जम्मू-कश्मीर और लद्दाख की राजनीति में पिछले 3 वर्षों में अभूतपूर्व बदलाव देखने को मिले हैं। कॉन्ग्रेस के वरिष्ठ नेता गुलाम नबी आजाद का पार्टी से इस्तीफा देना और जम्मू-कश्मीर में एक नई पार्टी बनाने की घोषणा करना, इस बात की ओर संकेत करता है कि जम्मू-कश्मीर और लद्दाख की राजनीति में बड़ा बदलाव देखने को मिल सकता है।
आगामी कुछ महीनों में कई राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं, जिनमें जम्मू-कश्मीर और लद्दाख का चुनाव सबसे महत्वपूर्ण माना जा रहा है, क्योंकि अनुच्छेद 370 व 35ए हटने और केन्द्र शासित प्रदेश बनने के बाद पहली बार यहां विधानसभा चुनाव होना है।
5 अगस्त, 2019 के बाद जिस बदलाव की उम्मीद जम्मू-कश्मीर और लद्दाख में की जा रही थी, उसी कड़ी में यह राजनीतिक बदलाव देखा जा रहा है। इससे पहले तक जम्मू-कश्मीर के सर्वेसर्वा के रूप में 2 परिवार ही रहे थे, घाटी तक सीमित इन 2 परिवारों का प्रभाव पूरे जम्मू-कश्मीर और लद्दाख पर देखा जा सकता था।
तकरीबन 50 सालों तक कॉन्ग्रेस के साथ रहने के बाद गुलाम नबी आजाद का इस्तीफा देना इस बात का पर्याय है कि गांधी परिवार और बाकी कॉन्ग्रेसी नेताओं के बीच निभ नहीं रही थी। जी-23 काफी समय से कॉन्ग्रेस पार्टी में सुधार पर जोर देने की बात करता आया है। पार्टी में एक स्थायी अध्यक्ष होने की बात करता आया है।
सुधार तो दूर की बात जी-23 के नेताओं पर ही हमला होता है। जम्मू-कश्मीर में तो गुलाम नबी आजाद की शव रैली ही निकाल दी जाती है, कपिल सिब्बल के घर पर हमला होता है। ऐसे में गुलाम नबी आजाद के इस्तीफा देना स्वाभाविक ही था। इस्तीफे का प्रत्यक्ष प्रभाव कॉन्ग्रेस पर तो पड़ ही रहा है, साथ ही अप्रत्यक्ष रूप से यह जम्मू-कश्मीर की क्षेत्रीय पार्टियों को भी प्रभावित करेगा।
गुलाम नबी आजाद का कहना है कि वे अब जम्मू-कश्मीर की राजनीति करेंगे। इस बात से जम्मू-कश्मीर के राजनीतिक गलियारों में एकाएक हलचल पैदा हो गई है। जम्मू-कश्मीर के कई नेताओं ने इस्तीफा देना शुरू कर दिया है, इसका अर्थ यह हुआ कि कॉन्ग्रेस का जो आधार जम्मू-कश्मीर में बचा हुआ था, वो भी अब खिसकने पर आ गया है। गुलाम नबी आजाद का जम्मू-कश्मीर में सक्रिय होना, जिसका सीधा प्रभाव कॉन्ग्रेस पर तो पड़ ही रहा है वहीं गुपकार गठबन्धन को भी यह निश्चित रूप से प्रभावित करने वाला है।
गुलाम नबी आजाद का घाटी में आना मुस्लिम वोट को तोड़ने का काम करेगा। अब तक घाटी की मदद से पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) और नेशनल कॉन्फ्रेस (एनसी) ने दशकों तक जम्मू-कश्मीर पर राज किया है। अब तक इन दोनों परिवारों को चुनौती देने के लिए कोई अन्य राजनीतिक दल घाटी में नहीं उभरा था। यही दो दल घाटी में अलगाव के नाम पर डरा-धमकाकर राष्ट्रीय पार्टियों को झुकने और समझौता करने पर मजबूर करते रहते थे।
जम्मू-कश्मीर की सम्पूर्ण राजनीति मुफ्ती और अब्दुल्ला परिवार के इर्द-गिर्द घूमती थी। तभी तो मुफ्ती यह कहती हैं कि “जम्मू-कश्मीर में भारत का झंडा उठाने वाला भी कोई नहीं मिलेगा।” घाटी को अपनी बपौती मानने वालों का भ्रम साल 2019 आते-आते टूटने लगा। अपने एकाधिकार को बचाने के लिए गुपकार गुट भी बना। इस गुट का मकसद ही यह है कि कैसे घाटी में अपने आप को बचाया जाए। घाटी में बने रहने के लिए अनुच्छेद 370 और 35ए की वापसी, जम्मू-कश्मीर का अपना संविधान जैसी लफ्फाजी यह गुपकार गुट करता आया है।
कॉन्ग्रेस समेत गुपकार गुट को साल 2020 के जिला विकास परिषद चुनाव में जनता ने आईना दिखा दिया था। जम्मू-कश्मीर के इतिहास में पहली बार साल 2020 में जिला विकास परिषद चुनाव सम्पन्न हुए, जिसमें भाजपा 75 सीटें जीतकर एक बड़ी पार्टी के रूप में उभर कर आई। इन सीटों के मायने तब और भी बढ़ जाते हैं, जब पूरे देश-विदेश से यह माहौल बनाया जाता है कि भाजपा जम्मू-कश्मीर के अवाम के विरुद्ध काम करती है।