त्रिगर्त क्षेत्र ( सतलुज, रावी और व्यास नदियों के बीच का क्षेत्र) के पहचान देवभूमि के साथ वीरभूमि के रूप भी रही है। अंग्रेजों के अमानवीय अत्याचारों के विरुद्ध भी इसी क्षेत्र के युवाओं ने पहली बार संगठित एवं सशस्त्र तरीके से चुनौती दी थी। इन युवाओं का नेतृत्व महज 21-22 वर्ष के युवा अप्रतिम योद्धा,कुशल रणनीतिकार, कलाप्रिय प्रशासक वीर राम सिंह पठानिया कर रहे थे। उन्होंने प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से भी लगभग 10 वर्ष पूर्व पहाड़ी युवाओं को एकत्रित कर अग्रेजों के सामने बड़ी चुनौती पेश की थी।
वीर राम सिंह पठानिया का जन्म नूरपुर रियासत में राम सिंह पठानिया का जन्म श्याम सिंह के घर 10 अप्रैल, 1824 को हुआ था। शाम सिंह राजस्थान के कोटा के निवासी थे। उनकी माता इंदौरी देवी मिन्हास वंश से थीं । राम सिंह बचपन से ही साहसी और शूरवीर थे। श्याम सिंह नूरपुर रियासत के राजा वीर सिंह के मंत्री थे।
निरंतर युद्धरत होने के कारण नूरपुर के अंतिम शक्तिशाली शासक वीर सिंह के समय तक राज्य का क्षेत्रफल और सैन्यशक्ति क्षीण हो गई थी। ईसवी 1846 में एक युद्ध में इनका निधन हो गया। उस समय उनका बेटा जसवंत सिंह महज 10 साल का था। राजा वीर सिंह की मृत्यु के बाद उनके बेटे जवसंत सिंह राजगद्दी के उत्तराधिकारी थे। उस समय अंग्रेज छोटी-छोटी रियासतों को अपने साम्राज्य में मिला लिया करते थे। जवसंत सिंह 10 साल के थे, इसीलिए अंग्रेजों ने उन्हें राजा मानने से मना कर दिया। अंग्रेजों ने 5000 रूपये वार्षिक देकर उनके सारे अधिकार ले लिए। नवयुवक राम सिंह यह सहन नहीं कर सके । उसने अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध की तैयारी आरम्भ कर दी थी।
औपनिवेशिक शासन से मुक्ति का अभियान
राम सिंह पठानिया ने हिमाचल से सारे अंग्रेजों को उखाड़ फेंकने की योजना बनायी। अंग्रेजी शासन से मुक्ति के लिए वीर राम सिंह पठानिया ने अन्य पहाड़ी रियासतों के राजाओं और सैनिकों को सहयोग के लिए इकट्ठा करना शुरू किया। ब्रिटिशर्ज के खिलाफ वीर राम सिंह पठानिया की सैन्य तैयारियों के बारे में देवराज शर्मा लिखते हैं, 1846 व 1848 ई० के मध्य उसने गुप्त रूप से नूरपुर के पठानिया और कांगड़ा के कटोच नवयुवकों की एक सेना तैयार कर ली।
14 अगस्त, 1848 की रात में सबने शाहपुर कण्डी दुर्ग पर हमला बोल दिया। उन्होंने शाहपुर कंडी दुर्ग को पुन: अपने अधिकार में ले लिया। अंग्रेजी सेना वहां से भाग खड़ी हुई। 15 अगस्त को दुर्ग पर उन्होंने नूरपुर रियासत का शाही झंडा फहरा दिया। उन्होंने नूरपुर रियासत में ढोल पिटवाकर मुनादी करवा दी कि आज से अंग्रेजी शासन नूरपुर रियासत से समाप्त कर दिया है। इस रियासत के राजा जसवंत सिंह हैं तथा वह उनके वजीर हैं। वहीं, कांगड़ा दुर्ग में भी अंग्रेजी सेना भाग गई। जसवां के राजा उमेद सिंह, दत्तापुर के राजा जगत सिंह व ऊना के सिख संत सिंह वेदी ने भी अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। कांगड़ा के राजा प्रमोद चंद ने सुजानपुर के दुर्ग में 21 तोपों की सलामी लेकर अपना ताज पुन: पहन लिया।
शाहपुर कंडी किले पर कब्जे की खबर पंजाब के गवर्नर तक पहुंचती है। वह वापिस अंग्रेजों को किले पर हमला करने के लिए भेज देता है। स्थिति की गंभीरता से देखते हुए जालंधर के डीसी हेनरी लारेंस व कांगड़ा के डीसी वार्नस फौजी दल-बल के साथ शाहपुर कंडी पहुंचे तथा दुर्ग पर हमला कर दिया। वीर राम सिंह पठानिया ने बेहद कूटनीतिक ढंग से अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष को जारी रखा। देवराज शर्मा ने उनकी दूरदर्शी एवं सक्षम कूटनीति को समझाते हुए लिखा है, उन्होंने (राम सिंह पठानिया) कटोच और अन्य राजाओं व सिक्खों के साथ मिलकर एक योजना बनायी कि मैदानों में सिक्ख अंग्रेजों को उलझाएं और पहाड़ों आदि के राजा उन पर आक्रमण करें। सिक्खों ने उसी साल 1848 ई० में पठानकोट पर आक्रमण कर दिया। अधिकतर अंग्रेज सेना पठानकोट चली गई। काँगड़ा में थोड़ी सेना रह गयी। काँगड़ा के राजा प्रमोद चन्द ने उस सेना को भगा कर काँगड़ा पर अधिकार कर लिया। जसवां के राजा उमेद सिंह, दातारपुर के राजा जगत चन्द ने उस सेना तथा सिक्ख संत बेदी विक्रम सिंह ने भी अपनी स्वतन्त्रता की घोषणा कर दी, परन्तु योजना अन्ततः सफल न हो सकी।
इसके बाद अंग्रेजी सेना ने पहाड़ी राजाओं की सेना को साम, दाम, दंड और भेद की नीति अपनाते हुए पराजित किया। राजा प्रमोद चंद तथा अन्य राजाओं को बंदी बनाकर अलमोडा जेल भेज दिया गया। वजीर राम सिंह पठानिया ने हिम्मत नहीं हारी। वे अपना मोर्चा पठानकोट से उत्तर-पश्चिम की ओर समुद्र तल से २७७२ फुट ऊंचाई पर स्थित ‘डल्ले दी धार’ पर लगाया। अंग्रेजी सेना कुमणी रे पैल नामक स्थान पर एकत्रित हो गई। अंग्रेजी सेना को आगे बढ़ता देखकर वीर राम सिंह ने उन्हें मुकेसर के जंगल में घेर लिया तथा युद्ध में सैकड़ों अंग्रेजी सेना की एक नई टुकड़ी को मौत की नींद सुला दिया। अंग्रेजी सेना की एक नई टुकड़ी के आ जाने के कारण वह शत्रु सैनिकों से बुरी तरह घिर गए। ब्रिटेन की रानी विक्टोरिया के संबंधी रॉबर्ट पील के भतीजे जॉन पील ने वाहवाही लूटने के मकसद से वजीर राम सिंह के निकट जाने का दुस्साहस किया। राम सिंह ने पलक झपकते ही ले. जॉन पील तथा उसके अंगरक्षकों को मौत के घाट उतार दिया। मंजीत सिंह आहलूवालिया लिखते हैं, राम सिंह का मुकाबला करने के लिए ब्रिगेडियर व्हीलर के नेतृत्व में एक ब्रिटिश सेना भेजी गई, जो कई दिनों तक विद्रोहियों के खिलाफ लड़ती रही। दोनों ओर से भारी क्षति के साथ इस स्थान पर अंग्रेजों ने कब्ज़ा कर लिया। ब्रिटिश सेना के कई युवा अधिकारी मारे गए, जिनमें सर रॉबर्ट पील और रॉबर्ट ब्राउन के भतीजे जॉन पील भी शामिल थे। डल्ले की धार पर जान पील की कब्र पर स्थित शिला लेख आज भी उस घटना की ऐतिहासिकता को दर्शाता है।
पूजा करते समय गिरफ्तारी
अंग्रेजों को भी अब अच्छी तरह से समझ में आ गया था कि राम सिंह पठानिया को गिरफ्तार करना या मारना उनके बस की बात नहीं है। ऐसे में उन्हें पकड़ने के लिए अंग्रेजों ने एक षड्यन्त्र रचा। उन्होंने अंग्रेज राम सिंह का खाना बनाने वाले उनके एक मित्र को अपने साथ मिला लिया। वह राम सिंह पठानिया के बारे में सब कुछ जानता था। उन्होंने अंग्रेजों को बताया कि राम सिंह सुबह उठकर पुखर माता मन्दिर में पूजा पाठ करने के लिए जाते हैं। उस समय उनके साथ कोई भी साथी नहीं होता है और ना ही उनके पास कोई हथियार होता है। जब राम सिंह पूजा पाठ कर रहे थे, तब अंग्रेजों ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। पकड़े जाने से पहले उन्होंने पूजा के लौटे से ही कई शत्रु सैनिकों को यमलोक पहुंचा दिया।
गिरफ्तार करके उन्हें कांगड़ा के किले में ले जाया गया तथा घोर यातनाएं दी गईं । अभयदान, बड़ी जागीर तथा धन दौलत के लालच दिए गए। लेकिन वह टस से मस नहीं हुए। जब राम सिंह से कोर्ट में पूछा जाता है कि उन्होंने यह लड़ाई क्यों की, तो वह बोलते हैं कि मैं एक सच्चा राजपूत हूं और मैं आपके द्वारा दी गई किसी भी सजा से नहीं डरता। सशस्त्र क्रांति का अभियोग लगाकर 21 अप्रैल 1849 को वजीर राम सिंह को सजा ए मौत दी जाती है। 25 जुलाई 1849 को यह सजा सुनाई जाती है कि वह अपनी बाकी की ज़िंदगी रंगून में जेल में गुजारेंगे। आजीवन करावास की सजा सुनाकर उन्हें रंगून भेज दिया गया । रगूंन जेल की यातनाएं सहते हुए मातृभूमि के इस महान सपूत ने 11 नवंबर, 1849 को मात्र 24 साल की आयु में अपने प्राण मातृभूमि की रक्षा के लिए न्योछावर कर दिए।
पहाड़ी कला के संरक्षक
अमृतकाल में जब देश अपने आदर्शों को नए सिरे से खोजने और परिभाषित करने में लगा है, वीर राम सिंह पठनिया एक ऐसे युवा आदर्श के रूप में हमारे सामने आते हैं, जो योद्धा, रणनीतिकार, संगठक के साथ कलाप्रेमी भी हैं। उनके नाम पर संग्रहालय बनाकर और रक्षा अध्ययन केंद्रों की स्थापना कर न केवल उन्हें वास्तविक श्रद्धांजलि दी जा सकती है, बल्कि युवाओं को राष्ट्र-रक्षा के लिए प्रेरित भी किया जा सकता है ।
यह लेख डॉ. जय प्रकाश सिंह और डॉ. रवींद्र सिंह ने लिखा है।