कुछ वर्ष पूर्व हॉलीवुड में एक सिनेमाई प्रयोग किया गया था। फ़िल्म का नाम था ‘व्हाट इफ़’। इसे फ़िल्म के माध्यम से इतिहास की किसी ऐसी घटना को फ़िल्माया जाता है, जो कभी घटी ही नहीं। या यदि ऐसी परिस्थतियाँ होतीं तो समाज पर इसका क्या प्रभाव पड़ता? राजकुमार संतोषी की डायरेक्टोरियल कमबैक फ़िल्म ‘गांधी गोडसेः एक युद्ध’ (Gandhi Godse – Ek Yudh) भी कुछ इसी से दर्शकों के सामने रखी गई है।
‘गाँधी-गोडसे’ द्वैत की ये बहस असगर वजाहत के नाटक ‘गोडसे@गांधी.काम’ पर आधारित है। इस कभी ना समाप्त होने वाली वैचारिक बहस को राजकुमार ने नए अन्दाज़ में फ़िल्माने का प्रयास किया है। ‘गांधी गोडसेः एक युद्ध’ फ़िल्म के ज़रिए इसे बनाने वालों ने गोडसे और गाँधी को एक मंच पर लाया है तथा इन दोनों के नाम से समाज में पलने वाली बहस को एक समाधान देने की कोशिश की है।
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काल्पनिक घटनाओं के ज़रिए ‘गाँधी-गोडसे’ द्वैत की बहस
‘गांधी गोडसेः एक युद्ध’ फ़िल्म की कहानी शुरू होती है साल 1947 से, जब देश में बँटवारे के चलते भारी उठा-पटक मची हुई थी। गाँधी पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपए दिए जाने के समर्थन में आमरण अनशन पर बैठ जाते हैं। इस सबके बीच दिखाया जाता है कि देश के एक दूसरे हिस्से में गोडसे गाँधी के फ़ैसले से बहुत नाराज़ और आक्रोशित भी हैं।
यह पीरियड ड्रामा उस सुबह को भी दिखाता है जब नाथूराम गोडसे ने मोहनदास करमचंद गाँधी को गोली मार दी। यहाँ से फ़िल्म इतिहास की घटनाओं को किनारे कर एक काल्पनिक कथा के सहारे आगे बढ़ती है। गाँधी बच जाते हैं और गोडसे को यह खबर जेल में मिलती है।
इसके बाद फ़िल्म में यह भी दिखाने का प्रयास किया गया है कि किस तरह से गाँधी के फ़ैसलों से दिल्ली में बैठे प्रधानमंत्री नेहरू और गृहमंत्री सरदार पटेल भी अक्सर असहज हो जाते हैं। गाँधी ‘ज़िंदा’ होने के बाद ‘ग्राम स्वराज’ की स्थापना के लिए गाँव-गाँव जाते हैं और नेहरू-पटेल के साथ-साथ पूरी कांग्रेस से भी यह अपील करते हैं कि कांग्रेस को भंग कर गाँव जा कर इस देश को समझाना तथा उसके लिए काम किया जाना चाहिए।
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‘सोशलिस्ट-कम्युनिस्ट’ गाँधी
कहानी आगे बढ़ती है और इस बीच ‘सामाजिक आडंबरों’, अत्याचारों के ख़िलाफ़ गाँधी की अदालत जैसे वाक़ए दिखाए जाते हैं। इन अत्याचारों में एक ब्राह्मण पटवारी, जिसकी जाति पांडेय बताई जाती है, को भी दिखाया गया है कि कैसे गांधी उसे ‘ठीक’ कर देते हैं। फ़िल्म में दिखाया गया है कि ‘पांडेय’ जाति वाला यह पटवारी व्यभिचारी है और गाँव में दलितों की बेटियों का बलात्कार करता है। गाँधी उसे माफ़ तो कर देते हैं लेकिन उसे दलित के घर रोटी खाने की ‘सजा’ देते हैं।
इसी तरह की घटनाओं के बाद किसी तरह गाँधी अपनी इच्छा से उसी जेल में ख़ुद को बंद करवा देते हैं जहाँ गोडसे को बंद किया गया है।
फ़िल्म में गाँधी के किरदार में दीपक अंतानी हैं, जो काफ़ी हद तक गाँधी जैसे दिखने भी लगते हैं। वहीं, फ़िल्म में चिन्मय मंडलेकर ने गोडसे का रोल निभाया है। नाथूराम गोडसे के चरित्र में चिन्मय मंडलेकर का अभिनय बेहतर नज़र आता है। भले ही नाथूराम गोडसे असल में बेहद शर्मीले स्वभाव के व्यक्ति थे, लेकिन यह फ़िल्म उन्हें हर वक्त आक्रोशित दिखाने का प्रयास करती है। इस कारण गोडसे के चरित्र में कई दफ़ा चिन्मय स्वाभाविक नहीं लगते।
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जबरन ठूँसी गई प्रेम कहानी
फ़िल्म में एक और पात्र है – सुषमा। सुषमा का किरदार इस फ़िल्म की एक और सबसे कमजोर कड़ी कहा जा सकता है। सुषमा यदि इस फ़िल्म का हिस्सा ना भी होती तब भी यह फ़िल्म अपने लायक़ आलोचना कमा ही लेती। सुषमा का किरदार इसके दृश्यों को अधिक उबाऊ और कई बार तो हास्यास्पद भी बना देता है।
उदाहरण के तौर पर गांधी-गोडसे की विचारधारा के विमर्श के बीच सुषमा और नरेन की प्रेम कहानी का आ जाना फ़िल्म के एजेंडा से मेल नहीं खाता। विशेषतौर पर पीरियड ड्रामा में आप ऐसी किसी कल्पना की उम्मीद नहीं करते कि अचानक से स्क्रीन पर प्रेम संबंधों पर बहस होने लगे; वो भी तब, जब कि मुख्य मुद्दा ‘गांधी-गोडसे’ की बहस का हो।
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फ़िल्म के आख़िरी हिस्से में गांधी को भी कटघरे में दिखाया गया है जब एक दृश्य में बा (कस्तूरबा गांधी) उनसे कहती हैं कि उन्होंने निजी तौर पर उनके साथ गलत किया था। जयप्रकाश नारायण और प्रभा देवी के वैवाहिक जीवन को बर्बाद करने का उन पर आरोप लगता है। साथ ही, वह अपने बेटे के जीवन को नर्क बना देने की बात भी कहती हैं।
फ़िल्म में अन्य पात्रों के चयन की भरपाई उनकी वेशभूषा काफ़ी हद तक करती है। जैसे, जवाहर लाल नेहरू, सरदार वल्लभ भाई पटेल, मौलाना आजाद जैसे नेताओं को उनके परिधानों से आप पहचान सकते हैं। कुछ ऐसे चेहरे हैं जिनका नाम नाहीं लिया गया है और इतिहास से बहुत संबंध ना रखने वाले लोगों के लिए फ़िल्म में वे अनाम ही रहेंगे।
एक और कमजोर कड़ी इस फ़िल्म में यह है कि बाबा अंबेडकर के चरित्र को थोपा गया है जबकि सरदार पटेल को मसखरे की तरह दिखाया गया है।
बुद्ध और ‘काल्पनिक भारत’ की बहस का एजेंडा
इस फ़िल्म में कई जगह पर ऐसे संवाद एवं दृश्य रखे गये हैं जिन्हें आप ना चाहते हुए भी स्पष्ट रूप से प्रॉपगेंडा घोषित कर सकते हैं। एक दृश्य में गांधी और गोडसे ‘अखंड भारत’ पर बात कर रहे हैं और गांधी गोडसे को समझाते हैं कि देश या सीमाएँ कुछ नहीं होतीं, देश लोगों से होता है। इसी ज्ञान के बीच गांधी कहते हैं कि भारत में बौद्ध धर्म से पूर्व सभी लोग आपस में लड़-मर रहे थे और बुद्ध एवं जैन धर्म ही शांति क़ायम करने में सफल रहे।
फ़िल्म का अंत बेहद हास्यास्पद तरीक़े से जेल में गाए जाने वाले गीत के साथ होता है। इस गीत में महात्मा गांधी को बुद्ध की प्रतिमा की बराबरी पर दिखाया गया है। सुषमा गीत गा रही हैं “वैष्णव जन तो तेने कहिए…”
कुल मिलाकर सिनेमा की दृष्टि से यह फ़िल्म औसत भी नहीं कही जा सकती। जिन्हें गांधी एवं गोडसे के विमर्श को जानने में रुचि है वे उन तमाम पुस्तकों को पढ़कर उस रुचि को शांत कर सकते हैं जिनमें नाथूराम विनायक गोडसे के जेल और फिर कोर्ट में उनकी सुनवाई के दौरान दिए गए बयान शामिल हैं। रही बात ‘गांधीवाद’ की तो उसे पढ़ने और जानने के लिए एक ऐसी फ़िल्म नाकाफ़ी ही कही जाएगी।
जिस प्रकार से और जिस हड़बड़ी में यह फ़िल्म दर्शकों के समक्ष परोसी गई है उस हिसाब से यह कई क़िस्म के संदेह की संभावनाओं को अवश्य हवा देती है। यह फ़िल्म और इसकी बहस एक ख़्वाब ए शहर है जो कहीं पहुँचता नहीं!