जॉर्ज सोरोस (George Soros) का नाम भारतीय मीडिया और विश्व के अख़बारों में चर्चा में है। ऐसे समय में, जब भारत में 2024 के आम चुनावों में अब कुछ ही समय बाक़ी है। आप लोग देख रहे होंगे कि देश में विपक्षी नेता कभी बीबीसी की प्रॉपगेंडा डाक्यूमेंट्री के बहाने, कभी रामचरितमानस जला कर तो कभी गौतम अड़ानी के नाम से विदेशों से एजेंडा चला कर आम आदमी को यह यक़ीन दिलाने की कोशिश कर रहे हैं कि उनके साथ साल 2014 से बहुत कुछ ग़लत हो रहा है। जिसका जैसे वश चल रहा है वो उस तरह से मोदी सरकार को हटाने के खट-करम में लगा हुआ है।
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रिज़िम चेंज ऑपरेशन
विपक्षी नेता ही नहीं बल्कि पत्रकार भी इस मुहिम में शामिल हो रखे हैं और जो अब तक निष्पक्षता का बिल्ला अपने सीने से लटकाए घूमते थे उन्होंने भी अब खुलकर मोदी विरोधी कैम्पेन शुरू कर दिये हैं। विपक्ष में सत्ता से दूर रहने की छटपटाहट इतनी भयानक है कि हर दिशा से सत्ता को बदलने के प्रयत्न किए जा रहे हैं। कुछ सूत्र तो ये भी कह रहे हैं कि कांग्रेस के लिए सत्ता से दस साल से अधिक समय तक दूर रहना मुश्किल ही नहीं बल्कि नामुमकिन भी है और अब वो शरीर के हर हिस्से का ज़ोर लगा कर 2024 में किसी भी तरह से वापस आना चाहती है। ऐसे प्रयासों को ही अंग्रेज़ी में कहा जाता है रेजिम चेंज ऑपरेशन, यानी साजिशों के सहारे सत्ता परिवर्तन का प्रयत्न।
जॉर्ज सोरोस (George Soros) पर आने से पहले आप ये कहानी सुनिए ताकि आपको जॉर्ज सोरोस और उसका हिसाब किताब समझने में आसानी रहे – मुग़ल काल में भी रिज़िम चेंज ऑपरेशन होते थे।
अकबर और बैरम ख़ान का ही उदाहरण ले लीजिए। 1556 में हुमायूं की मौत के बाद मुगल साम्राज्य के ही कई लोग हुमायूँ के घनिष्ठ मित्र बैरम ख़ान के खिलाफ साजिश रचने लगे थे। सबकी नजर मुगल साम्राज्य पर थी। अकबर बहुत छोटा था। ऐसे में बैरम ख़ान ने 14 फ़रवरी के दिन 13 साल के अकबर को राजा बनाया और ख़ुद प्रशासन की सारी ज़िम्मेदारियाँ सँभाली। अकबर को जब भी बैरम ख़ान की ज़रूरत पड़ती, वो उसे बुला लेता था। लेकिन जब बैरम ख़ान का बोलबाला बहुत बढ़ने लगा तब 1560 में अकबर ने बैरम ख़ान को सत्ता से बर्ख़ास्त कर दिया और उसे हज पर भेज दिया जहां बैरम ख़ान की हत्या कर दी गई। अब आप सोच रहे होंगे कि कहीं जॉर्ज सोरोस वही बैरम ख़ान तो नहीं है? अगर सोरोस बैरम ख़ान नहीं है तो फिर उसे किसने याद किया है?
जॉर्ज सोरोस की समस्या क्या है?
भारत की राजनीति में आजकल जमकर हलचल मची हुई है। आपको याद होगा कि एक अमेरिकी संस्था ने भारतीय बिज़नेसमैन गौतम अड़ानी पर आरोप लगाए जिससे अड़ानी समूह की कंपनियों के शेयर के दाम गिरे और उसके परिणामस्वरूप उनकी संपत्ति भी घटने लगी है।
जैसे ही यह मामला ठंडा होता, एक अमेरिकी अरबपति भी इस मामले में कूद गया। इसका नाम है जॉर्ज सोरोस। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ख़िलाफ़ अक्सर ज़हर उगलने वाले इस जॉर्ज सोरोस का नाम हमें क्यों याद होना चाहिये? इसकी कई सारी वजह हैं।
अमेरिकी अरबपति जॉर्ज सोरोस की उम्र 92 साल है, यानी एक पैर तो इसका कब्र में है, फिर भी इसे इस बात से फ़र्क़ क्यों पड़ता है कि भारत का एक उद्योगपति क्या कर रहा है और भारत का अगला प्रधानमंत्री कौन होगा?
मैश्लो की नीड हायरार्की में सबसे ऊपर आता है सेल्फ एक्चुअलाइजेशन, यानी कुछ ऐसा करने की तड़प जो हमेशा के लिए एक मिसाल बन जाए और लोग उसका नाम भूलें नहीं। जॉर्ज सोरोस को भी लोग इसी वजह से जानते हैं। ये वो आदमी है जिसने अमेरिका में जॉर्ज बुश को हराने के लिए 125 करोड़ रुपए खर्च किए। एक नामी न्यूज़ चैनल फॉक्स न्यूज़ को सबक़ सिखाने लिए 1 मिलियन डॉलर खर्च किए। यूरोप में ब्रेक्जिट के खिलाफ अभियान में 4 लाख पाउंड खर्च कर दिए और पिछले अमेरिकी चुनाव में डॉनल्ड ट्रम्प के ख़िलाफ़ अपना पूरा ज़ोर लगा दिया था और अब इसकी नज़र भारत में होने वाले 2024 के आम चुनावों पर है। जिसका जन्म ही दूसरे विश्व युद्ध के बीच हुआ था, आख़िर वो शांति से कैसे मर सकता है? सोरोस जैसे लोग अपनी इस तड़प को देश-विदेश में हलचल बनाए रखकर पूरा करते हैं।
सिविल सोसायटी के ज़रिए राजनीति
इसके लिए वो कभी सिविल सोसायटी का मुखौटा पहनते हैं, यानी कई सारे NGO जो हमारे आस पास रहते हैं। आप NGO से योगेन्द्र यादव जैसे लोगों का स्मरण कर सकते हैं, जो समय समय पर इच्छाधारी आंदोलनजीवी बनते देखे जाते हैं। या फिर एमनेस्टी इंडिया के आकार पटेल को, जो मानवाधिकार के नाम पर अक्सर विवादों में रहते हैं। इन NGO के द्वारा समाज में हलचल कैसे स्थापित की जाती है, सोरोस जैसे लोग इसमें माहिर हैं। आप सोचिए कि जब यूनाइटेड किंगडम और जर्मनी की अर्थव्यवस्था बिखरी, जब बैंक ऑफ इंग्लैंड तबाह हो गया तब इस तबाही से इसी जॉर्ज सोरोस ने 1 अरब डॉलर से ज्यादा पैसे कमाए थे।
दुनिया के सबसे धनी व्यक्तियों में से एक जॉर्ज सोरोस ने अपने एक ताज़ा बयान में अड़ानी के बहाने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर हमला बोला है। उसने कहा कि भारत में जल्द ही एक लोकतांत्रिक बदलाव होना चाहिये। कमाल की बात है कि एक पूँजीपति भारतीय लोकतंत्र को खुले में गाली देता है और देश का कथित प्रगतिशील वर्ग उसे अपना माई-बाप घोषित कर देता है। ये वो लोग हैं जो हर दिन पूँजीपतियों के ख़िलाफ़ माहौल बनाते देखे जाते हैं और ख़ुद को संविधान और लोकतंत्र का वकील भी बताते हैं।
ये वही जॉर्ज सोरोस है जिसने कुछ साल पहले बयान दिया था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारत तानाशाही व्यवस्था की ओर बढ़ रहा है और वो इसे एक हिंदू राष्ट्र बना देंगे। जार्ज सोरोस ने जम्मू-कश्मीर से आर्टिकल 370 हटाने और नागरिकता संसोधन कानून CAA का भी खुलकर विरोध किया था।
विदेश मंत्री एस जयशंकर ने अपने एक बयान में जॉर्ज सोरोस को बूढ़ा, जिद्दी, अमीर और खतरनाक बताया है। उन्होंने कहा कि सोरोस का ये बयान अचानक नहीं आया है, यही असल में उन लोगों की राजनीति है, जो खुले तौर पर राजनीतिक क्षेत्र में आने की हिम्मत नहीं रखते, और इसके लिए NGO बनाए जाते हैं।
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एस जयशंकर ने अपने एक बयान में कहा है कि पता नहीं भारत में चुनावी मौसम शुरू हो गया है या नहीं, लेकिन लंदन और न्यूयॉर्क में जरूर शुरू हो गया है। वे यह कहकर टेफ्लॉन कवर चाहते हैं कि मैं एक एनजीओ, मीडिया संगठन आदि हूं, लेकिन वे असल में राजनीति कर रहे होते हैं।
आपने देखा भी होगा कि पिछले कुछ समय में भारत के कई मीडियाकर्मी कभी अमेरिका तो कभी लंदन के नालों में घुसे हुए हैं। मतलब भारत की हर समस्या को ये दिखा चुके हैं और इसके बाद अब ये विदेशों की ग्राउंड रिपोर्टिंग करने चले गए हैं।
आप देखिए कि शीत युद्ध ख़त्म होने के बाद जॉर्ज सोरोस ने चेकोस्लोवाकिया, पोलैंड, रूस और यूगोस्लाविया में ओपन सोसाइटी फ़ाउंडेशन की स्थापना की थी। इस शताब्दी की शुरुआत तक ये ओपन सोसाइटी फ़ाउंडेशन 70 से अधिक देशों में सक्रिय हो चुका था।
सोरोस इनके ज़रिये राजनीतिक सक्रियता में भी शामिल रहा। उसने बराक ओबामा, हिलेरी क्लिंटन और जो बाइडेन के राष्ट्रपति अभियान का समर्थन किया। जबकि यही सोरोस, चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग, पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रम्प और तुर्की के राष्ट्रपति रेसेप तैयप एर्दोगन के खिलाफ बोलता रहा है। हंगरी, टर्की, सर्बिया और म्यांमार में होने वाले सरकार विरोधी लोकतांत्रिक आंदोलनों का सोरोस ने खुलकर समर्थन किया। इन आंदोलनों के सपोर्ट के लिए सोरोस ने फंडिंग भी की।
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इस जॉर्ज सोरोस का अपना कोई नहीं है। ये तो अमेरिका तक का आलोचक रहा है। अमेरिका में हुए 9/11 के हमले के बाद अमेरिका ने जब आतंकवाद के खिलाफ जंग की शुरुआत की तो सोरोस ने आतंकवादियों के मानवाधिकारों का हवाला देते हुए कहा था कि जब आप जंग छेड़ते हैं तो आप निर्दोषों को शिकार बनाते हैं। तो भारत में जब अफ़ज़ल गुरु और बुरहान वाणी पे कोई निष्पक्ष पत्रकार आंसू बहा रहा होता है तो तुरंत जान जाइए कि वो किसकी मानस संतान है और वो किसके जैसा होने कि नक़ल कर रहे होते हैं।
सोरोस की संस्था ने 1999 में पहली बार भारत में एंट्री की थी। पहले ये भारत में रिसर्च करने वाले स्टूडेंट को स्कॉलरशिप देती थी और 2014 में उसकी ओपन सोसाइटी ने कथित तौर पर भारत में दवा, न्याय व्यवस्था को बेहतर बनाने और विकलांग लोगों को मदद करने वाली संस्थाओं को आर्थिक सहायता देना शुरू किया। लेकिन 2016 में भारत सरकार ने देश में इस संस्था के जरिए होने वाली फंडिंग पर रोक लगा दी और इसे वॉचलिस्ट में डाल दिया।
अब आप सोचेंगे कि ये तो इतना भला आदमी था तो इस पर आख़िर बैन क्यों लगाया गया? तो इसी सोरोस के संगठनों को देश की सुरक्षा के लिए खतरा पैदा करने वाला बताते हुए रूस ने भी प्रतिबंधित कर दिया था। इसी सोरोस ने रुस को पूरे यूरोप के लिए भी ख़तरा बताया था और आज आप देख रहे हैं कि किस तरह से यूरोप ही नहीं बल्कि लगभग पूरा विश्व रुस के ख़िलाफ़ हो रखा है।
ओपन सोसाइटी फाउंडेशन: NGO का ईकोसिस्टम
सोरोस के ही कथित इकोनॉमिक थिंक टैंक ‘आई-नेट’ ने साल 2015 में प्लान बनाया कि इसके द्वारा भारत में विश्वभर के महान अर्थशास्त्रियों को जोड़ा जाएगा और वो सब भारत में विकास के मुद्दों पर वर्कशॉप और सेमिनार आयोजित करेंगे। ऐसा हुआ भी। ये i-NET 2012 से बेंगलुरू में अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के साथ काम कर रहा था। यानी एक और सिविल सोसायटी। ये वही अज़ीम प्रेमजी हैं जिनका नाम आपने समाज कल्याण के लिए फंड जिसे CSR कहते हैं, वो लुटाने के लिए अक्सर सुना होगा।
इन अज़ीम प्रेम जी की विप्रो से जुड़ी आजकल एक खबर भी चल रही है, जिसमें विप्रो ने क़रीब 6 लाख सालाना की नौकरी का ऑफर दे कर लड़कों को हायर किया और बाद में कहा कि साढ़े तीन लाख रुपए सालाना पर काम करना है तो करो वरना गेट आउट।
अब देखिए कि ये सब लोग किस तरह एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। सोरोस के ही NGO ‘ओपन सोसाइटी फाउंडेशन’ के उपाध्यक्ष सलिल शेट्टी ने भी कांग्रेस की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ में भाग लिया था। ये NGO के द्वारा अपने लोगों को स्थापित करना, ईकोसिस्टम तैयार कर देश और समाज को चारों ओर से घेर लेने का खेल जॉर्ज सोरोस जैसों के लिए बहुत सामान्य बात है लेकिन आम लोगों को बस इतना समझना चाहिये कि जॉर्ज सोरोस जैसे लोग आपके या मेरे पास आ कर हमारी जेब में सौ-पाँच सौ रुपए का नोट नहीं डाल देंगे कि ‘अब तू फ़लाना पार्टी को वोट देना’। इसके बजाय ये लोग एकदम कैलकुलेटेड तरीक़े से आपको ये यक़ीन दिलाने लगते हैं कि आप जो देख और सोच रहे हैं वो ग़लत है।
आप सोचिए कि पिछले कुछ वर्षों में भारत में डिजिटल मंचों पर फैक्ट चेक के नाम पर मज़हबी हिंसा को बढ़ावा देने वाले ऑल्ट न्यूज़ जैसे संस्थान किसने तैयार किए? वही मोहम्मद ज़ुबैर जिसके एक एडिट किए गये वीडियो क्लिप के बाद देशभर में 6 लोगों को अपनी जान गँवानी पड़ गई, शहरों में दंगे हुए, और उसे इसका मलाल भी नहीं है।
इन्हें प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से फंड करने वालों में जॉर्ज सोरोस का ही नाम आपको मिलेगा। ट्विटर यूजर ‘द हॉक आई’ ने ऑल्ट न्यूज के सह-संस्थापक मोहम्मद जुबैर को लेकर कहा है, “हर्ष मंदर और ऑल्ट न्यूज को नोबल के लिए नामांकित बताने वाले PRIO को जॉर्ज सोरोस की ही ओपन सोसायटी फाउंडेशन और RAND द्वारा फंडिंग की जाती है। साल 2018 में ऑल्ट न्यूज को निष्पक्ष बताते हुए मान्यता देने वाले IFCN को ओपन सोसायटी फाउंडेशन तथा ओमिड्यार द्वारा फ़ंडिंग की जाती है। ये ओमिड्यार भी गृह मंत्रालय की वॉच लिस्ट में शामिल है।”
यानी ये लोग एक इकोसिस्टम को फंडिंग करते हैं ना कि किसी व्यक्ति को, और फिर वो इकोसिस्टम इनके लिये काम करता है। यानी कई सारे यूजफुल इडिअट्स मिलकर किसी एक आदमी के शौक़ को पूरा करने में लगे रहते हैं। इन्हें ख़ुद भी ये पता नहीं चलता है कि आख़िर ये ऐसा कर के किसके उद्देश्यों को संतुष्ट कर रहे होते हैं।
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राहुल गांधी की कैम्ब्रिज यात्रा और जॉर्ज सोरोस से संबंध
इस सबके बीच एक महत्वपूर्ण खबर ये है कि राहुल गांधी कुछ दिन में कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में लेक्चर देने जा रहे हैं। यूनाइटेड किंगडम में कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के ‘जज बिजनेस स्कूल’ को संबोधित करने वाले राहुल गांधी के साथ श्रुति कपिला भी होंगी और वो डेमोक्रेसी पर बात करेंगे। ये श्रुति कपिला कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में इतिहास की एसोसिएट प्रोफेसर है। ये श्रुति कपिला कई बार ऐसे ट्वीट कर चुकी हैं जिनमें इनकी भारत विरोधी मानसिकता और हिंदुओं से घृणा साफ़ झलकती है।
मज़ेदार बात ये है कि जॉर्ज सोरोस की यही ओपन सोसायटी फाउंडेशन इस कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी की एक मेंबर भी है और उसे भी फंड देती है। जॉर्ज सोरोस की ओपन सोसाइटी फ़ाउंडेशन 2013 से यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैंब्रिज के गिल्ड ऑफ़ बेनिफैक्टर्स की सदस्य है।
तो अब आपको शायद थोड़ा बहुत अंदाज़ा लगने लगा होगा कि आख़िर ये गोलमाल क्या है। ये तो किसी एक नये नये सुकरात को राजा बनाने के लिए फैलाए जा रहे मायाजाल हैं। जाते जाते एक कहानी सुनते जाइए। ग्रीक योद्धा सिकंदर फतह के बाद मकदूनिया के एक शहर गया। उधर एक सज्जन दुनियादारी को भूलकर मस्त सो रहे थे। सिकंदर ने उसे लात मारकर जगाते हुए कहा – “अबे तू अपनी मस्ती में सो रहा है और इधर मैंने सारी दुनिया फतेह कर ली है।”
वो आदमी उठ बैठा.. उस आदमी ने सिकंदर की ओर देखा और बोला- “शहर फतेह करना बादशाह का काम है, जबकि लात मारना गधे का काम। क्या कोई इंसान अब इस दुनिया में नहीं बचा था जो बादशाहत एक गधे को मिल गई है?”
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