जॉर्ज सोरोस एक महत्वपूर्ण व्यक्ति हैं इसलिए उन्होंने जो कहा है वह महत्वपूर्ण हो जाता है। उनकी कही बातों पर बीजेपी के नेताओं और सरकार के मंत्रियों की त्वरित प्रक्रिया अपने आप में उनके महत्वपूर्ण होने का प्रमाण है। उनकी टिप्पणी को लेकर लोग अपने-अपने अनुमान लगाने के लिए स्वतंत्र हैं और मैं भी अपनी स्वतंत्रता का उपयोग करते हुए जॉर्ज सोरोस की बातों का विश्लेषण करने की कोशिश कर रहा हूँ।
सोरोस के कथन में दो बातें स्पष्ट रूप से निकल कर आती हैं। एक, वो भारतीय लोकतंत्र को लेकर चिंतित हैं और भारतीय लोकतंत्र को लेकर उनकी चिंता भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इर्द-गिर्द हैं। दूसरा, जॉर्ज सोरोस के कथ्य से जाहिर होता है कि अडानी विवाद ने उनको भारतीय लोकतंत्र के भविष्य को लेकर आशान्वित होने का अवसर दिया है लेकिन मोदी से मुक्त भारत में वैकल्पिक नेतृत्व कौन होगा इसे लेकर जॉर्ज सोरोस मौन हैं। इन दो बातों को मिलाकर देखने पर ये निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि जॉर्ज सोरोस भारतीयों के मन में मोदी के नेतृत्व के प्रति संदेह तो पैदा करना चाहते हैं लेकिन यह नहीं बता पा रहे कि संदेह के परे भारतीय नेतृत्व कौन होगा और कैसा दिखेगा।
मैं इसमें नहीं जाऊंगा कि जॉर्ज सोरोस जैसों की पृष्ठ्भूमि क्या रही हैं क्योकि मुझको पता हैं जॉर्ज सोरोस ना तो पहले हैं और ना आखिरी जो नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय लोकतंत्र के भविष्य को लेकर चिंतित हैं। सोरोस की पृष्ठ्भूमि को चर्चा का विषय बनाना मैं एक गंभीर मुद्दे का सामान्यीकरण करने की कोशिश समझता हूँ। मैं इस सत्य को स्वीकार करता हूँ कि इस चुनावी वर्ष में भारतीय लोकतंत्र को लेकर वैश्विक बिरादरी में चिंताओं की बाढ़ आने वाली है और एक भारतीय होने के नाते मैं ऐसी चिंताओं को वैश्विक बिरादरी में देश के बढ़ते महत्व के तौर पर देखता हूँ।
जहाँ तक मोदी और उनसे जुड़ी लोकतान्त्रिक चिंताओं का प्रश्न है, मैं एक आमूलचूल परिवर्तन देख पा रहा हूँ। 2002 से 2014 के बीच में ऐसी चिंताएं देश में बैठा एक विशिष्ट वर्ग करता था और 2014 के बाद वैश्विक बिरादरी का एक विशिष्ट वर्ग उन्हीं चिंताओं से ग्रस्त है और इस प्रकार मोदी साहब ने खुद को लेकर उत्पन्न चिंताओं का सफलतापूर्वक अन्तरराष्ट्रीयकरण कर दिया है जो मोदी साहब की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है।
जॉर्ज सोरोस ऐसा कुछ भी नया नहीं कर रहे जो मोदी ने पहले ना झेला हो लेकिन मोदी साहब की उपलब्धि जरूर नई है। जहाँ तक मोदी और अडानी के संबंधों की बात है तो देश ने राफेल मामले का हश्र 2019 के आम चुनाव में देख रखा है और मोदी साहब को 2002 से ऐसी चिंताओं का जवाब देते भी देखा है। जॉर्ज सोरोस इम्तिहान में मोदी से वो सवाल पूछ रहे हैं जिसकी तैयारी मोदी ने 2002 से कर रखी है। गुजरात के अनुभवों के आधार पर ये निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि वास्तव में जॉर्ज सोरोस जैसे लोग अन्तरराष्ट्रीय बिरादरी में मोदी नामक व्यक्ति और भारत नामक देश के बीच में जो अंतर होना चाहिए उसको समाप्त करने का जतन कर रहे हैं। 2002 के बाद जैसे मोदी गुजरात हो गए वैसे ही अगर 2024 के बाद मोदी भारत हो जाएँ तो मुझे कोई आश्चर्य नहीं होगा। अगर ऐसा हुआ तो बीजेपी को इंदिरा गाँधी प्रवृत्ति से कैसे बचना है, ये जरूर सोचना होगा। तो गम्भीरतापूर्वक देखने पर यह समझ आता है कि जॉर्ज सोरोस जैसे भारत में लोकतंत्र में व्यक्तिवाद को पुनर्स्थापित करने में योगदान कर रहे हैं जो भारतीय ही नहीं बल्कि किसी भी लोकतंत्र के लिए समस्या है। इस परिप्रेक्ष्य में मोदी साहब के लिए चुनौती यह है कि वो सुनिश्चित करें कि उनके बाद भारतीय राजनीति उस ढलान पर नहीं उतरेगी जैसे इंदिरा गाँधी के बाद उतरी थी।
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अब उस सवाल पर आते हैं जिसका जवाब जॉर्ज सोरोस जैसों के पास भी नहीं है। वो सवाल है कि मोदी का विकल्प क्या है? क्या सिर्फ नागरिकों के मन में संदेह उत्पन्न करके मोदी को विस्थापित किया जा सकता है? विश्वनाथ प्रताप सिंह ने राजीव गाँधी के साथ ऐसा सफलतापूर्वक किया था लेकिन क्या मोदी के मामले में राहुल गाँधी विश्वनाथ प्रताप सिंह वाला प्रयोग दोहरा सकते हैं? इसका विश्लेषण करने के लिए सबसे पहले यह देखना होगा कि क्या अडानी और बोफोर्स एक जैसे मामले हैं? राफेल और बोफोर्स में तो तब भी कुछ समानताएं थीं लेकिन अडानी को लेकर मोदी को घेरना कॉन्ग्रेस के अतिआशावाद को दिखाता है, खासकर तब तो और जब कॉन्ग्रेस की राज्य सरकारों ने खुद अडानी को अनेक ठेके दे रखे हों। थोड़ी देर के लिए अगर मान भी लिया जाए कि अडानी के नाम पर विपक्ष ने मोदी को घेर कर गिरा भी दिया तो फिर विपक्ष को ये सुनिश्चित करना होगा कि मोदी के बाद के भारत में उद्योगपतियों को कोई उद्योग ना मिले। उद्योगपतियों के साथ इस प्रकार का सौतेला व्यवहार कैसे परिणाम उत्पन्न करता है, यह जानने के लिए ममता बनर्जी के बंगाल को देखना चाहिए। ममता नाच रही हैं, गा रहीं हैं और बाकी सब कुछ भी कर रही हैं लेकिन नंदीग्राम और सिंगुर की घटना के बाद कोई बड़ा उद्योगपति बंगाल गया हो ऐसा जान नहीं पड़ता। कहने का मतलब यह कि अगर मोदी अडानी के साथ डूबेंगे तो मोदी के साथ विपक्ष और भारत का भविष्य भी डूबेगा। भारतीय शायद ही डूबने को तैयार हों इसलिए जिस आधार पर सोरोस साहब की टिप्पणी कड़ी है वो आधार ही प्रश्नचिन्ह के दायरे में है। शायद इसीलिए विपक्ष की कई पार्टियाँ इस मुद्दे पर उतनी मुखर नहीं हैं जितने जॉर्ज सोरोस के प्रिय श्री राहुल गाँधी हैं।
राहुल गाँधी से याद आया कि वैकल्पिक नेतृत्व को लेकर जॉर्ज सोरोस क्या इसलिए तो नहीं चुप हैं क्योकि मोदी के खात्मे के बाद के भारत में जिस वैकल्पिक नेतृत्व की बात हो सकती है, उसको लेकर खुद जॉर्ज सोरोस में आत्मविश्वास की कमी है। राहुल गाँधी जैसे नेता में उनका विश्वास नहीं है, यह जॉर्ज सोरोस जैसों के संकट को रेखांकित करता है और इस बात के लिए भी आश्वस्त करता है कि जिस वैकल्पिक नेतृत्व के प्रति जॉर्ज सोरोस जैसे विदेशी को विश्वास नहीं है, उस पर देश की जनता को कैसे विश्वास होगा। यही विकल्प की कमी वो बात है जो जॉर्ज सोरोस जैसों को मोदी और भारत पर टिप्पणी करते समय आगामी समय में देखनी होगी।
उम्मीद है कि जॉर्ज सोरोस के बाद भारतीय लोकतंत्र के भविष्य को लेकर टिप्पणी करने वाले लोग अपनी टिप्पणियों में विकल्प को स्पष्ट रूप से रेखांकित करेंगे ताकि उनकी टिप्पणियों को भारतीय ज्यादा गंभीरता से ले सकें।
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