अमेरिका के एक नामचीन्ह विद्वान चार्ल्स किंड्लेबेर्जेर, जिन्होंने मार्शल प्लान की रूपरेखा तैयार करने में उपयोगी भूमिका निभाई, का मानना था कि दुनिया को १९३० के दशक में जिन चुनौतियों का सामना करना पड़ा उसकी मुख्य वजह अग्रगण्य वैश्विक शक्ति के रूप में ब्रिटेन की गिरती साख के बीच उभरती वैश्विक शक्ति के रूप में अमेरिका द्वारा विश्व को नेतृत्व प्रदान कर पाने में विफलता थी। इस प्रभाव को वैश्विक कूटनीति की दुनिया में किंड्लेबेर्जेर इफेक्ट के नाम से जाना जाता है।
१९३० की भांति ही आज वैश्विक व्यवस्था में उथल-पुथल है, जिसका मुख्य कारण चीन का वैश्विक शक्ति के रूप में उभार है जो सबसे बड़ी वैश्विक शक्ति के रूप में अमेरिका को चुनौती दे रहा है। यहाँ वैश्विक शक्ति को नापने का आयाम केवल आर्थिक या सैन्य शक्ति नहीं बल्कि वैचारिक शक्ति है और बर्लिन की दीवार गिरने के बाद पहली बार अमेरिका का उदारवादी लोकतान्त्रिक मॉडल फिसलन के दौर से गुजर रहा है। ऐसे में सवाल यह है कि क्या चीन का राज्य एकाधिकार का मॉडल, जिसको चीन लोकतान्त्रिक बता कर प्रस्तुत करता है वह अमेरिका के उदारवादी लोकतंत्र की जगह लेगा या कोई और वैचारिक मॉडल वैश्विक समस्याओं का बेहतर समाधान लेकर प्रस्तुत होगा? ऐसे में निगाह भारत की तरफ जाती है, जिसको वैश्विक व्यवस्था में उभरती हुयी वैचारिक ताकत के तौर पर देखा और सुना जा रहा है, और जिसके पास लोकतंत्र का सत्तर सालों से ज्यादा का अनुभव है।
इस वर्ष भारत को G-20 देशों के समूह की अध्यक्षता का अवसर मिला और एक आम सहमति से पारित हुए G-20 के प्रस्ताव ने दिखा दिया कि भारत भले ही प्रति व्यक्ति आय के मामले में G-20 में सबसे निचले पायदान पर हो लेकिन जब बात सहमति बनाने की आये तो ज्यादा ताकतवर देशों को पीछे छोड़ सकता है। G-20 और इसके जैसे ही अन्य सम्मेलनों में भारत के कूटनीतिक प्रयास न केवल विश्व में भारत के नेतृत्व की रूपरेखा तैयार कर रहे हैं बल्कि पश्चिमी लोकतान्त्रिक मॉडल को भारतीय सभ्यता के समावेशी और बहुसंस्कृतिवादी दृष्टिकोण से परिचित भी करा रहे हैं, जो आज के बिखरे हुए विश्व को एकत्र करने के लिए बहुत जरूरी तत्व है। इन्हीं सन्दर्भों में यह लेख भारत कैसा विश्व तैयार करना चाहता है और G-20 के आयोजन का भारतीय राजनीति पर क्या प्रभाव पड़ेगा इसकी पड़ताल करता है।
जी 20 से जी 21 की तरफ प्रयाण: क्रांति नहीं बल्कि लोकतान्त्रिक समावेशीकरण का सन्देश
भारत और चीन के बीच विकासशील देशों के नेतृत्व को लेकर प्रतिद्वंद्विता अब कोई ढकी छुपी बात नहीं रह गयी है और वैश्विक मंचों पर इस प्रतिद्वंदिता के संकेत मिलने लगे हैं। सीमा विवाद के बीच वैश्विक स्तर पर वैचारिक श्रेष्ठता को लेकर दोनों एशियाई देशों के मध्य रस्साकशी की ये शुरुआत मात्र है। दोनों ही देश ग्लोबल साउथ के नेतृत्व को लेकर अलग-अलग मौकों पर एक दूसरे से गुंथे दिखाई देते हैं और इस रस्साकशी के परिणाम में पहली बार अफ्रीका के देशों को G-20 और BRICS जैसे वैश्विक मंचों पर प्रतिनिधित्व करने का मौका मिल रहा है। ग्लोबल साउथ का नेता बनने की प्रतिद्वंद्विता के बीच अफ्रीका के बढ़ते महत्व को देखते हुए ये कहा जा सकता है कि आने वाले वर्षों में अफ्रीका दुनिया में भू-रणनीतिक मानचित्र में एक महत्वपूर्ण मंच के तौर पर उभरेगा।
इस सन्दर्भ में दिल्ली में हुई बैठक में अफ्रीकन यूनियन को G-20 देशों का स्थायी सदस्य बनवाना भारत की सबसे बड़ी सफलता है, जिसके दूरगामी असर आने वाले दशकों में दिखेंगे। अफ्रीकन यूनियन का G-20 का सदस्य बनना इस दृष्टि से भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि चीन अपने बेल्ट और रोड व्यवस्था के तहत इन देशों को ऋण के जाल में फंसा रहा है और G-20 की सदस्यता इन देशों को निवेश के वैकल्पिक माध्यम उपलब्ध करा कर इन देशों को चीन के ऋण जाल से मुक्त करेगी।
स्वेज़ नहर क्षेत्र को रणनीतिक प्राथमिकता
अपने निर्माण के समय से ही स्वेज़ नहर वैश्विक व्यापार की एक महत्वपूर्ण जीवनरेखा बनी रही है और स्वेज़ नहर का यही महत्व इस माध्यम द्वारा व्यापार करने वाले देशों की कमजोरी को रेखांकित करता है। चीन द्वारा जिबौती में सैनिक अड्डा स्थापित करना और अफ्रीकन देशों में निवेश बढ़ाना इस नहर पर अधिपत्य ज़माने की चीन की दीर्घकालिक नीति का हिस्सा है। चीन की यह गतिविधि इस क्षेत्र में भारत, अफ्रीका और मध्य-पूर्व के देशों के रणनीतिक हितों के लिए खतरनाक है। अभी समाप्त हुए G-20 सम्मलेन में यूरोप, अरब और भारत को रेल-सड़क और समुद्र के माध्यम से जोड़ने के लिए हुआ समझौता एक तरफ तो भारत को एक वैकल्पिक मार्ग मुहैया कराएगा, वहीं दूसरी तरफ इस समझौते के द्वारा इस क्षेत्र के देशों के साथ भारत के सम्बन्ध और घनिष्ठ होंगे जो भारत को इस क्षेत्र की राजनीति में अधिक नियंत्रण प्रदान करेंगे। इस सम्बन्ध में यह याद रखना चाहिए कि भारत ने मिश्र को भी अपनी अध्यक्षता में G-20 बैठक में निमंत्रित किया। यह भारत की स्वेज़ नहर क्षेत्र को लेकर रणनीतिक सोच को रेखांकित करता है।
राष्ट्रीय राजनीति पर G-20 का प्रभाव
G-20 जैसे आयोजनों का केवल अंतरराष्ट्रीय कूटनीति के लिए ही नहीं बल्कि राष्ट्रीय राजनीति के लिए महत्वपूर्ण निहितार्थ है। विपक्षी कांग्रेस के सर्वोच्च नेता पूरे सम्मलेन के दौरान यूरोप की यात्रा पर रहे और उन्होंने बिना आश्चर्यचकित किये हुए यूरोप के इस्लामिक-वामपंथी गठजोड़ के नेताओं को भारत में लोकतंत्र पर खतरे से अवगत कराने का प्रयास किया। राहुल गाँधी ने पिछले कुछ वर्षों में जिस तरह के संकेत दिए हैं उससे पता चलता है कि उनकी पार्टी अब पूर्ण रूप से वैश्विक इस्लामिक-वामपंथी गठजोड़ का हिस्सा है। इस सन्दर्भ में भारत में विद्वानों को यूरोप के लोकतान्त्रिक देशों में वामपंथी दलों पर चीन के प्रभाव को देखने की आवश्यकता है, क्योकि भले ही वामपंथी विचारधारा वाले दल जन सरोकारों की बात करें लेकिन अतीत में सत्ता में रहने पर इनमें से अधिकांश दल अपनी जनता के हितों का संरक्षण कर पाने में पूर्ण रूप से असफल रहे हैं। यही कारण है कि यूरोप में अधिकांश वामपंथी दल या तो विपक्ष में हैं या विपक्ष में जाने वाले हैं। भारत में कांग्रेस पिछले १० वर्षों से सत्ता में आने का प्रयास कर रही है लेकिन असफल रही है। अब ये दल अपने अपने-अपने देश में लोकतंत्र को अस्थिर करने के प्रयास में लगे हुए हैं। मैं विश्व के लोकतान्त्रिक देशों में वामपंथी दलों पर चीन के प्रभाव का अध्ययन करने की बात इसलिए कह रहा हूँ क्योकि यह चीन के हित में है कि वैश्विक तौर पर लोकतान्त्रिक व्यवस्थाएं अस्थिर हो जाएं ताकि चीन अपनी राजनीतिक व्यवस्था, जिसको वो नामालूम पैमानों के अनुसार लोकतंत्र कहता है, को दुनिया में स्वीकृत करा सके।
विपक्षी कांग्रेस पार्टी को वैश्विक वामपंथ के साथ गठजोड़ करने पर मजबूर करने के बाद, ‘दक्षिणपंथी’ मोदी द्वारा G-20 का सफल आयोजन करा भारतीय दक्षिणपंथ ने ये संकेत दिया है कि यह विचारधारा वैश्विक स्तर पर समावेशीकरण के माध्यम से समस्यायों का समाधान करने और लोकतंत्रीकरण को आगे बढ़ाने में सक्षम है। मोदी की इस सफलता को घरेलू स्तर पर वैचारिक सफलता के तौर पर देखा जाना चाहिए। G-20 के सर्वमान्य प्रस्ताव में निहित लोकतान्त्रिक भावना ने देश के भीतर लोकतंत्र पर भाजपा की पकड़ मजबूत की है। वैश्विक स्तर पर भारत द्वारा G-20 के सफल आयोजन ने वैश्विक शक्ति संतुलन स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है और वैश्विक स्तर किसी भी प्रकार के हिंसक शक्ति संतुलन की सम्भावना को न्यूनतम करने का प्रयास किया है।