फ्री, फ्री, फ्री…
टीवी और बाजार में कई बार आपकी निगाहें ऐसे ही विज्ञापनों पर ठहर जाती होंगी।
क्या आपने सोचा है कि जो बाजार व्यवस्था अपना सामान बेचकर मुनाफा कमाती है, वह आपको कोई सामान मुफ्त में कैसे दे देती है? यह फ्री या मुफ्त की संस्कृति क्या है? अब चुनाव आयोग ने इसी मुफ्त की संस्कृति पर विचार किया है।
दरअसल, ‘चुनावी रेवड़ियों’ पर बहस के बीच निर्वाचन आयोग ने राजनीतिक दलों को आदर्श आचार संहिता में संशोधन का प्रस्ताव दिया है। मंगलवार, 4 अक्टूबर, 2022 को निर्वाचन आयोग द्वारा राजनीतिक दलों के लिए एक पत्र लिखा गया। इस पत्र में आयोग ने राजनीतिक दलों के समक्ष आदर्श आचार संहिता में संशोधन हेतु प्रस्ताव रखा। यह प्रस्ताव चुनाव के दौरान की जाने वाली घोषणाओं से संबधित है।
इस संशोधन के बाद:
- राजनीतिक दलों को जनता को बताना होगा कि वे चुनावों के दौरान किए गए वादे कैसे पूरे करेंगे?
- राजनीतिक दलों से चुनावी वादों की वित्तीय व्यावहारिकता पर प्रामाणिक जानकारी माँगी जा सकेगी। वित्तीय व्यावहारिकता अर्थात चुनावी वादों को पूरा करने के लिए राजस्व कहाँ से जुटाया जाएगा और इसका स्रोत क्या होगा?
- इन वादों की पूर्ति के लिए अगर कोई प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष कर, अतिरिक्त कर या खर्चे में कटौती लागू की जाएगी तो उसकी जानकारी भी जनता को दी जाएगी।
- इसके अलावा कर्ज के द्वारा या फिर किसी अन्य स्रोत से धन जुटाने की जानकारी भी सार्वजानिक होगी। कुल मिला कर घोषणा पत्र वित्त आयोग, भारतीय रिजर्व बैंक की गाइड लाइन पर आधारित होना चाहिए।
निर्वाचन आयोग ने सभी मान्यता प्राप्त राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दलों से 19 अक्टूबर तक इस प्रस्ताव पर अपने विचार प्रस्तुत करने के लिए कहा है।
निर्वाचन आयोग के इस पत्र ने एक बार फिर से ‘रेवड़ी कल्चर’ और मुफ्त योजनाओं की चर्चा को जन्म दे दिया है। क्या ये मुफ्त योजनाएँ पिछले कुछ वर्षों में ही शुरू हुई हैं? आइए, इतिहास पर एक नजर डालते हैं।
मुफ्त योजनाओं का इतिहास
इस मुफ्त संस्कृति की शुरुआत 60 के दशक में दक्षिण भारत में देखी जा सकती है। शुरुआती दौर में इसका चलन सब्सिडी के रूप में हुआ था।
1954 से 1963 के बीच तत्कालीन मद्रास (तमिलनाडु) के मुख़्यमंत्री कुमारस्वामी कामराज ने इसकी शुरुआत की। उन्होंने स्कूली छात्रों के लिए मुफ्त शिक्षा और मुफ्त भोजन के रूप में छूट की शुरुआत की।
इसके बाद 1967 के राज्य चुनाव में, DMK के संस्थापक सीएन अन्नादुरई ने इस प्रथा को आगे बढ़ाया। उन्होंने घोषणा की थी कि अगर वह चुनाव जीतते हैं तो सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से लगभग 4.5 किलोग्राम चावल 1 रुपए में दिया जाएगा।
1990 तक आते आते इस सूची में कृषि ऋण माफ़ी की योजना भी जुड़ चुकी थी। 1990 में पहली बार देशव्यापी कृषि ऋण माफी की घोषणा की गई थी।
21वीं सदी के पहले दशक में साधारण सब्सिडी के वादे हवाई चुनावी वादों में तब्दील होने लग गए थे। 2006 के राज्य चुनाव के दौरान, डीएमके ने अपने मतदाताओं को रिझाने के लिए रंगीन टेलीविजन की देने की घोषणा कर दी । इसके अलावा पार्टी ने चावल पर सब्सिडी, भूमिहीनों के लिए दो एकड़ जमीन, मुफ्त गैस चूल्हे, नकद सहायता और मातृत्व सहायता की भी पेशकश की।
तो वहीं, वर्ष 2011 के तमिलनाडु चुनाव में जयललिता की एआईडीएमके पार्टी ने एक कदम आगे चलकर घोषणापत्र में लोगों को मुफ्त ग्राइंडर, मिक्सी, लैपटॉप, दुधारू गाय और बकरियां देने जैसी योजनाओं का विस्तार करने का वादा किया। यहाँ तक कि इसमें शादी के समय 8 ग्राम सोने की वित्तीय मदद भी शामिल थी।
फ्री चुनावी वादों में एक नया अध्याय तब जुड़ा जब वर्ष 2013 में दिल्ली में आम आदमी पार्टी चुनावी मैदान में उतरी। आम आदमी पार्टी की तरफ से मुफ्त बिजली (आधा बिजली का बिल माफ़) और कुछ शर्तों के साथ मुफ्त पानी घोषणा पत्र में शामिल किया गया।
2015 के दिल्ली चुनाव में आम आदमी पार्टी इन्ही मुफ्त वादों के साथ बड़े बहुमत से सरकार बनाने में कामयाब रही एवं 2020 में AAP ने वादों की इस सूची में महिलाओं के लिए फ्री बस सेवा को भी जोड़ दिया।
इसी वर्ष 2022 में संपन्न हुए उत्तराखंड, पंजाब, यूपी चुनाव में अलग अलग दलों ने कई मुफ्त वादे किये थे।
आम आदमी पार्टी ने संबधित राज्यों के लिए अपने घोषणा पत्र में कुछ और मुफ्त वादे जोड़ दिए।
- प्रत्येक घर को 300 यूनिट फ्री बिजली
- हर युवा को नौकरी न मिलने तक 5000 रुपए
- 18 वर्ष से ऊपर की सभी महिलाओं को प्रत्येक महीने एक हजार रुपए की राशि
पंजाब में कांग्रेस की ओर से मुफ्त में 8 सिलेंडर, 12 वीं पास लड़की को 20 हजार, 10वीं पास को दस हजार, कॉलेज जाने वाली लड़की को स्कूटी देने का वादा किया गया। वहीं यूपी के लिए 12 वीं पास लड़कियों को स्मार्ट फोन, कॉलेज जाने वाली लड़की को स्कूटी देने का वादा किया गया।
2022 यूपी चुनाव में समाजवादी पार्टी भी इस दौड़ में पीछे नहीं रही और अखिलेश यादव ने भी मुफ्त बिजली का वादा किया। वहीं यूपी में बीजेपी की ओर से भी फ्री लैपटॉप का वादा किया गया।
मुफ्त संस्कृति की यह परम्परा देश के उत्तर से लेकर दक्षिण तक हर राज्य में दिनोदिन नित नए ‘आयाम’ छू रही है। राजनीतिक दलों के बीच इसने एक प्रतिस्पर्धा का रूप ले लिया है। इसमें राजनीतिक दल हवा-हवाई वादों से भी परहेज़ नहीं कर रहे हैं।
अलग-अलग राज्यों के बीच चल रही मुफ्त संस्कृति ने ‘गति अवरोधक’ का सामना तब किया जब इसी वर्ष जुलाई माह में देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने एक भाषण में रेवड़ी कल्चर नाम देकर इस संस्कृति को देश के विकास में बाधा बताया और साथ ही कहा कि यह देश के लिए हानिकारक है।
‘रेवड़ी संस्कृति’ हानिकारक क्यों ?
चुनाव के दौरान राजनीतिक दलों द्वारा किए जाने वाले वादों का भविष्य क्या होता है?
सामान्य सी बात है, इन वादों की पूर्ति के लिए राज्य अपने राजकोष पर निर्भर रहता है।
तो यह चुनावी मुफ्त वादे राजकोष को कैसे प्रभावित करते हैं ?
भारतीय स्टेट बैंक समूह के मुख्य आर्थिक सलाहकार सौम्य कांति घोष द्वारा लिखी गई एक रिपोर्ट में तीन राज्यों का उदाहरण देते हुए कहा गया है कि छत्तीसगढ़, झारखंड और राजस्थान जैसे राज्यों की वार्षिक पेंशन देनदारी 3 लाख करोड़ रुपए है।
इन राज्यों के राजस्व का ब्योरा देखा जाए तो झारखंड, राजस्थान और छत्तीसगढ़ की पेंशन देनदारियां क्रमशः 217, 190 और 207% हैं।
घोष यह भी बताते हैं कि नवीनतम उपलब्ध जानकारी के अनुसार, वर्ष 2022 में राज्यों के ऑफ-बजट उधार, सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 4.5% हैं। (ऑफ बजट उधार वे लोन होते हैं, जो सरकार सीधे तौर पर नहीं लेती है बल्कि, कोई दूसरी सार्वजनिक संस्था सरकार के कहने पर इस लोन को लेती है। ऐसे लोन सरकार के खर्च को पूरा करने में मदद करते हैं)
रिपोर्ट में सुझाव दिया गया कि शीर्ष अदालत इन मुफ्त योजनाओं के लिए एक प्लान तैयार करे और इन मुफ्त योजनाओं का भुगतान राज्य के कर संग्रह या राज्य के राजस्व व्यय का 1% निधि से हो।
आंध्र प्रदेश
आंध्र के मुख्यमंत्री वाईएस जगन मोहन रेड्डी के अनुसार, उनकी सरकार ने विभिन्न मुफ्त योजनाओं के तहत 1.62 लाख करोड़ रुपए खर्च किए हैं। बावजूद इसके राज्य हाल ही में प्रशासन चलाने के लिए सरकारी भूमि और कार्यालयों को गिरवी रखने पर विचार कर रहा था।
2022 के बजट में, सरकार ने 48,000 करोड़ रुपए की योजनाओं की घोषणा की थी।
2021 के अनुमान के अनुसार राज्य का कुल सार्वजनिक ऋण 3,90,670 करोड़ रुपए था, जो 2022-23 में 4,39,394.35 करोड़ रुपए तक बढ़ने का अनुमान है। आंध्र प्रदेश सरकार 22,000 करोड़ रुपए का भुगतान सिर्फ ब्याज देने के लिए करती है और इस वर्ष 55,000 करोड़ रुपए और कर्ज लेने के लिए तैयार है।
पंजाब
पंजाब एक और कर्ज में डूबा राज्य है जो खराब वित्तीय हालातों के बावजूद अनावश्यक सब्सिडी को समाप्त करने में असमर्थ है। राज्य में किसानों की आय में वृद्धि के बावजूद लगातार मुफ्त बिजली और पानी जैसी योजनाएँ जारी हैं।
पंजाब में 1 जुलाई से शुरू की गई 300 यूनिट मुफ्त बिजली के अतिरिक्त बोझ से भी राज्य के खजाने पर सालाना 1800 करोड़ रुपए खर्च होंगे। बिजली बिल सब्सिडी चालू वित्त वर्ष में 18,000 करोड़ रुपए तक पहुँचने के लिए तैयार है, जबकि पिछले वित्त वर्ष से 7,117 करोड़ रुपए की राशि बकाया है।
पंजाब सरकार की महिलाओं के लिए मुफ्त यात्रा सुविधा पर प्रतिवर्ष 600 करोड़ रुपए खर्च होने का अनुमान है और राज्य के परिवहन विभाग की माली हालत खराब है।
AAP सरकार की महिलाओं को प्रति माह 1,000 रुपए देने की योजना से सालाना 12,000 करोड़ रुपए का खर्चा बनने की संभावना है।
पंजाब उन कुछ राज्यों में से एक है, जिस पर उसके घरेलू सकल उत्पाद के 50% से अधिक का कर्ज है। वहीं पंजाब को जीएसटी मुआवजे के रूप में केंद्र द्वारा सालाना 16,000 करोड़ रुपए वित्तीय सहायता दी जाती है।
मुफ्त घोषणाओं पर आरबीआई की मौद्रिक नीति समिति (एमपीसी) की सदस्य आशिमा गोयल ने भी कहा कि मुफ्त योजनाएँ कभी भी ‘मुफ्त’ नहीं होती हैं और जब राजनीतिक दल ऐसी योजनाओं की पेशकश करते हैं, तो उन्हें मतदाताओं को उन योजनाओं के वित्तपोषण के बारे में भी बताना चाहिए, ऐसा करने से दलों के बीच फ्री योजनाओं के जरिये लोकप्रिय होने की प्रतिस्पर्धा में भी कमी आएगी।
राज्य कल्याणकारी योजना और मुफ्त रेवड़ी
अक्सर हम देखते हैं कि फ्री योजनाओं की घोषणा के मध्य में गरीब तबके को बताया जाता है।
हमारे देश में गरीब कौन है?
इस पर समय समय पर चर्चा होती रहती हैं और इसकी परिभाषा भी समयानुसार बदलती रहती है। लेकिन वर्षों से चली आ रही एक परिभाषा जो ‘रोटी, कपड़ा और मकान’ के इर्द गिर्द घूमती है उस पर हम सहमत हो सकते हैं।
क्या मुफ्त अनाज से गरीब को लाभ है?
वर्तमान में मुफ्त अनाज देने की सबसे बड़ी योजना केंद्र सरकार द्वारा जारी है, जो वर्ष 2020 के कोरोनाकाल में शुरू की गई थी। इस योजना पर प्रधानमंत्री मोदी ने बयान दिया-
“भारत ने कोरोनावायरस के कारण संकट से निपटने की अपनी रणनीति में गरीबों को पहली प्राथमिकता दी। प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना हो या प्रधानमंत्री रोजगार योजना, हमने पहले दिन से ही गरीबों के भोजन और रोजगार के बारे में सोचा”
इस योजना के पीछे उन्होंने कल्याणकारी राज्य की संकल्पना बताई है।
कल्याणकारी राज्य व्यवस्था संविधान में प्रदत्त एक ऐसी संकल्पना है जिसमें राज्य नागरिकों के आर्थिक तथा सामाजिक कल्याण को बढ़ावा तथा सुरक्षा देने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है।
ठीक इसके उलट समृद्ध एवं सक्षम लोगों हेतु फ्री योजनाएं ऐसे कल्याणकारी राज्य की संकल्पना को ही प्रभावित करती हैं।
सक्षम व्यक्तियों को प्रति माह कुछ राशि देना या किराया देने में सक्षम लोगों को फ्री यात्रा सुविधा देना तब अनुचित हो जाता है जब उसी विभाग से जुड़े शिक्षकों या परिवहन कर्मचारियों को समय पर तनख्वाह नहीं मिल पाती है।
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट भी मुफ्त संस्कृति के इस मुद्दे पर अपनी बात रख चुका है
कोर्ट ने कहा, ‘कुछ लोगों का कहना है कि राजनीतिक पार्टियों को वोटर्स से वादे करने से नहीं रोका जा सकता है…अब ये तय करना होगा कि फ्रीबीज क्या है।?’
कोर्ट ने इस मामले के सभी पक्षों से अपनी राय देने को कहा है।
भविष्य क्या?
स्वाभाविक है कि वोट पाने के लिए मुफ्त प्रलोभनकारी घोषणाओं की कोई सीमा नहीं और जन कल्याण हेतु योजना बनाने की भी कोई सीमा नहीं, लेकिन राज्यों के वित्तीय कोष की सीमा अवश्य है।
वैश्वीकरण एवं निवेश के इस दौर में राज्यों की आर्थिक स्थिति अवश्य ही मायने रखती है।
चर्चा इस पर होनी चाहिए कि आज चुनाव आयोग को इस स्थिति में क्यों आना पड़ा कि लोकतंत्र के सबसे मजबूत स्तम्भ के लिए पत्र लिखने पर विवश होना पड़ा। चर्चा इस पर भी होनी चाहिए कि राजनैतिक दलों की ओर से बांटी जाने वाली इन रेवड़ियों को जनता जनार्दन क्यों स्वीकार कर रही है?
खैर, एक मजबूत लोकतंत्र के लिए चुनाव आयोग, सुप्रीम कोर्ट एवं सभी दलों के लिए एक लकीर खींचने का वक़्त यही है, अभी है।