लोकसभा चुनाव के राजनीतिक दिनों की शुरुआत हो चुकी है। संभावित प्रधानमंत्रियों की लिस्ट बनने लगी है। राहुल गाँधी, नीतीश कुमार, ममता बनर्जी इत्यादि के नाम आगे किए जा रहे हैं। दिन जैसे जैसे बढ़ेंगे विचारों, दावों और अनुमानों की लहर बढ़ती जाएगी।
लोग अपने लिए स्पेस निकालते और बढ़ाते मिलेंगे। विपक्षी दलों के नेता स्वयं को प्रधानमंत्री के पद के लिए आगे करेंगे। जो खुद को आगे नहीं कर सकेंगे उन्हें कोई बुद्धिजीवी आगे कर देगा। नेताओं को प्रासंगिक दिखाने के लिए इनके समर्थक भी सक्रिय रहेंगे। कुल मिलाकर लोकतंत्र के मजबूत होने का आभास मिलेगा।
हाल ही में नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री श्री अमर्त्य सेन ने दावा किया है कि ममता बनर्जी में अगला प्रधानमंत्री बनने के सारे गुण हैं। सेन शायद राहुल गाँधी के सॉफ्ट हिंदू बनने की दिशा में बढ़ने से दुखी होकर ममता बनर्जी को आगे बढ़ा रहे हैं। वैसे अधिक कट्टर समर्थक ना दिखे जाने के प्रयास में वे यह प्रश्न करते हुए भी दिखे कि क्या पश्चिम बंगाल की सीएम में बीजेपी के प्रति जनता की निराशा की ताकतों को खींचने की क्षमता है?
यह भी पढ़ें: जितने दल, उतने ‘प्रधानमंत्री’: विपक्ष के गठबंधन का क्या है भविष्य
यहाँ पर ममता बनर्जी को पीएम की रेस में फिर से शामिल करने से अधिक महत्वपूर्ण है, अमर्त्य सेन की टिप्पणी।
पिछले कुछ वर्षों में भारतीय राजनीति में राजनीतिज्ञों से अधिक अर्थशास्त्री सक्रिय होते दिखे हैं। सेन के अलावा यूपीए काल में भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन भी अक्सर मोदी सरकार के विरोध में ही देखे गए।
इस विरोध का कारण शायद मोदी सरकार का राजन से आर्थिक नीतियों पर सलाह ना लेना हो सकता है। या फिर इसलिए भी कि राजन हमेशा से कॉन्ग्रेस के समर्थक रहे हैं। भारतीय अर्थव्यवस्था पर अपने हवाई भविष्यवाणियों के गलत होने के बाद भी राजन पर कोई ख़ास असर नहीं पड़ा है। भले ही जनता के बीच उनकी अपनी विश्वसनीयता को धक्का लगा हो। वैसे भारत जोड़ो यात्रा में शामिल होकर उन्होंने अपने प्रति जनता के मन में किसी भी संभावित भ्रम को दूर कर दिया है।
ऐसे ही अमर्त्य सेन भी अपनी भूमिका को लेकर आशावादी हैं। सेन की टिप्पणी पर इसलिए भी आश्चर्य नहीं कर सकते क्योंकि वे कई वर्षों से उम्मीद से हैं और इतना समय और अपनी विश्वसनीयता इन्वेस्ट करने के बाद हाथ खींच लेना सबसे बस की बात नहीं होती।
वर्ष 2019 में जहाँ उन्होंने कहा था कि ‘BJP को हराना होगा’ वहीं कोविड-19 के समय उनका मानना था कि केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने ‘भ्रम में रहते हुए’ कोविड-19 को फैलने से रोकने के लिए काम करने के बजाय अपने कामों का श्रेय लेने पर ध्यान केंद्रित किया जिससे ‘स्किजोफ्रेनिया’ की स्थिति बन गई और काफी दिक्कतें पैदा हुई।
अमर्त्य सेन की राजनीतिक महत्वकांक्षाएँ हो सकती हैं या नहीं भी हो सकती हैं। राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं वाले बुद्धिजीवी के सामने भी यह चैलेंज रहता है कि वह अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा को अपने बुद्धिजीवीपने से ढांक कर रखे। लोकतंत्र में राजनीति और राजनीतिज्ञ तो बनते-बिगड़ते रहते हैं परन्तु बुद्धिजीवी केवल बनता रहे, यह आवश्यक है।
यह भी पढ़ें: सिनेमाई मंचों से राजनीतिक ज़मीन जोतते फिल्मी कलाकार
यही कारण है कि सब कुछ कहने के बाद वे अपने वक्तव्य का समापन एक भ्रम पैदा करने वाले सवाल से करते हैं। आखिर सेन यह जिन ममता बनर्जी के सहारे नरेंद्र मोदी को हराने के अपने जिस सपने को सजा रहे हैं, वे ममता बनर्जी स्वयं देश के लोकतंत्र में अपनी जगह बनाने के लिए संघर्ष कर रही हैं।
30 साल का राजनीतिक जीवन पूरा कर चुकीं ममता बनर्जी को ऐसी मुश्किलें नहीं आनी चाहिए थी लेकिन हिंसा के दौर से राजनीतिक शुरुआत करने वाली ममता ने हिंसक राजनीति को ही असल राजनीति समझा। शायद यही कारण है कि ममता बनर्जी के फैसलों में हिंसक प्रवृत्ति झलकती है।
अक्सर सरकार के कार्यक्रमों में नाराज़ हो कर चले जाना, प्रोटोकॉल का पालन ना करना या फिर राज्यपाल से विरोध के चलते केंद्र-राज्य संबंधों को प्रभावित करना, चुनावी हिंसा हो या केंद्रीय एजेंसियों के प्रति गुस्सा, अपने आचरण से ममता बनर्जी हमेशा संवैधानिक मूल्यों को कमतर ही बताती आई हैं।
इसके उलट पिछले दशक में देश में लोकतांत्रिक प्रक्रिया तेज हुई है। राजनीति में पारदर्शिता बढ़ी है। ऐसे में ममता बनर्जी के लिए इस नए सेटअप में राष्ट्रीय स्तर पर खुद की भूमिका तलाशना रत्ती भर आसान नहीं है। आसान तो उन लोगों के लिए भी नहीं रहेगा जो अर्थशास्त्र के जरिए भारत की राजनीति को प्रभावित करने का प्रयास कर रहे हैं क्योंकि अब नए भारत में लोग सिर्फ उन्हीं को सुनना चाहते हैं जो असल भारत को समझते हैं।
यह भी पढ़ें: 2022 में भाजपा के वो निर्णय, जो पार्टी के लिए 2024 के रण में मददगार साबित होंगे