी वर्ल्ड’ नाम से प्रकाशित करता आया है। 2022 में इस संस्था ने भारत को अपनी रैंकिंग में 85वें स्थान पर रखा है।
हास्यास्पद रूप से यह रिपोर्ट इसे ही फंड करने वाले देश अमेरिका को 57वें स्थान पर रखती है, जो कि अर्जेंटीना और मंगोलिया से भी नीचे है। संस्था ने भारत की रैंकिंग को घटाने के पीछे अजीब से तर्क दिए हैं।
संस्था ने गौहत्या पर प्रतिबंध लगाने, खाप पंचायतों पर रोक ना लगा पाने जैसे कारण इसके पीछे दिए हैं। चूंकि खाप पंचायतें कोई राजनीतिक ना होकर सामजिक विषय हैं, इसलिए उनका कोई असर भारत के लोकतंत्र पर पड़ता है यह कारण देना काफी अतार्किक लगता है।
वहीं अगला कारण इस रिपोर्ट में भारत में पत्रकारों की हत्याओं को बताया गया है, यह बात सही है कि पत्रकारों की हत्या एक अत्यंत ही गंभीर मुद्दा है, लेकिन भारत के विषय में इस रिपोर्ट में बताया गया है कि वर्ष 2021 में 5 पत्रकारों की हत्या भारत में हुई जो कि पूरे वैश्विक आंकड़े का 11% है।
भारत विश्व की 18% जनसंख्या का वास-स्थान है और इस रिपोर्ट में चीन से समबन्धित आंकड़े दिए नहीं गए हैं, जिससे यह हिस्सा 21% हो जाता है। ऐसे में यदि भारत में विश्व भर के पांचवे हिस्से की जनसंख्या निवास करती है और 10% पत्रकारों की हत्या हुई है तो अवश्य चिंता की बात है पर आंकड़े किसी भी प्रकार से लोकतंत्र को नुकसान पहुँचाएं ऐसे नहीं हैं।
भारत का लोकतंत्र सबसे बड़ा ही नहीं, पुराना भी
अपने लेख में आगे बबोंस भारतीय लोकतंत्र की खासियत बताते हुए लिखते हैं कि भारतीय लोकतंत्र विश्व में सबसे बड़ा ही नहीं बल्कि सबसे पुराने लोकतंत्र में से एक है। 1947 से ही लोकतंत्र रहने वाला यह राष्ट्र जब आजाद हुआ था तब विश्व में मुट्ठी भर राष्ट्र ही ऐसे थे जो कि पूर्णतया लोकतांत्रिक थे।
भारत में नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली भाजपा सरकार पर मुस्लिमों के खिलाफ काम करने के आरोपों को एक अमेरिकन रिपोर्ट ही ख़ारिज करती है, अमेरिका की विख्यात एजंसी प्यु रिसर्च की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2019 में 19% मुस्लिमों ने भाजपा को वोट दिया।
वहीं प्रधानमंत्री मोदी के विगत कुछ भाषणों से साफ पता चलता है कि वे भाजपा में मुस्लिमों की सदस्यता को लेकर काफी गंभीर हैं।
रिपोर्ट भले झूठ हो , धारणा बनाने में मदद करती हैं
बबोंस लिखते हैं कि भले ही इन रिपोर्टों का कोई आधार ना हो तथा यह सही ना भी हों पर इनका प्रभाव देशों के आपसी संबंधों में पड़ता है। कुछ पश्चिमी देश जैसे कि ब्रिटेन और आस्ट्रेलिया इन रिपोर्टों के आधार पर अपने राजनयिक संबंधों में व्यवहार करते हैं। ऐसी स्थिति में भारत लोकतांत्रिक रैंकिंग में निचले स्थानों पर रखा जाना गलत है, यदि ऐसा होता है तो किस मुंह से पश्चिमी देश भारत के साथ सहयोग कर पाएंगें।
इन रिपोर्टों में किसी भी देश रैंकिंग को घटाने बढाने के लिए उस देश में कुछ समय में हुई घटनाओं का उदाहरण दिया जाता है। इन घटनाओं को इस पूर्वाग्रह के साथ ही उठाया जाता है कि देश की कैसी छवि तैयार करनी है। यहाँ पर इस बात का ध्यान नहीं रक्खा जाता कि भारत जैसी विशाल जनसंख्या वाले देश में कुछ एक घटनाएं लोकतंत्र के खतरे में होने का पैमाना नहीं मानी जा सकती।